सोनिया और महबूबा मुफ्ती का एक ही कष्ट

यानी सैयदा के पूर्वजों ने तो देसी मुसलमानों के पूर्वजों को हिंदुओं से इस्लाम पंथ में मतांतरित किया था। इसलिए उनके लिए निहायत जरूरी था कि वे स्वयं को गुलाम नबी आजाद के इस विश्लेषण से अलग करतीं और वह उन्होंने अपने तरीके से किया भी…

चंद्रयान-3 चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर उतरने वाला पहला यान है। इससे पहले अमेरिका, रूस और चीन के यान चंद्रमा पर पहुंच चुके थे, लेकिन वे दक्षिणी ध्रुव पर नहीं उतरे थे, क्योंकि वहां उतरना उतना आसान नहीं है। रूस ने भी अपना लूना-25 चांद के दक्षिणी ध्रुव पर उतारने के लिए रवाना किया था, लेकिन वह सफल नहीं हो सका। जब किसी देश का यान चंद्रमा पर उतरता है तो वह देश, जिस स्थान पर उतरता है, उसका प्राय: नामकरण कर देते हैं। यह नामकरण प्रतीकात्मक ही होता है। जिस स्थान पर चन्द्रयान-3 उतरा, भारत ने उसका नामकरण शिव शक्ति प्वांइट कर दिया। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इसकी व्याख्या भी कर दी। उनका कहना था कि शिव हिमालय का प्रतीक है और शक्ति कन्याकुमारी की। यानी शिव शक्ति में पूरा हिन्दुस्तान समा जाता है। देश ने इस नामकरण को सराहा। विदेश में तो इस पर चर्चा होने का सवाल ही नहीं था क्योंकि जिस देश का यान चन्द्रमा के जिस स्थान पर उतरता है, वह देश उस स्थान को प्रतीकात्मक नाम देता ही है। अमेरिका ने जब अपना अपोलो मिशन शुरू किया था, तब से लेकर अब तक उसने अनेक स्थानों का चन्द्रमा पर नामकरण किया। लेकिन सोनिया कांग्रेस भारत के इस अधिकार का विरोध कर रही है। उसके वरिष्ठ नेता राशिद अल्वी ने कहा कि भाजपा को नामकरण की बीमारी है। अभी तक तो वह देश में ही शहरों के नाम बदलने का काम कर रही थी, लेकिन अब उसने चन्द्रमा पर भी यह काम शुरू कर दिया है। राशिद अल्वी का कहना है कि भारत को चन्द्रमा पर नाम रखने का क्या अधिकार है? हम चन्द्रमा के स्वामी तो नहीं हैं। सारी दुनिया हमारी इस हरकत पर हंसेगी।

राशिद अल्वी से जब पूछा गया कि चन्द्रयान-1 जिस स्थान पर 2008 में उतरा था तब भारत ने उस स्थान का नामकरण जवाहर प्वांइट किया था। इस पर तो राशिद भाई बुरी तरह भडक़ उठे। उन्होंने कहा जवाहर लाल से किसी की तुलना नहीं की जा सकती। जवाहर लाल के कारण ही इसरो है जिसने चन्द्रयान-3 चांद पर भेजा है। आज यह सब जो कुछ है वह नेहरु के कारण ही है। यह राशिद अल्वी का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि शिव शक्ति नामकरण का किसी भी देश ने न तो विरोध किया और न ही हंसता हुआ दिखाई दिया। राशिद अल्वी को इस नामकरण पर एक और भी आपत्ति भी थी। उनका कहना है कि शिव शक्ति नाम ही बेतुका है। वैसे सही पकड़ा जाए तो कांग्रेस के दर्द की असली वजह यह बेतुका नाम है, न कि नामकरण के अधिकार को लेकर दर्द है। अब कांग्रेस के भीतर भी इस प्रकार की देश विरोधी सोच को लेकर कहीं कहीं विरोध के मद्धम स्वर सुनाई देने लगे हैं। पिछले दिनों कांग्रेस के प्रवक्ता आचार्य प्रमोद कृष्णन ने भी स्वीकारा था कि कांग्रेस हिन्दू या भारतीय प्रतीकों से चिढ़ती है। वैसे गहराई से देखा जाए तो इन्दिरा गान्धी तक ऐसा नहीं था। वे भारतीय प्रतीकों का प्रयोग भी करती थीं और उन्हें बढ़ावा भी देती थीं।

आकाशवाणी से संस्कृत में समाचारों का प्रसारण उन्होंने ही शुरू करवाया था। दिल्ली के स्कूलों में योग और योग प्रशिक्षकों का चलन उनके शासन काल में ही शुरू हुआ था। दिल्ली में मंत्रालयों के भवनों के भारतीय शब्दों में नामकरण मसलन संचार भवन, परिवहन भवन, निर्वाचन भवन आदि की शुरुआत उनके काल में ही शुरू हुई थी। लेकिन जब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पर सोनिया गान्धी ने येन केन प्रकारेण कब्जा कर लिया, तब से भारतीय प्रतीकों को नकारने की परम्परा चली। टुकड़े टुकड़े गैंग की अवधारणा को उनके काल में ही बल मिला। इन्तहा तो तब हो गई जब उनके सुपुत्र राहुल गान्धी जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय में टुकड़े टुकड़े गैंग के साथ मिल कर कदमताल करते नजर आने लगे। यह यात्रा सीधी टेढ़ी चलती हुई कहीं न कहीं जाकर महबूबा मुफ्तियों के साथ जाकर मिलती है। सैयदा महबूबा मुफ्ती और उनकी बिरादरी के लोग भारत में अपने आप को अशरफ कहते हैं। अशरफ में तुर्क और मुगल मंगोल वंश के लोग भी शामिल हैं। लेकिन अरब मूल के सैयद इनमें भी सबसे ऊंचे हैं। ये सभी हिन्दुस्तान में एटीएम हैं। एटीएम यानी अरब, तुर्क, मुगल मूल के मुसलमान। इनकी निगाह में भारत के देसी मुसलमान (डीएम) दोयम दर्जे के लोग हैं। यानी अलजाफ, अरजाल और पसमांदा। पाठक इन अरबी शब्दों के अर्थ शब्दकोश में खुद तलाश सकते हैं। देसी मुसलमानों की समस्या है कि वे अभी भी अपनी देसी जड़ों को याद कर लेते हैं। सैयदों की निगाह में यह उनका बहुत बड़ा अपराध है, कुफ्र है। ऐसा अपराध पिछले दिनों जम्मू-कश्मीर के पूर्व में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता रहे गुलाम नबी आजाद कर बैठे। देसी मुसलमानों का यह कुफर क्या था? गुलाम नबी आजाद जम्मू कश्मीर के डोडा में अपने लोगों से मुखातिब हो रहे थे। बात बाहरी मुसलमानों की चल रही थी। उन्होंने कहा दस बीस मुसलमान होंगे जो इस देश में बाहर से आए होंगे। कुछ मुगल सेना के साथ आए होंगे या उसमें होंगे। गुलाम नबी मुगल सेना या मुगलों तक ही सीमित रहे। लेकिन कुछ अरब हमलावरों के साथ भी आए होंगे। इसी प्रकार तुर्क हमलावरों के साथ भी आए होंगे।

इस प्रकार आज के समय में हिन्दुस्तान के मुसलमानों में दो-तीन प्रतिशत होंगे जो बाहर से आए होंगे। लेकिन गुलाम नबी ने जो आगे कहा वह ज्यादा महत्वपूर्ण था। इसी से अशरफ समाज को सबसे ज्यादा चिढ़ होती है। उन्होंने कहा हिन्दुस्तान के जो शेष मुसलमान हैं वे तो यहां के हिन्दुओं से ही मतान्तरित हुए हैं। इस्लाम तो बमुश्किल 1500 साल पहले ही अस्तित्व में आया। उससे पहले तो हिन्दुस्तान में सब हिन्दू ही थे। अपनी बात को आगे स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा कि इस बात को समझने के लिए सबसे अच्छा उदाहरण कश्मीर का है। 600 सौ साल पहले कश्मीर में कोई मुसलमान नहीं था। सभी हिन्दू ही थे। उनमें से जो मतान्तरित हो गए, वे मुसलमान कहलाए जाने लगे। उन्होंने कहा कि हम बाहर से नहीं आए, हम यहीं की मिट्टी में पैदा हुए और इसी मिट्टी में मिल जाएंगे। जब हिन्दू मरता है तो उसका दाह संस्कार किया जाता है। उसकी राख नदियों के जल में मिल जाती है और वह जल हम पीते हैं। जब हम मरते हैं तो मिट्टी में दफन होकर इस देश की मिट्टी में ही हमारा मांस और अस्थियां मिल जाती हैं ।

हम भी भारत माता का रजकण बन जाते हैं। इसलिए हम में और हिन्दुओं में क्या अन्तर है? कुछ दिन पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डा. मोहन भागवत जी ने भी यही कहा था कि भारत में हिन्दुओं और मुसलमानों का डीएनए एक ही है। इसमें कोई शक नहीं कि गुलाम नबी आजाद जो इतिहास बता रहे थे वही सत्य है। लेकिन यह इतिहास केवल भारत के देसी मुसलमानों का इतिहास है। गुलाम नबी आजाद भी उनमें से एक हैं। लेकिन इस इतिहास पर सैयदा महबूबा मुफ्ती को आपत्ति है और उसने अपनी यह आपत्ति अपने तरीके से दर्ज भी करवाई। सैयदा की आपत्ति जायज भी है क्योंकि वे और अरब मूल के अन्य सैयदों के पूर्वज हिन्दू नहीं थे और न ही उनके पूर्वज हिन्दुओं में से मतान्तरित होकर इसलाम में दाखिल हुए थे। अलबत्ता इन बिहाकी और हमदानी सैयदों ने कश्मीर के हिन्दुओं को, जिनमें गुलाम नबी आजाद के पूर्वज भी थे, इस्लाम पंथ या शिया पंथ में मतान्तरित किया था। यानी सैयदा के पूर्वजों ने तो देसी मुसलमानों के पूर्वजों को हिन्दुओं से इस्लाम पंथ में मतान्तरित किया था। इसलिए उनके लिए निहायत जरूरी था कि वे स्वयं को गुलाम नबी आजाद के इस विश्लेषण से अलग करतीं और वह उन्होंने अपने तरीके से किया भी। उनका और भारत के देसी मुसलमानों का डीएनए यकीनन अलग-अलग ही है। सैयदा ने गुलाम नबी आजाद पर व्यंग्य कसते हुए फरमाया कि पता नहीं वे अपने पूर्वजों के बारे में कितना जानते बूझते हैं और यह भी नहीं पता कि वे अपने पूर्वजों की तलाश करते हुए और कितना पीछे जाएंगे। महबूबा का दर्द समझ में आता है।

ईमेल:kuldeepagnihotri@gmail.com

कुलदीप चंद अग्निहोत्री

वरिष्ठ स्तंभकार


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