श्रद्धा से किया गया कर्म ही श्राद्ध है

By: Sep 30th, 2023 12:30 am

श्राद्ध पूर्वजों के प्रति सच्ची श्रद्धा का प्रतीक है। पितरों के निमित्त विधिपूर्वक जो कर्म श्रद्धा से किया जाता है, उसी को श्राद्ध कहते हैं। ब्रह्म पुराण के अनुसार श्राद्ध की परिभाषा है, जो कुछ उचित काल, पात्र एवं स्थान के अनुसार उचित (शास्त्रानुमोदित) विधि द्वारा पितरों को लक्ष्य करके श्रद्धापूर्वक ब्राह्मणों को दिया जाता है, श्राद्ध कहलाता है। हिंदू धर्म के अनुसार, प्रत्येक शुभ कार्य के प्रारंभ में माता-पिता, पूर्वजों को नमस्कार या प्रणाम करना हमारा कत्र्तव्य है, हमारे पूर्वजों की वंश परंपरा के कारण ही हम आज यह जीवन देख रहे हैं, इस जीवन का आनंद प्राप्त कर रहे हैं। इस धर्म में, ऋषियों ने वर्ष में एक पक्ष को पितृपक्ष का नाम दिया, जिस पक्ष में हम अपने पितरेश्वरों का श्राद्ध, तर्पण, मुक्ति हेतु विशेष क्रिया संपन्न कर उन्हें अघ्र्य समर्पित करते हैं। यदि किसी कारण से उनकी आत्मा को मुक्ति प्रदान नहीं हुई है तो हम उनकी शांति के लिए विशिष्ट कर्म करते हैं, जिसे श्राद्ध कहते हैं…

पितृ का अर्थ

पितृ का अर्थ है पिता, किंतु पितर शब्द जो दो अर्थों में प्रयुक्त हुआ है : व्यक्ति के आगे के तीन मृत पूर्वज, मानव जाति के प्रारंभ या प्राचीन पूर्वज जो एक पृथक लोक के अधिवासी के रूप में कल्पित हैं।

तर्पण

आवाहन, पूजन, नमस्कार के उपरांत तर्पण किया जाता है। जल में दूध, जौ, चावल, चंदन डाल कर तर्पण कार्य में प्रयुक्त करते हैं। मिल सके तो गंगा जल भी डाल देना चाहिए। तृप्ति के लिए तर्पण किया जाता है। स्वर्गस्थ आत्माओं की तृप्ति किसी पदार्थ से, खाने-पहनने आदि की वस्तु से नहीं होती, क्योंकि स्थूल शरीर के लिए ही भौतिक उपकरणों की आवश्यकता पड़ती है। मरने के बाद स्थूल शरीर समाप्त होकर, केवल सूक्ष्म शरीर ही रह जाता है। सूक्ष्म शरीर को भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी आदि की आवश्यकता नहीं रहती, उसकी तृप्ति का विषय कोई खाद्य पदार्थ या हाड़-मांस वाले शरीर के लिए उपयुक्त उपकरण नहीं हो सकते। सूक्ष्म शरीर में विचारणा, चेतना और भावना की प्रधानता रहती है, इसलिए उसमें उत्कृष्ट भावनाओं से बना अंत:करण या वातावरण ही शांतिदायक होता है।

पिंड का अर्थ

श्राद्ध-कर्म में पके हुए चावल, दूध और तिल को मिश्रित करके पिंड बनाते हैं, उसे सपिंडीकरण कहते हैं। पिंड का अर्थ है शरीर। यह एक पारंपरिक विश्वास है, जिसे विज्ञान भी मानता है कि हर पीढ़ी के भीतर मातृकुल तथा पितृकुल दोनों में पहले की पीढिय़ों के समन्वित गुणसूत्र उपस्थित होते हैं। चावल के पिंड जो पिता, दादा, परदादा और पितामह के शरीरों का प्रतीक हैं, आपस में मिलकर फिर अलग बांटते हैं। यह प्रतीकात्मक अनुष्ठान जिन-जिन लोगों के गुणसूत्र (जीन्स) श्राद्ध करने वाले की अपनी देह में हैं, उनकी तृप्ति के लिए होता है।

श्राद्ध के नियम

दैनिक पंच यज्ञों में पितृ यज्ञ को खास बताया गया है। इसमें तर्पण और समय-समय पर पिंडदान भी सम्मिलित है। पूरे पितृपक्ष भर तर्पण आदि करना चाहिए। इस दौरान कोई अन्य शुभ कार्य या नया कार्य अथवा पूजा-पाठ अनुष्ठान संबंधी नया काम नहीं किया जाता। साथ ही श्राद्ध नियमों का विशेष पालन करना चाहिए। परंतु नित्य कर्म तथा देवताओं की नित्य पूजा जो पहले से होती आ रही है, उसको बंद नहीं करना चाहिए।

श्राद्ध के वैज्ञानिक पहलू

जन्म एवं मृत्यु का रहस्य अत्यंत गूढ़ है। वेदों में, दर्शन शास्त्रों में, उपनिषदों एवं पुराणों आदि में हमारे ऋषियों-मनीषियों ने इस विषय पर विस्तृत विचार किया है। श्रीमद्भागवत में भी स्पष्ट रूप से बताया गया है कि जन्म लेने वाले की मृत्यु और मृत्यु को प्राप्त होने वाले का जन्म निश्चित है। यह प्रकृति का नियम है। शरीर नष्ट होता है, मगर आत्मा कभी भी नष्ट नहीं होती है। वह पुन: जन्म लेती है और बार-बार जन्म लेती है। इस पुन: जन्म के आधार पर ही कर्मकांड में श्राद्धादि कर्म का विधान निर्मित किया गया है। अपने पूर्वजों के निमित्त दी गई वस्तुएं सचमुच उन्हें प्राप्त होती हैं या नहीं, इस विषय में अधिकांश लोगों को संदेह है। हमारे पूर्वज अपने कर्मानुसार किस योनि में उत्पन्न हुए हैं, जब हमें इतना ही नहीं मालूम तो फिर उनके लिए दिए गए पदार्थ उन तक कैसे पहुंच सकते हैं? क्या एक ब्राह्मण को भोजन कराने से हमारे पूर्वजों का पेट भर सकता है? न जाने इस तरह के कितने ही सवाल लोगों के मन में उठते होंगे। वैसे इन प्रश्नों का सीधे-सीधे उत्तर देना संभव भी नहीं है, क्योंकि वैज्ञानिक मापदंडों को इस सृष्टि की प्रत्येक विषयवस्तु पर लागू नहीं किया जा सकता। दुनिया में ऐसी कई बातें हैं, जिनका कोई प्रमाण न मिलते हुए भी उन पर विश्वास करना पड़ता है।


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