जाति व्यवस्था के अंदर व बाहर का समाज

यही कारण है कि इस्लाम पंथ, ईसाई पंथ या यहूदी पंथ के पैरोकार भारत के समाज का अध्ययन भी इसी मनोविज्ञान के सहारे करते हैं। इसलिए भारतीय/हिंदू समाज को लेकर निकाले गए उनके निष्कर्ष अधूरे, एकांगी और भ्रामक हैं…

भारत में वर्ण संकल्पना एवं जाति आधारित समाज व्यवस्था बहुत पुरानी है। वर्ण संकल्पना का उल्लेख तो इतिहास के वैदिक काल से ही मिलना शुरू हो जाता है। उसी को ब्रिटिश शासन काल में जाति कहा जाने लगा। लेकिन क्या यह व्यवस्था पूरे भारतीय या हिन्दू समाज को अपनी लपेट में ले सकी? कोई व्यवस्था किसी प्रकार की भी हो, किसी समाज का ताना बाना कितना भी शक्तिशाली क्यों न हो, लेकिन किसी भी व्यवस्था को पूरे समाज में लागू करना हिन्दुस्तान जैसे विशाल देश में सम्भव नहीं है। दूसरे हिन्दू/भारतीय समाज के सामाजिक विधि विधान, रीति रिवाज, पूजा पद्धति, खानपान सारे देश में एक जैसे नहीं हैं। ऐसा हो भी नहीं सकता। यह हिन्दू/भारतीय समाज की भीतरी शक्ति का प्रतीक है। यही कारण है कि जाति व्यवस्था इतिहास के किसी भी कालखंड में पूरे हिन्दू समाज को आच्छादित नहीं कर सकी। उत्तरी व पूर्वी भारत में ही गुज्जर, गोंड, सन्थाल इत्यादि समुदाय जाति व्यवस्था के बाहर हैं। मणिपुर में कूकी, नागा समुदाय जाति व्यवस्था के घेरे में नहीं आते। मेघालय के गारो, खासी व जयन्तिया समुदाय ने अपनी सामाजिक संरचना जाति के आधार पर नहीं बनाई। अरुणाचल में आदी, मिशमी, शेरदुकपेन इत्यादि अनेक समुदाय जाति व्यवस्था से बाहर हैं। सिक्किम के लेप्चा, भुटिया, त्रिपुरा के जमातिया समुदाय की सामाजिक संरचना जाति आधारित नहीं है। इसलिए यह कहना कि पूरे हिन्दू समाज की सामाजिक संरचना जाति पर आधारित है, ठीक नहीं होगा। लेकिन आज के समाजशास्त्री अपना पहला पाठ ही यहां से शुरू करते हैं कि भारतीय/हिन्दू समाज की सामाजिक व्यवस्था जाति पर आधारित है। डा. भीमराव अंबेडकर भी जब हिन्दुओं की चर्चा करते हैं तो वे हिन्दू समाज के उसी हिस्से की चर्चा करते हैं जिसकी सामाजिक संरचना जाति व्यवस्था पर आधारित है। उस सामाजिक जाति व्यवस्था में वे अस्पृश्य समाज के साथ किए जा रहे दुव्र्यवहार पर चिन्ता प्रकट करते हैं। वे जानते हैं कि भारतीय/हिन्दू समाज का बहुत बड़ा भाग इस जाति व्यवस्था को ही स्वीकार नहीं करता। हिन्दू समाज की सामाजिक संरचना जाति व्यवस्था पर आधारित नहीं है, बल्कि हिन्दू समाज के एक हिस्से की सामाजिक संरचना जाति व्यवस्था पर आधारित है। यह प्रश्न समाज शास्त्र के लिहाज से बहुत महत्वपूर्ण है।

इस अध्ययन में भारतीय और हिन्दू शब्द को समानार्थक माना गया है। इसलिए जरूरी है कि सबसे पहले हिन्दू शब्द की अवधारणा को स्पष्ट कर लिया जाए। जब हिन्दू शब्द का प्रयोग किया जाता है तो उससे क्या अभिप्राय है? क्या यह मजहब सूचक है, राज्य सूचक है या राष्ट्रीयता सूचक है? वर्तमान में हिन्दू को इस्लाम मजहब और ईसाई मजहब के समकक्ष माना जाता है। यानी जिस प्रकार इस्लाम और ईसाई मजहब हैं, उसी प्रकार एक मजहब हिन्दू है। अंग्रेजी भाषा का प्रयोग करने वाले मजहब का अनुवाद रिलीजन करते हैं। लेकिन क्या सचमुच हिन्दू भी एक मजहब है? इसके लिए सबसे पहले मजहब को समझ लिया जाए। मजहब में तीन तत्व ऐसे हैं, जिनके बिना किसी भी मजहब की कल्पना नहीं की जा सकती। पहली शर्त है उसका कोई संस्थापक हो। इस्लाम पंथ के संस्थापक हजरत मोहम्मद थे। इसी प्रकार ईसाई पंथ के संस्थापक ईसा थे। यदि मजहबों की इस सूची में यहूदी पंथ को भी शामिल कर लिया जाए तो इन सभी पंथों के पितामह अब्राहम थे। यही कारण है कि इन तीनों को संयुक्त रूप से अब्राहम रिलीजन भी कहा जाता है। मजहब या रिलीजन की दूसरी शर्त है कि उसकी कोई पवित्र किताब हो जिस पर सभी आस्था रखते हों और उसे अंतिम ग्रन्थ मानते हों, यानी इस ग्रन्थ में जो लिखा गया है वही अंतिम सत्य है, यह अटल है। यहूदी मजहब के उपासकों की पवित्र किताब ओल्ड टैस्टामैंट है, ईसाई मत के उपासकों की पवित्र किताब बाईबल या न्यू टैस्टामैंट है। वैसे वे ओल्ड टैस्टामैंट को भी मान्यता देते हैं। इस्लाम रिलीजन के उपासकों की पवित्र किताब कुरान-ए-पाक है। यही कारण है कि इन तीनों मजहबों को पीपुल्स ऑफ दि बुक भी कहा जाता है। तीसरा तत्व है कि मजहब के सभी लोग ईश्वर, जिसे अंग्रेजी भाषा के लोग गॉड कहते हैं, के अस्तित्व को स्वीकार करें। ईश्वर कैसा है, अपनी व्यवस्था कैसे चलाता है, इसको लेकर मजहबों में मतभेद हो सकता है। लेकिन ईश्वर के अस्तित्व से मुनकिर नहीं हुआ जा सकता। किसी भी मजहब में ईश्वर तक पहुंचने का, उसकी पूजा-पाठ का एक ही मान्य तरीका होता है। इस्लाम मजहब का अपना तरीका है। ईसाई मजहब को अपना तरीका है । वहां तो भक्त और गॉड सीधा सम्वाद ही नहीं कर सकते। यह पोप के माध्यम से ही हो सकता है। इस्लाम मजहब में भी यही व्यवस्था है। मंसूर को इसी का उल्लंघन करने के कारण सूली पर लटकना पड़ा था। लेकिन भारतीय/हिन्दू समाज के जो लोग ईश्वर में विश्वास भी करते हैं, उनके पास ईश्वर से साक्षात्कार के अपने अपने हजारों तरीके हैं। ईश्वर के नाम भी हजारों हैं। गारो का अपना नाम है, खासी का अपना नाम है। मिजो का अपना नाम है। ईश्वर के स्वरूप को लेकर तो और भी घमासान है। साकार और निराकार तो है ही, कुछ के लिए तो वह घट घट में व्याप्त’ है। इसका अर्थ तो यह है कि हिन्दू अपने आप में कोई मजहब नहीं है, बल्कि मजहब की उपरोक्त परिभाषा के अनुसार तो हिन्दू/भारतीय समाज में हजारों मजहब हैं। ख़ूबसूरती तो यह है कि सामान्य हिन्दू/भारतीय एक साथ सभी मजहबों को स्वीकार कर लेता है। यह ख़ूबी दुनिया में केवल भारतीय/हिन्दू समाज में ही है। एक जर्मन, ईसाई भी हो सकता है, इस्लाम पंथ या शिया पंथ को मानने वाला भी हो सकता है, हरे राम हरे कृष्ण आन्दोलन का वैष्णव भी हो सकता है। इसी प्रकार भारतीय/हिन्दू का भी कोई मजहब हो सकता है। उसका मजहब वैष्णव हो सकता है, शैव हो सकता है, शाक्त हो सकता है। वह जैन पंथ को मानने वाला हो सकता है, बुद्ध का उपासक हो सकता है, नानक पंथी हो सकता है, मुसलमान या ईसाई भी हो सकता है। लेकिन मामला यहीं समाप्त नहीं होता। हिन्दू/भारतीय एक साथ ही वैष्णव, शैव, शाक्त हो सकता है। यानी मजहब के मामले में भारतीय एक प्रकार से सर्व समावेशी स्वभाव के हैं।

वह एक साथ पीर की मजार पर सिजदा करने के बाद काली माता के मंदिर में मत्था टेक कर सीधा गुरुद्वारे पहुंच सकता है। उसे इसमें कुछ भी अस्वाभाविक नहीं लगता। लेकिन अब्राहम मजहबों के उपासक इसे देख दांतों तले ऊंगली दबाते हैं। कई बार यूरोप के समाजशास्त्री भारत या हिन्दू समाज को समझने में गलती कर जाते हैं। उसका कारण है कि भारतीय या हिन्दू एक साथ ही वैष्णव भी हो सकता है और शैव भी। इतना ही नहीं, वैष्णव, शैव के साथ ही नानक का उपासक भी हो सकता है। नानक के साथ वह बुद्ध का भी उपासक हो सकता है। इससे भी आगे जाकर वह मंदिर, गुरुद्वारा जाने के साथ ही किसी पीर की मजार पर भी एक साथ ही सिजदा कर सकता है। भारतीय मनोविज्ञान सर्वसमावेशी है। लेकिन दुनिया में और कहीं भी मजहब के मामले में ऐसी स्थिति नहीं है। जो ईसाई पंथ का पैरोकार है, वह किसी पीर की मजार पर सिजदा नहीं कर सकता और न ही किसी मंदिर या गुरुद्वारे में जाकर उपासना कर सकता है। इसी प्रकार जो इस्लाम पंथ का पैरोकार है, वह चर्च में नहीं जा सकता। यहूदी का तो मस्जिद में जाने का सवाल ही नहीं उठता। इस प्रकार दुनिया के अन्य मजहब ऑल एक्सक्लूसिव हैं। लेकिन भारतीय या हिन्दू मजहब के मामले में ऑल इनक्लूसिव है। वह एक साथ अनेकों मजहबों को अपने भीतर समेटे है। यही कारण है कि इस्लाम पंथ, ईसाई पंथ या यहूदी पंथ के पैरोकार भारत के समाज का अध्ययन भी इसी मनोविज्ञान के सहारे करते हैं। इसलिए भारतीय/हिन्दू समाज को लेकर निकाले गए उनके निष्कर्ष अधूरे, एकांगी और भ्रामक हैं।

कुलदीप चंद अग्निहोत्री

वरिष्ठ स्तंभकार

ईमेल:kuldeepagnihotri@gmail.com


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