छोटी फिल्मों के बड़े सरोकार

By: Oct 5th, 2023 12:05 am

नस्ल, जाति, आर्थिक, धार्मिक और राजनीतिक ज्वलंत मुद्दें हैं जिन्हें फिल्मकार अपनी थीम बना रहे हैं। समाज के उजले विषयों पर कम फिल्में हैं…

हाल ही में शिमला में सम्पन्न अन्तरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में स्क्रीन की गयीं अधिकांश फिल्में विषय विविधता, कहानी कहने की अनूठी कला, मानवीय रिश्तों में संवेदनहीनता की पराकाष्ठा, जेंडर समस्या व खुद के लिये जीने लायक स्पेस अर्जित करने की छटपटाहट के लिये याद की जाएंगी। कला, साहित्य व फिल्मों की सृजनात्मक विधाएं भौगोलिक सीमाओं को तोडक़र हर देश में लोगों को प्यार, मोहब्बत व संवेदना के स्तर पर ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की तरह जोड़ती हैं। फिल्म में अगर संवाद न भी हो तो उसकी ‘विज़ुअल लैंग्वेज’ यानी दृश्य भाषा स्वत: ही फिल्म की कहानी को बयान कर देती है। शिमला फिल्मोत्सव का यह नौवां संस्करण था। करीब एक दशक की यात्रा में शिमला के गेयटी थियेटर में हर साल उमडऩे वाले सिने प्रेमियों के सैलाब से स्पष्ट है कि दर्शकों के अन्तर्मन को झिंझोडऩे वाली फिल्में हर दौर में अपनी सार्थकता साबित कर ही लेती हैं। पुष्पराज व देवकथा के सांझे प्रयासों से इस बार दुनिया भर से 106 फिल्मों का चयन हुआ जिनमें से 38 फिल्में 20 देशों से पहुंची तो भारत के 24 राज्यों में से 63 फिल्मों के अलावा हिमाचल श्रेणी में 5 फिल्मों ने अपनी-अपनी उपस्थिति दर्ज की। यह सही है कि शिमला का आकर्षण देश-विदेश के फिल्मकारों को अपनी नैसर्गिक छटा के बल पर खींचता है। सन् 1889 में निर्मित गेयटी थियेटर में करीब 15 साल पहले सिनेमा स्क्रीनिंग के लिये एक प्रोफैशनल प्रेक्षागृह का निर्माण हुआ तो फिल्म रसिकों ने इसका भरपूर उपयोग किया। ऐसे समारोहों के आयोजन में प्रदेश सरकार के भाषा विभाग का सहयोग काबिले तारीफ है। इस फैस्टिवल को जिस बड़े पैमाने पर अनेक संस्थाएं ‘स्पान्सर’ कर रही हैं, उससे पता चलता है कि चन्द सालों में ही यह फिल्मोत्सव अनेक ‘माइल स्टोन’ हासिल करने में कामयाब रहा है।

इस साल फिल्मोत्सव का एक और आकर्षक व शानदार पहलू था नाहन, कण्डा जेलों में कैदियों के लिये फिल्मों का प्रदर्शन। शिमला के करीब ढली में ‘विशेष बच्चों’ के लिये भी फिल्मों की स्क्रीनिंग हुई। सिनेमा जैसे सशक्त माध्यम को ‘माल रोड कल्चर’ से बाहर निकालकर दीगर संस्थानों में ले जाना वास्तव में सामाजिक सरोकारों के प्रति प्रतिबद्ध होने का परिचायक है। जिन देशों की फिल्मों का फिल्म फैस्टिवल में चयन हुआ उनमें अमेरिका, बेलजियम, इरान, कैनेडा, चीन, चेक रिपब्लिक, तुर्की, नेपाल, मिश्र, बांग्लादेश, इटली, पोलैण्ड, अर्जेन्टीना, स्वीडन, अफगानिस्तान, आस्ट्रेलिया, फ्रांस और दुबई शामिल हैं। लेकिन पुरस्कारों की बात करें तो फारसी ज़बान में निर्मित इरान की फिल्मों की धूम रही। ‘नरेगेसी’ और ‘फार द सेक आफ आवा’ और अफगानिस्तान की ‘रोया’, ‘बांग्लादेश की नारी’, ‘चेक रिपब्लिक की’ ‘सेवन थाऊसेन्ड सोलस’, को अन्तरराष्ट्रीय श्रेणी में पुरस्कृत किया गया। गुवाहटी की फिल्म मेकर रूपम ज्योति मालांकर की फिल्म ‘एकाकी’ ने भी दर्शकों को ध्यान खींचा। ‘नरेगेसी’ में एक ऐसे व्यक्ति के संघर्ष को उकेरा गया है जो मानसिक रूप से अस्वस्थ है, मगर वो प्यार की तलाश में है ताकि शादी रचाकर ‘खुशियां’ बटोर सके। लेकिन स्वार्थी दुनिया में उसके जैसे लोगों के लिये कोई जगह नहीं है। लेकिन एक उपहार उसके जीवन को बदल देता है। ‘फॉर द सेक ऑफ आवा’ एक ऐसी लडक़ी ‘आवा’ की कहानी को बयां करती है जो दूसरे देश में एक समारोह में अपनी प्रस्तुति देने के लिये जाना चाहती है, लेकिन उसके पास न तो जन्म प्रमाण पत्र है, न ही पासपोर्ट। कारण, उसकी माता इरान से है और पिता अफगानी। ‘रोया’ अफगानी फिल्म है जो अपने विषय से दर्शकों को स्तब्ध कर देती है। इसे उद्घाटन सत्र में मुख्यमंत्री को भी दिखाया गया। इस फिल्म ने दर्शकों को बांधे रखा। फिल्म में एक अफगान और उसकी पत्नी एक दल के साथ अफगानिस्तान की सीमा पार कर यूरोप में $गैर कानूनी ढंग से दाखिल होने के लिये भय, आतंक के माहौल में मीलों का सफर पैदल तय करते हैं। बियावान और मरूस्थल में। उसकी गर्भवती पत्नी प्रसव पीड़ा के कारण रोने चिल्लाने लगती है। लेकिन मानव तस्करी का सरगना उसे व उसके पति को खामोश रहने के वास्ते उन्हें बेरहमी से पीट तक देता है। औरत बच्चे को जन्म देने के बाद मर जाती है। फिल्म के अन्त में आदमी के हाथ में नवजात है और पत्नी की लाश एक पत्थर की शिला पर। तस्कर उसे छोड़ जाते हैं। वह तय नहीं कर पाता कि उसे क्या करना चाहिए? इस फिल्म का नैरेटिव इस कदर दर्दनाक व मर्मान्तक है कि दर्शक चाहकर इस फिल्म की खौफज़दा कहानी से उबर नहीं पाते।

बांग्लादेश की फिल्म ‘नारी’ भी एक पुरस्कृत फिल्म है। फिल्म में एक साथ पांच स्त्री किरदारों की यातना को चित्रित करने का प्रयास किया गया है। औरत की व्यथा को लैंस के माध्यम से सशक्त भावों से पकडऩे का प्रयास किया गया है। यह नारी की स्वतन्त्रता और अधिकारों की दु:खभरी कहानी है। इस फिल्म में एसिड अटैक, भ्रूणहत्या, गैंगरेप, बाल विवाह और बौनी औरत की कहानियां हंै। यानी औरतों पर जुल्मों-सितम के विमर्श को केन्द्र में लाती है यह फिल्म। राष्ट्रीय श्रेणी में असमिया शार्ट फिल्म ‘एकाकी’ को पुरस्कार मिला। फिल्म में 75 वर्षीय विभा नाम की औरत है जो अकेलेपन का दंश झेलने को अभिशप्त है। यह दुनियाभर में अकेले रह रहे बुजुर्गों की गाथा को बयान करती है। समारोह में अनेक ऐसी फिल्में भी दिखाई गयीं जो पुरस्कार प्राप्त भले ही न कर सकी हों लेकिन लीक से हटकर विषयों व उनकी शानदार ट्रीटमेन्ट के लिये यादगार बन गयी हैं। इनमें व्हाइट रोज़ज, सास, चार धाम, अनकही, उस पार, होड़, लाड़ी सूरमा, जुआरे उल्लेखनीय फिल्में हैं। ज्य़ादातर फिल्मों को देखकर यही लगता है कि दुनिया का हर समाज और देश अंधेरे में जी रहा है। एक ऐसा घनीभूत अंधेरा जिसने मानवता को अपने क्रूर पंजों की गिरफ्त में ले रखा है। नस्ल, जाति, आर्थिक, धार्मिक और राजनीतिक ज्वलन्त मुद्दें हैं जिन्हें फिल्मकार अपनी थीम बना रहे हैं। समाज के उजले, सुन्दर व सकारात्मक ऊर्जा भर देने वाले विषयों पर कम ही फिल्मकारों की निगाह टिकती है। यानी मुद्दे आधारित फिल्मों का निर्माण। विविध विषयों के बल पर ये फिल्में दर्शकों के दिलों में अमिट छाप अंकित करने में सफल रही हैं। बहरहाल हिमाचल के लिए फिल्म नीति फाइलों में दफन है। सुक्खू सरकार को फिल्म नीति बनाने पर विचार करना चाहिए।

राजेंद्र राजन

साहित्यकार


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