द्विराष्ट्र की कोख से निकला द्वंद्व

By: Oct 11th, 2023 12:05 am

यह तो सत्य है कि हिंदुत्व की आक्रामक राजनीति ने ही पुन: खालिस्तान की मांग को हवा दी है। हिंदुत्व की राजनीति से देश के कई समुदाय अपने को असहज महसूस करते हैं। उनमें सिक्ख समुदाय भी शामिल है। भले ही आरएसएस माने कि सिक्ख धर्म, हिंदू धर्म का ही हिस्सा है। हिंदुत्व की राजनीति से पहले गुजरात में व धीरे-धीरे पूरे देश में दिमागी तौर पर हिंदू-मुस्लिम विभाजन हो ही चुका है, मणिपुर में हिंदू-मैतेई-ईसाई-कुकी अलग हो चुके हैं, उसी तरह सिक्ख भी नाराज हैं। किसान आंदोलन, जिसमें सिक्ख किसानों की बड़ी भागीदारी थी, को भी खालिस्तानी, आतंकवादी आदि कहकर सरकार ने बदनाम करने की कोशिश की थी। बहरहाल, भारत-पाक जिस विभाजन का दंश आज तक झेल रहे हैं, वही दंश अरब और यहूदी झेल रहे हैं…

कनाडा और भारत के बीच जारी कूटनीतिक तनातनी के अनेक निहितार्थ हैं, लेकिन इस बीच दोनों देशों में क्या हो रहा है? कैसे दोस्ती दुश्मनी में तब्दील होती जा रही है? और भारत-कनाडा के बीच की ताजा उठापटक की वजह क्या है? इस आलेख में इसी विषय की पड़ताल करने की कोशिश करेंगे। इधर भारत और कनाडा में विवाद बढ़ गया है। कनाडा का आरोप है कि भारत सरकार के एजेण्टों ने कनाडा के ब्रिटिश कोलम्बिया राज्य में भारत सरकार द्वारा प्रतिबंधित खालिस्तान टास्क फोर्स के कनाडाई नागरिक हरदीप सिंह निज्जर की हत्या करवा दी। जाहिर है, भारत सरकार ने इसका खण्डन किया है। जी-20 के नई दिल्ली आयोजन, जिसमें पैसा पानी की तरह बहाया गया, जिसके माध्यम से नरेन्द्र मोदी अपनी छवि एक प्रभावशाली वैश्विक नेता के रूप में स्थापित करना चाह रहे थे, के दौरान ही कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो और शायद अमरीका के राष्ट्रपति जो बाइडेन ने मोदी से इस बाबत बातचीत की थी। इसीलिए शायद जस्टिन ट्रूडो को, अपना हवाई जहाज खराब होने के कारण दो दिन अतिरिक्त दिल्ली में रहना पड़ा।

इससे पहले जब जस्टिन ट्रूडो भारत आए थे तो नरेन्द्र मोदी ने उनको मिलने का समय नहीं दिया था। जस्टिन ट्रूडो का जो अपमान भारत में हुआ उससे जाहिर है कि उनका रवैया भारत के प्रति कोई सहानुभूतिपूर्ण नहीं होने वाला था, लेकिन कनाडा के भारत पर आरोप लगाते ही अमरीका, जो नरेन्द्र मोदी की पिछली अमरीका यात्रा और जो बाइडेन की हाल की भारत यात्रा में लग रहा था कि भारत के साथ नजदीकी संबंध बनाने का इच्छुक है और नरेन्द्र मोदी इस बात का श्रेय ले रहे थे कि अमरीका के साथ उन्होंने कई समझौते कर लिए हैं जिससे दोनों देशों को फायदा होने वाला है, अचानक भारत के प्रति अपना मित्रता का रवैया छोड़ कनाडा के पक्ष में खड़ा हो गया है और भारत से कह रहा है कि वह कनाडा की जांच प्रक्रिया में सहयोग करे। ऐसा भी प्रतीत हो रहा है कि अमरीका ने ही भारत सरकार के एजेण्टों की निज्जर की हत्या में संलिप्तता की जानकारी कनाडा को उपलब्ध कराई है। दुनिया के पांच श्वेत अंग्रेजी बोलने वाले मुल्क अमरीका, कनाडा, इंग्लैण्ड, ऑस्ट्रेलिया व न्यूजीलैण्ड एक पहले से चले आ रहे समझौते के तहत खुफिया जानकारी आपस में साझा करते हैं।

ये विकसित देश अपने मुल्क में कानून का राज कायम रखने को अपने लोकतंत्र की कामयाबी का एक पैमाना मानते हैं। यदि भारत समझता है कि जिस तरह कानून और व्यवस्था की धज्जियां उड़ाते हुए भारत में मुठभेड़ में, या भीड़ तंत्र द्वारा या दिन-दहाड़े हिन्दुत्व कार्यकर्ताओं द्वारा या विकास दुबे या अतीक अहमद जैसे लोग मार दिए जाते हैं और किसी की जवाबदेही तय नहीं होती, ऐसा ही अमरीका या कनाडा में भी हो सकता है तो वह मुगालते में है। भारत सरकार कनाडा की सरकार पर यह आरोप लगाती रही है कि कनाडा भारत के खिलाफ खालिस्तानी समर्थकों को संरक्षण देता है। सिर्फ कनाडा ही नहीं अमरीका, इंग्लैण्ड में भी खालिस्तानी समर्थकों का भारतीय दूतावास के बाहर प्रदर्शन करना आम बात है। यह सब तो काफी दिनों से होता चला आ रहा है। अमरीका, इंग्लैण्ड, कनाडा में माना जाता है कि नागरिकों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार है और जब तक वे हिंसा का मार्ग नहीं अपनाते तब तक उनके खिलाफ कार्यवाही का कोई आधार नहीं बनता। भारत मानता है कि खालिस्तानी समर्थकों की गतिविधियां उसकी अखण्डता के खिलाफ साजिश हैं और अमरीका, इंग्लैण्ड, कनाडा को लगता है कि अब जो उनके नागरिक बन गए हैं उन्हें अपनी राय व्यक्त करने का अधिकार है। यही विवाद की जड़ है। खालिस्तानी समर्थक तो काफी समय से सक्रिय हैं। अभी यह मुद्दा क्यों उठा हैघ्? असल में पहले की भारत सरकारों ने पंजाब में चल रहे खालिस्तानी आंदोलन से निपटने के बाद यह माना कि विदेशों में यदि कोई खालिस्तानी समर्थक कुछ करते हैं तो वह कोई चिंता की बात नहीं, क्योंकि उनको कोई जमीनी समर्थन नहीं मिल रहा है, लेकिन नरेन्द्र मोदी सरकार ने इसे मुद्दा बनाया। मामला बिगड़ यहां से गया जब अमृतपाल सिंह ने दुबई से आकर अपने संगठन ‘वारिस पंजाब दे’ के माध्यम ने यह सवाल खड़ा किया कि यदि हिंदू धर्म के आधार पर हिंदू राष्ट्र बनाना जायज राजनीतिक उद्देश्य है तो सिक्ख धर्म के आधार पर खालिस्तान क्यों नहीं? ऐसा लगने लगा कि इस मांग को लेकर वह जरनैल सिंह भिण्डरावाले की तरह पंजाब में पुन: खालिस्तान के समर्थन में एक आंदोलन खड़ा कर देगा। मोदी सरकार ने उसे गिरफ्तार कर असम की डिब्रूगढ़ जेल में रखा हुआ है।

यह तो सत्य है कि हिंदुत्व की आक्रामक राजनीति ने ही पुन: खालिस्तान की मांग को हवा दी है। हिंदुत्व की राजनीति से देश के कई समुदाय अपने को असहज महसूस करते हैं। उनमें सिक्ख समुदाय भी शामिल है। भले ही आरएसएस माने कि सिक्ख धर्म, हिंदू धर्म का ही हिस्सा है। हिंदुत्व की राजनीति से पहले गुजरात में व धीरे-धीरे पूरे देश में दिमागी तौर पर हिंदू-मुस्लिम विभाजन हो ही चुका है, मणिपुर में हिंदू-मैतेई-ईसाई-कुकी अलग हो चुके हैं, उसी तरह सिक्ख भी नाराज हैं। किसान आंदोलन, जिसमें सिक्ख किसानों की बड़ी भागीदारी थी, को भी खालिस्तानी, आतंकवादी आदि कहकर सरकार ने बदनाम करने की कोशिश की थी। खालिस्तान के संबंध में एक रोचक प्रस्ताव यह आया है कि यदि कनाडा में दो प्रतिशत सिक्ख आबादी एक अलग मुल्क चाहती है तो कनाडा में ही, जहां भूमि पर जनसंख्या का इतना दबाव नहीं जितना भारत में है और जैसे फ्रेंच बोलने वाले क्यूबेक के लोग एक अलग मुल्क या कनाडा के अंदर ही स्वायत्तता की मांग करते हैं, एक पृथक खालिस्तान या स्वायत्तता की मांग क्यों नहीं करती? यह कोई अव्यावहारिक सुझाव नहीं है।

जब यहूदी धर्मावलम्बियों के लिए इजराइल बनाने का प्रस्ताव आया था तब भी इस विकल्प पर विचार हो रहा था कि जेरूसलम के इलाके को छोडक़र दुनिया में कहीं अन्यत्र इजराइल की स्थापना हो, ताकि फिलीस्तीन में पहले से रह रहे अरब नगरिकों के साथ यहूदियों का टकराव न हो। खैर, जिस तरह अंग्रेजों ने भारत के विभाजन की अदूरदर्शिता दिखाई उसी तरह जेरूसलम के इलाके में भी द्विराष्ट्र बनाने की ‘बॉलफोर घोषणा’ कर दी। भारत और पाकिस्तान जिस विभाजन का दंश आज तक झेल रहे हैं, वही दंश अरब और यहूदी झेल रहे हैं।

संदीप पांडेय

स्वतंत्र लेखक


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