शव संवाद-15

By: Oct 23rd, 2023 12:05 am

देश आज जिस स्थिति में है, वहां बुद्धिजीवी बनकर जी पाना हैरान करता है। दरअसल देश सोचने पर विवश है कि आखिर न चाहते हुए भी कोई बुद्धिजीवी बन कैसे सकता है। इसी विषय को लेकर राष्ट्रीय संगोष्ठी में ‘बुद्धिजीवी की अप्रासंगिकता’ पर विमर्श होना था। कई विश्वविद्यालय माथापच्ची के लिए तैयार थे। वे विश्वस्त थे कि किसी सिरफिरे अनुसंधान या नकली शोध की तरह इस विषय को निपटा दिया जाएगा। राष्ट्रीय संगोष्ठी के लिए मुख्यातिथि का चयन इस लिहाज से हो रहा था कि कहीं कोई बुद्धिजीवी ही चुन न लिया जाए। इसलिए तलाश थी किसी ऐसे वीआईपी की, जो बुद्धिजीवी न हो। यूं भी जहां समारोहों में वीआईपी मुख्यातिथि भी हो, वहां देश की बुद्धि घास चरने निकल जाती है। देश की संस्कृति में वीआईपी होना अब साबित कर चुका है कि बुद्धिजीवी तड़प-तड़प कर ही मरेंगे। वैसे जब तक बुद्धिजीवी चलते थे, वे खुद में ही एक-दूसरे का रास्ता काटकर काम तमाम कर लेते थे। खैर संगोष्ठी का वातावरण बनाने के लिए एक वीआईपी खोजा गया, जो मुख्यातिथि के रूप में विषय से कहीं अधिक ‘प्रासंगिक’ था। संगोष्ठी का शुभारंभ ‘विषय और बहस’ को बहुत पीछे छोड़ चुका था। दरअसल देश में तमाम विषयों पर बहस की गंभीरता का अनुमान हम मुख्यातिथियों के चेहरों पर पढ़ सकते हैं। तमाम राजनेता वर्षों से मुख्यातिथि बनकर राष्ट्र के विषयों को अप्रासंगिक ही तो बना रहे हैं।

राष्ट्रीय संगोष्ठी में यह तय था कि बुद्धिजीवी को अप्रासंगिक घोषित करना है। वहां एक तरह से सभी लोग यह सुनने के लिए आतुर थे कि आइंदा ‘बुद्धिजीवी’ को अमान्य करार दिया जाए। संगोष्ठी में ठहाके गूंज रहे थे, अतीत गूंज रहा था, पौराणिक कथाएं और आदिकाल के मानव की जटिलताएं बता रही थीं, कि भविष्य के लिए कैसी-कैसी परंपराएं खोजें। वहां न तर्क था और न ही दलील। मुख्यातिथि से श्रोता तक और वक्ताओं से विचार-विनिमय तक सभी एक आंख से देखकर, एक कान से सुनकर सहमत थे कि जिसने विषय ढूंढा, उसने निष्कर्ष का अमृत भी पिला दिया। वहां संगोष्ठी स्थल पर मौजूद ज्ञानियों ने खुद को बुद्धिजीवी मानने से इनकार कर दिया ताकि वीआईपी महोदय को बुरा न लगे, लेकिन इस हुजूम में अंतिम बुद्धिजीवी को यह अस्वीकार्य था। अप्रासंगिक माहौल में बुद्धिजीवी का प्रासंगिक साबित होना, दरअसल राष्ट्र का कर्ज मुक्त होने जैसा है। संगोष्ठी में फिर बुद्धिजीवी अकेला पड़ गया। घोर उपहास के बीच भी उसने अपने चरित्र को पकड़े रखा, जबकि दूसरी ओर मुख्य अतिथि ढीले हो रहे थे। आयोजन के रखरखाव में उन्होंने अपनी जेब से पैसे भरे थे। आयोजकों से घिरे मुख्यातिथि अगली बहस के निमंत्रण के लिए गर्दन हिला ही रहे थे कि उनके हलक में हड्डी अटक गई।

इस बार वह हड्डी के आगे शहीद हो गए। बुद्धिजीवी ने फिर देखा कि वीआईपी से मुख्यातिथि बने उस व्यक्ति के पास अब गले में एक हड्डी थी, लेकिन न सबूत और न ही साक्ष्य। पुलिस ने मामले की गंभीरता और वक्त की नजाकत में बुद्धिजीवी को भी उठा लिया। जिस मुख्यातिथि ने बुद्धिजीवी की उपस्थिति को अमान्य घोषित कर दिया था, उसी के कारण उसकी लाश और मौत प्रमाणित हो रही थी। मौत के बाद मुख्यातिथि एक साधारण लाश बन चुका था। उसी दिन शहर में आई बाढ़ से कई मरे थे। रूटीन से ज्यादा भीड़ में शमशानघाट में सामूहिक चिताएं जल रही थीं। अंतत: बुद्धिजीवी ने मुख्यातिथि के शव को सामूहिक चिता के हवाले कर दिया। मुख्यातिथि के शव से उसे एक पत्र मिला था जिसके अनुसार वह सत्ता के संपर्क से तिहाड़ जेल से छूटा था और आगामी लोकसभा चुनाव के लिए पार्टी का उम्मीदवार था। शमशानघाट में शव से कुछ निमंत्रण पत्र भी गिर गए थे जिनके अनुसार उसे आने वाले हफ्ते के हर दिन कहीं न कहीं मुख्यातिथि के रूप में शिरकत करनी थी।

निर्मल असो

स्वतंत्र लेखक


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App