धन की कल्पना

By: Oct 7th, 2023 12:14 am

श्रीश्री रवि शंकर

यदि देखा जाए कि आखिर क्यों धन के साथ लोग घमंडी हो जाते हैं, तो हम पाएंगे कि ऐसा इसलिए होता है क्योंकि धन स्वतंत्रता की भावना जाग्रत करता है। दूसरी तरफ निर्भरता की जानकारी व्यक्ति को विनम्र बनाती है। स्वतंत्रता की झूठी भावना द्वारा मानवता के आधारभूत गुण को दूर कर दिया गया है…

धन हर किसी को आजादी और स्वामित्व की समझ देता है। हमें विश्वास है कि धन के साथ हम अपने लिए सब कुछ प्राप्त कर सकते हैं और किसी की सेवाओं का मूल्य लगा सकते हैं। किसी भी चीज के स्वामित्व का अर्थ उसके अस्तित्व पर पूर्ण नियंत्रण से लिया जाता है। जब हम जमीन का एक टुकड़ा खरीदते हैं तब हम सोचते हैं कि हम उसके मालिक है, यद्यपि जमीन का अस्तित्व लगातार मालिक के न रहने के बाद भी रहेगा। ऐसे में हम उस चीज के मालिक कैसे हो सकते हैं, जो हमारे बाद भी लगातार रहती है। धन हमें यह विचार भी देता है कि हम ताकतवर और स्वतंत्र है। यह विचार हमें इस तथ्य के प्रति अंधा करता है कि हम परस्पर निर्भरता की दुनिया में रहते हैं।

हम किसानों, बावर्चियों, वाहन चालकों और आसपास के कई लोगों की सेवाओं पर निर्भर रहते हैं। यहां तक कि एक कुशल सर्जन भी स्वयं के द्वारा आपरेशन नहीं कर सकती है। वह दूसरों पर निर्भर करती है। क्योंकि हम उनकी सेवाओं के प्रति भुगतान करते हैं, इसलिए हम इस तथ्य को अनदेखा कर देते हैं कि हम उन पर निर्भर हैं। यदि देखा जाए कि आखिर क्यों धन के साथ लोग घमंडी हो जाते हैं, तो हम पाएंगे कि ऐसा इसलिए होता है क्योंकि धन स्वतंत्रता की भावना जाग्रत करता है। दूसरी तरफ निर्भरता की जानकारी व्यक्ति को विनम्र बनाती है। स्वतंत्रता की झूठी भावना द्वारा मानवता के आधारभूत गुण को दूर कर दिया गया है। क्या धन सचमुच में एक व्यक्ति की दौलत को प्रदर्शित कर सकता है? हम इसे मानव से बढक़र मूल्यवान नहीं मान सकते। संपत्ति कोई भी अपनी क्षमता, कुशलता, विरासत या भ्रष्ट तरीकों से प्राप्त कर सकता है। संपत्ति पाने के तरीकों से उनके अपने परिणाम मिलते हैं। भ्रष्टाचार के लिए भी ठीक वही उद्देश्य शांति और प्रसन्नता है। फिर भी शांति और प्रसन्नता तब तक भ्रांतिजनक रहते हैं जब तक साधन भ्रष्ट होते हैं। इस प्रकार धन का स्वामित्व स्वतंत्रता का भ्रम उत्पन्न करता है और धन को कई बार माया के रूप में भी संदर्भित करते हैं।

दूसरी तरफ कुछ लोग धन को ही समाज में व्याप्त तमाम बुराईयों के लिए दोषी मानते हैं। कुछ और दूसरे भी हंै जो इसे शैतान की तरह मानते हैं। जिस प्रकार धन का स्वामित्व अहंकार लाता है उसी तरह नकारना भी किसी को दंभी बना देता है। कुछ लोग जो धन का त्याग कर देते हैं, अपनी गरीबी में भी ध्यान और संवेदना प्रदर्शित करने के गर्व में रहते हैं। हालांकि, प्राचीन ऋषि धन या माया को दैवत्व का अंग मानकर सम्मान करते थे और इसके भ्रम के बंधन से दूर रहते थे।


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