लाहौल के रणबांकुरों का गौरवपूर्ण इतिहास

आजादी के बाद लेह-लद्दाख की सरजमीं पर तिरंगा फहराने का श्रेय लाहौल के ठाकुरों को जाता है। अत: देश की सबसे बड़ी पंचायत में बैठकर एक नज्म के जरिए ठाकुरों पर तनकीद करने वाले सियासतदातों को ठाकुरों के शौर्य से मुखातिब होना होगा…

भारतीय सशस्त्र सेनाओं के विभाजन के बाद पाक सेना में जाने वाले सैन्य अफसरों के लिए छह अगस्त 1947 को नई दिल्ली में एक विदाई पार्टी का आयोजन किया गया था। एडमिरल माऊंटबेटन, फील्ड मार्शल औचिनलेक व ले. ज. करियप्पा जैसे गणमान्य व्यक्ति उस विदाई भोज में शामिल थे। विदाई पार्टी में ले. ज. करियप्पा ने कहा कि ‘हमने इतने वर्ष इक_े सेना में कार्य किया व विश्व युद्ध लड़े। उम्मीद है कि अलग होने के बाद भी ये भावनाएं बनी रहेंगी’। पाक सेना की तरफ से ब्रिगेडियर ए. एम. रजा ने कहा कि हम भारतीय सेना की परंपराओं को बनाए रखेंगे। मैं भारतीयों को विश्वास दिलाता हूं कि जब भी जरूरत होगी, हम सदैव आपके साथ रहेंगे। लेकिन वक्त ने करवट ली और पाकिस्तान ने अपना असल चेहरा दिखा दिया। पाक हुक्मरानों ने विभाजन के तुरंत बाद जम्मू-कश्मीर रियासत पर हमले की रणनीति के लिए पाकिस्तान के गुजरात में ‘आजाद कश्मीर’ नाम से एक सैन्य मुख्यालय स्थापित कर दिया। विभाजन से पूर्व ‘आजाद हिंद फौज’ के सैनिक रहे मे. ज. ‘मो. जमान कियानी’ उसके कमांडर तथा ब्रिगेडियर ‘राजा हबीबु रहमान’ उप कमांडर थे। हबीबु रहमान नेता जी सुभाष चंद्र बोस के सबसे खास सहयोगी थे तथा नेता जी के जीवन के अंतिम क्षणों में ‘ताइपे’ तक भी साथ थे। जम्मू के ‘चिब’ राजपूत खानदान से ताल्लुक रखने वाले हबीबु रहमान ने कश्मीर के पाकिस्तान में विलय के लिए महाराजा हरि सिंह से भी भेंट की थी तथा कश्मीर पर हमले का एक बड़ा मंसूबा तैयार करके ‘भिम्बर’ को फतह करने में एक बड़ा किरदार अदा किया था।

आखिर पाक सेना ने हजारों पश्तून लड़ाकों के साथ मिलकर 22 अक्तूबर 1947 के दिन कश्मीर पर हमला कर दिया था। जम्मू-कश्मीर रियासत की सेना पाक हमले से निपटने में असमर्थ थी। कश्मीर के भारत में विलय के लिए महाराजा हरि सिंह द्वारा ‘इस्ट्रूमेंट ऑफ एक्शेसन’ पर दस्तखत होने के बाद 27 अक्तूबर 1947 को भारतीय सेनाएं कश्मीर में पहुंचने लगी थीं। कश्मीर में कुछ खास लक्ष्य को हासिल करने के लिए पाक सेना ने टाईगर फोर्स, आईबेक्स फोर्स व एस्किमो फोर्स जैसे सैन्य दस्ते तैयार करके उनमें कबायली लड़ाकों के अलावा ज्यादातर उन सैनिकों व अफसरों को शामिल किया था जो जम्मू-कश्मीर रियासत की फौज से गद्दारी करके पाक सेना में जा मिले थे। पाक सिपहसालारों ने लेह-लद्दाख पर कब्जा करने का जिम्मा ‘एस्किमो फोर्स’ को देकर उसकी कमान कै. हसन खान व शाह खान को सौंपी थी। सन् 1948 के शुरू में हजारों की तादाद में पाक सैन्य दस्ता स्कर्दू से कारगिल के रास्ते लेह की तरफ पेशकदमी कर रहा था, लेकिन उससे पूर्व भारतीय सेना की ‘द्वितीय डोगरा रेजिमेंट’ के हिमाचली शूरवीर लाहौल निवासी मेजर ‘ठाकुर पृथी चंद’ व मे. खुशाल ठाकुर तथा सूबेदार भीम सिंह ने अपने कुछ सैनिकों के साथ 25 फरवरी 1948 को जोजिला दर्रे को पार करके आठ मार्च 1948 को लद्दाख में तिरंगा फहरा दिया था। बेहद कठिन भौगोलिक परिस्थितियां, सीमित संसाधन तथा पाक लश्कर के मुकाबले डोगरा सैनिकों की संख्या बहुत कम थी। लेह-लद्दाख पर पाक हमले का सामना करने के लिए मे. पृथी चंद ने लद्दाख के स्थानीय युवाओं की वालंटियर भर्ती शुरू की तथा उस सैन्य दल को ‘नुब्रा गाड्र्स’ नाम दिया था। सूबेदार भीम सिंह के नेतृत्व में नुब्रा गाड्र्स को ‘गुरिल्ला युद्ध’ का प्रशिक्षण दिया गया। सेना के प्रति युवाओं का उत्साह इस कदर बढ़ा कि लद्दाख का सत्रह वर्षीय बालक ‘चेवांग रिंचिन’ भी नुब्रा गाड्र्स में भर्ती हो गया। युवा जोश से लबरेज नुब्रा गाड्र्स ने लद्दाख में हजारों फीट की बुलंदी पर मौजूद ‘लामा’ चौकी पर मोर्चा संभाल चुके पाक लश्कर पर जोरदार हमला करके पाक फौज के मंसूबे खाक में मिला दिए तथा लद्दाख के वियांगडांगो पर हमला करके कबायली लश्कर को खदेड़ कर शत्रु के हथियार भी छीन लिए थे। उन हमलों में अहम किरदार निभाने वाले ‘चेवांग रिंचिन’ को सेना ने ‘महावीर चक्र’ से अलंकृत किया था। नुब्रा गाड्र्स की मदद से मे. खुशाल ठाकुर ने ‘खाल्टसी पुल’ पर कई दिनों तक मोर्चा संभाल कर कबायली हमले को नाकाम किया था। 1947-48 के पाक हमले से लेह-लद्दाख को बचाने में सफल नेतृत्व व शूरवीरता का परिचय देने वाले मे. पृथी चंद व मे. कुशाल ठाकुर दोनों भाईयों को भारत सरकार ने ‘महावीर चक्र’ प्रदान किए थे तथा उनके चाचा सूबेदार भीम सिंह ठाकुर को ‘वीर चक्र’ से दो बार नवाजा था। उसी युद्ध में बहादुरी का मुजाहिरा करने वाले लाहौल के नायक ‘तोबगे’ को भी ‘वीर चक्र’ से सरफराज किया था। उसी नुब्रा गाड्र्स ने 1962 की जंग में ‘जम्मू-कश्मीर मिलिशिया’ के रूप में चीन को मुंहतोड़ जवाब दिया था। 27 अक्तूबर 1962 को लद्दाख के महाज पर कई चीनी सैनिकों को हलाक करके बलिदान हुए कुल्लू के हवलदार ‘स्टेंजिन फुंचोक’ ‘महावीर चक्र’ उसी मिलिशिया फौज का हिस्सा थे।

1962 की जंग में चेवांग रिंचिन को भी ‘सेना मेडल’ से नवाजा गया था। 1971 की जंग में कारगिल के तुर्तुक में पाक सेना पर हमला करके वहां चौकी पर कब्जा करने में अहम रोल निभाने के लिए सेना ने ‘चेवांग रिंचिन’ को दोबारा ‘महावीर चक्र’ से सम्मानित किया था। ठाकुर पृथी चंद की दूरदर्शी सोच वही नुब्रा गाड्र्स वर्तमान में भारतीय सेना में ‘लद्दाख स्काउट्स’ बन चुका है। चेवांग रिंचिन सन् 1984 में इसी ‘लद्दाख स्काउट्स’ से कर्नल रैंक में सेवानिवृत्त हुए थे। स्मरण रहे पृथी चंद के पिता ‘ठाकुर अमर चंद’ ने प्रथम विश्व युद्ध में अपनी रियासत के दो सौ ठाकुर सैनिकों का नेतृत्व करके मैसोपोटामिया के मोर्चे पर तुर्क सेना से जंग लड़ी थी। बर्तानिया बादशाही ने जंग में बहादुरी के लिए ठाकुर अमर चंद को ‘राय बहादुर’ की उपाधि दी थी। बहरहाल आजादी के बाद लेह-लद्दाख की सरजमीं पर तिरंगा फहराने का श्रेय लाहौल के ठाकुरों को जाता है। अत: देश की सबसे बड़ी पंचायत में बैठकर एक नज्म के जरिए ठाकुरों पर तनकीद करने वाले सियासतदातों को ठाकुरों के शौर्य से मुखातिब होना होगा। यदि भारत के मानचित्र पर लेह-लद्दाख सुशोभित है तो इसके पीछे लाहौल के ठाकुरों की शूरवीरता व सैन्य निष्ठा का गौरवपूर्ण इतिहास है।

प्रताप सिंह पटियाल

स्वतंत्र लेखक


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