सरकारी ‘रथ-प्रभारी’

By: Oct 26th, 2023 12:05 am

सरकारी अधिकारी, कर्मचारी और देश की सीमाओं के प्रहरी सैनिक अब ‘रथ-प्रभारी’ भी बनेंगे। वे मोदी सरकार, अर्थात भारत सरकार, के नौ साल की उपलब्धियों, सरकारी परियोजनाओं, का बखान करेंगे तथा जन-जन तक पहुंचाने के लिए गुणगान करेंगे। अब सरकार के ‘लोकसेवक’ भी मोदी सरकार के प्रवक्ता बनेंगे। वे ‘विकसित भारत संकल्प यात्रा’ के रथी होंगे और सरकारी कार्यक्रमों का ग्रासरूट तक प्रचार करने के प्रयास करेंगे। भारत सरकार के स्तर पर कदाचित यह पहली बार कराया जा रहा है। इस संदर्भ में केंद्रीय वित्त मंत्रालय के राजस्व विभाग और रक्षा मंत्रालय ने सर्कुलर जारी कर सरकारी कर्मचारियों और नौकरशाहों को निर्देश दिए हैं। मोदी सरकार का यह फैसला राजनीतिक विवाद बनता जा रहा है। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खडग़े ने प्रधानमंत्री मोदी को पत्र लिखकर इस आदेश को वापस लेने का आग्रह किया है, क्योंकि सरकारी लोकसेवक ‘तटस्थ’ माना जाता है और चुनावों से ऐन पहले उनका ‘राजनीतिकरण’ करना गलत है। खडग़े कुछ हद तक तार्किक भी हैं। औसत सरकारी अधिकारी, नौकरशाह, कर्मचारी की राजनीतिक विचारधारा भारत सरकार से भिन्न हो सकती है। सेना के सैनिक और अद्र्धसैन्य बलों के जवान ‘मातृभूमि’ के लिए काम करते हैं। बेशक प्रशासनिक तौर पर वे भारत सरकार के अधीन हैं। औसत सरकारी कर्मचारी के नाते वे भारत सरकार की नीतियों, फैसलों, परियोजनाओं को स्वीकार करने को बाध्य हैं। सरकारी कामकाज में वे उसी लाइन पर काम करेंगे, लेकिन लोकतंत्र में वैचारिकता और मतदान करने के अधिकार स्वायत्त हैं।

उन्हें ‘सरकारी प्रवक्ता’ बनने को विवश नहीं किया जा सकता। प्रधानमंत्री मोदी ने लोकसेवा और जन-दायित्वों की आड़ में एक गलत, अनैतिक लकीर खींची है। सैनिकों को ‘सालाना अवकाश’ का लालच दिया गया है। अपेक्षा की जा रही है कि वे ‘सैनिक राजदूत’ बनकर सरकारी परियोजनाओं का प्रचार करें, ताकि उनके लाभ जमीनी स्तर के नागरिक तक पहुंचाए जा सकें। सवाल है कि एक नौकरशाह या कर्मचारी अथवा सैनिक को ‘रथ-प्रभारी’ बनने का निर्देश दिया जाए, ऐसा उनकी सरकारी सेवा के नियमों में कहां लिखा है? देश के नागरिक होने के नाते सरकारी जनसेवक के भी दायित्व और प्रतिबद्धताएं हैं कि वे आम आदमी की सेवा करें, लेकिन यह भी संभव है कि एक नागरिक के तौर पर वे भारत सरकार की परियोजनाओं और नीतिगत कार्यक्रमों से असहमत हों! असहमति का अधिकार हमें संविधान ने दिया है। सरकार के पास व्यापक प्रचार-तंत्र होता है। भाजपा जैसी पार्टी के पास काडर भी असीमित है। उन्हें ‘रथ-प्रभारी’ बनाया जा सकता है, क्योंकि अभी तक राजनीतिक परंपरा यही रही है। बहरहाल अभी तो सरकार के इस निर्णय का राजनीतिक विरोध तपा नहीं है, लेकिन उनके तर्क सही हैं कि ध्रुवीकरण के इस दौर में सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों का तटस्थ और स्वायत्त होना बेहद जरूरी है, ताकि जनादेश का निर्णय भी उसी विवेक के साथ किया जा सके। कुछ दल इस फैसले को अदालत में चुनौती देने पर भी विचार कर रहे हैं।

हमारा मानना है कि कई आईएएस स्तर के अधिकारी भी राजनीतिक तौर पर ‘प्रतिबद्ध’ होते हैं और सेवानिवृत्ति के बाद सांसद, मंत्री तक बनने का मौका उन्हें दिया जाता है। आरके सिंह, अश्विनी वैष्णव, हरदीप सिंह पुरी, एस. जयशंकर, अपराजिता सारंगी आदि ऐसे ही केंद्रीय मंत्री और सांसद हैं। विचारधारा उनकी भी स्वायत्तता है। इस पर कोई सवाल नहीं है। अधिकारी के तौर पर वे भारत सरकार की परियोजनाओं के ‘रथी प्रवक्ता’ बने हों, हमें ऐसा नहीं लगता। आजकल ओडिशा में वीके पांडियन आईएएस सेवा से रिटायर होने के बाद विवादों में हैं। वह मुख्यमंत्री नवीन पटनायक के सबसे भरोसेमंद अधिकारियों में गिने जाते रहे हैं। अब सेवानिवृत्ति के बाद उन्हें राज्य सरकार में कैबिनेट का दर्जा दिया गया है। रथ प्रभारी बनाने का मामला भी गले नहीं उतर रहा है।


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