हिमाचली हिंदी कहानी : विकास यात्रा

By: Oct 1st, 2023 12:06 am

डा. हेमराज कौशिक

अतिथि संपादक

मो.-9418010646

कहानी के प्रभाव क्षेत्र में उभरा हिमाचली सृजन, अब अपनी प्रासंगिकता और पुरुषार्थ के साथ परिवेश का प्रतिनिधित्व भी कर रहा है। गद्य साहित्य के गंतव्य को छूते संदर्भों में हिमाचल के घटनाक्रम, जीवन शैली, सामाजिक विडंबनाओं, चीखते पहाड़ों का दर्द, विस्थापन की पीड़ा और आर्थिक अपराधों को समेटती कहानी की कथावस्तु, चरित्र चित्रण, भाषा शैली व उद्देश्यों की समीक्षा करती यह शृंखला। कहानी का यह संसार कल्पना-परिकल्पना और यथार्थ की मिट्टी को विविध सांचों में कितना ढाल पाया। कहानी की यात्रा के मार्मिक, भावनात्मक और कलात्मक पहलुओं पर एक विस्तृत दृष्टि डाल रहे हैं वरिष्ठ समीक्षक एवं मर्मज्ञ साहित्यकार डा. हेमराज कौशिक, आरंभिक विवेचन के साथ किस्त-२5

-(पिछले अंक का शेष भाग)

सेक्शन ऑफिसर ऐनक घर में ही भूल जाता है जिसके कारण अपाहिज स्थिति तक पहुंचता है, कहानी व्यंग्य के धरातल पर यह प्रस्तुत करती है। ‘सुपुत्र श्रीमती’ दांपत्य संबंधों के विघटन पर केंद्रित कहानी है। ‘सरकंडे’ गांव में राजनेताओं के लोगों को सब्जबाग दिखाकर आम आदमी के उत्थान के आश्वासन देने की स्थितियों का निरूपण है। ‘बकरा’ में आपातकाल की घोषणा के पश्चात परिवार नियोजन के कार्यक्रम को क्रियान्वित करने के लिए डॉक्टर, पटवारी, अध्यापकों के लिए परिवार नियोजन के ऑपरेशन करवाने के लिए टारगेट स्थापित किए जाते हैं। किस प्रकार निर्दयता से पुलिस कर्मी लोगों को घर से उठाकर जबरदस्ती आप्रेशन करवा रहे थे, उसकी यथार्थ तस्वीर प्रस्तुत कहानी व्यंजित करती है। कहानी के अंत में डॉक्टर चिंतामणि कहता है ‘आज हमने दो सौ पचास बकरा लंबे डाले।’ ‘कटे फटे लोग’ संग्रह की शीर्षक कहानी है। संदर्भित कहानी में भूकंप की आपदा से ग्रस्त निर्धन लोगों के उत्पीडऩ और शोषण को चित्रित किया है। भूकंप के कारण निर्धन लोगों के घर क्षतिग्रस्त होते हैं। पशुशालाओं और पशुओं का भी नुकसान होता है।

सरकार की योजना से मुआवजा के रूप में कुछ सहायता पटवारी के माध्यम से मिलने को लेकर पटवारी और अधिकारी किस प्रकार प्राकृतिक आपदा की घड़ी में सरकारी पैसे की लूट करते हैं और रिश्वत लेते हैं, यह कहानी संधि जैसी नारियों की स्थितियों और व्यथा कथा के माध्यम से व्यंजित करती है। त्रिलोक मेहरा की संदर्भित संग्रह की कहानियां व्यवस्था की विसंगतियों, जानलेवा परिस्थितियों में जीने की विवशताओं, आर्थिक मजबूरियों, लालफीताशाही और रिश्वतखोरी के निरूपण के साथ संबंधों में आई संवेदनशून्यता के यथार्थ को प्रस्तुत करती हैं। ये कहानियां नई और पुरानी पीढ़ी के अंतर और विघटित होते हुए मूल्यों को निरूपित करती हैं। कहानियों की वस्तु प्रयोजनमूलक और भाषा व शैली सहज और पात्रानुकूल है। सदी के अंतिम दशक में साधुराम दर्शक के तीन कहानी संग्रह ‘सलीब पर लटका मसीहा’ (1991), ‘एक और सावित्री (1996) व ‘नन्हा गुलाब बूढ़ा खार’ (1997) प्रकाशित हंै। ‘सलीब पर लटका मसीहा’ में पंद्रह कहानियां- सलीब पर लटका मसीहा, डायन, विडंबना, रिश्ते और रिश्ते, बिना धरती के, एक और हरिश्चंद्र, एक थी सुंदरी, कोई हक नहीं, एक तूफानी रात, याद रखना, प्रलय के फरिश्ते, अकेली मादा सारस, अंतिम संस्कार, देवदार से भी ऊंचा और नरमेध संगृहीत हैं। प्रस्तुत संग्रह की ‘सलीब पर लटका मसीहा’ एक ऐसी नारी के उत्सर्ग की कहानी है जो अपने अनाथालय में बच्चों को सभी धर्मों की समान रूप में शिक्षा प्रदान करती है और सांप्रदायिक शक्तियों के समक्ष झुकती नहीं। ‘डायन’ विधवा नारी की कारुणिक नियति को मूर्तिमान करती है।

‘विडंबना’ कहानी में प्रतिभाशाली युवक है जो पढ़ाई में तेज होने पर भी बेरोजगारी का शिकार होता है। डॉक्टर बनने की महत्वाकांक्षा रखने वाले प्रतिभा संपन्न युवक को छोटी नौकरी भी नहीं मिल पाती। वह अनुभव करता है कि नौकरी किसी बड़े आदमी के संबंधी को मिलती है या रिश्वत की भेंट चढ़ाकर। युवक का जब एक्सीडेंट होता है तो उसे आशा होती है कि शायद अब विकलांग होने पर उसे सरकारी नौकरी मिल जाए। ‘प्रलय के फरिश्ते’ में भूकंप की विनाश लीला में लाइनमैन गायकवाड़ के साहस और कत्र्तव्यनिष्ठा की व्यंजना है। ‘अंतिम संस्कार’ में एक गांव के बुनकर के औद्योगिकीकरण के फलस्वरूप ग्रामीण व्यवसाय के ध्वस्त होने और शहर की मिल में मजदूरी करते हुए हाथ कटने से उत्पन्न पारिवारिक दुर्दशा की दुखद स्थितियों का निरूपण है। इस विकलांगता के कारण पूरा परिवार बिखर जाता है और पत्नी की क्षय रोग से मृत्यु होने पर उसके अंतिम संस्कार का भी सामथ्र्य उसके पास नहीं होता। वह पुलिस को सूचना देता है, ‘हजूर यह औरत रात को मर गई, बहुत दिनों से बीमार थी, लावारिस थी बेचारी।’ ‘एक और हरिश्चंद्र’, ‘एक थी सुंदरी’, ‘नरमेध’, ‘याद रखना’ आदि कहानियों में भी ऐसे मनुष्य की छटपटाहट और संघर्ष का चित्रण है जो वर्तमान सामाजिक व्यवस्था में जातिगत उत्पीडऩ, आर्थिक शोषण और सांप्रदायिक विद्वेष की जकडऩ से मुक्ति के लिए संघर्षरत हैं।

‘एक और सावित्री’ (1996) में सोलह कहानियां- एक और सावित्री, मां के आंसू, उर्फ भैंसा या, पतिता, उपहार, प्रतिबिंब, बाबा बरगद, नए युग की यक्षिणी, उदास, पीला गुलाब, बूचडख़ाना, क्रोध, भला, जिप्सी की तलाश, जागो, खलनायक और चंद्रकिरण संग्रहीत हैं। ‘एक और सावित्री’ कहानी में मजदूर स्त्री नंदा अपने रुग्ण पति के उपचार के लिए अपनी इज्जत बेचने की अपेक्षा परिश्रम बेचने को श्रेयस्कर समझती है। वह डैम में पहली औरत होती है जो मजदूरी करती है, क्षयरोग से पीडि़त पति की बीमारी से मुक्ति के लिए वह दो शिफ्टों में काम करती है। दूसरे के घरों में भांडे-बर्तन मांजती है। यहां तक कि अपने मंगलसूत्र को भी बेचने के लिए विवश होती है।

अंतत: पति की हालत सुधरने लगती है। ‘प्रतिबिंब’ कहानी में लक्ष्मीबाई की सहयोगी झलकारी के देश प्रेम, समर्पण और साहस की व्यंजना है। ‘नए युग की लक्ष्मी’ में कहानीकार ने ऐसी युवती का चित्रण किया है जिसका सपना और चाह किसी राजकुमार को प्राप्त करना नहीं, अपितु बेरोजगारी से मुक्ति के लिए नियुक्ति पत्र की चाह है। ‘चंद्रकिरण’ में चंद्र का चरित्र नारी समाज को दृढ़ता से विषम परिस्थितियों के विरुद्ध संघर्ष करते हुए जिजीविषा की प्रेरणा देता है। ‘मां के आंसू’ में बारह वर्ष का बालक विधवा मां की बीमारी की अवस्था में कोयला ढोकर मजदूरी के पैसे से दवाई का प्रबंध करता है। ‘उर्फ भैंसा या’ में डाक विभाग में कार्य करने वाली युवती को विशालकाय बाबू रामस्वरूप गुंडों से बचाते हुए स्वयं मृत्यु को प्राप्त होता है। वे गुंडे किसी राजनेता के संबंधी या उद्योगपति से संबंध रखते हैं। कहानी दफ्तरों में कार्यरत कर्मचारियों की मानसिकता और कार्यशैली को व्यंग्य के धरातल पर प्रस्तुत करती है। ‘नन्हा गुलाब बूढ़ा खार’ (1997) कहानी संग्रह में सोलह कहानियां- नन्हा गुलाब बूढ़ा खार, पर कटी तितली, अंतिम हत्या, शाही खेल, जासूसी, कंकाल हंसता है, भले लोग, जश्न, नादिया, लगे रहिए मंगतराम जी, चार्ज शीट, मेरी आत्मा मर नहीं गई, अपराधी, बेटियां ऐ, आगे क्या और प्रथम विद्रोही अंगना संगृहीत हैं। ‘अपराधी’ कहानी में कहानीकार ने जितेन की चरित्र सृष्टि के माध्यम से यह स्थापित किया है कि किस प्रकार विपरीत परिस्थितियों में विनम्र और विलक्षण प्रतिभा का बालक अनायास आपराधिक प्रवृत्तियों की ओर उन्मुख होता है।

‘जश्न’ कहानी में राणा मंगत सिंह गांव की पंचायत का प्रधान है। वह बाढ़ पीडि़तों की सहायता के लिए आए हुए पैसों को उन तक न पहुंचा कर दूसरे चेहते लोगों को लाभ पहुंचाता है। भ्रष्टाचार के संबंध में उसका निजी तर्क है, ‘सरकार की कीमत पर अगर मैं पांच-दस आदमियों को फायदा दिलवा देता हूं तो कौनसा गुनाह करता हूं? हैं तो वह अपने गांव के आदमी न।’ यह कहानी ग्रामीण स्तर पर व्याप्त भ्रष्टाचार को उद्घाटित करती है। ‘शाही खेल’ कहानी अपराधी, पुलिस और राजनेताओं के परस्पर संबंध सूत्रों को रूपायित करती है। ‘मेरी आत्मा मर नहीं गई’ कहानी में कहानीकार ने यह प्रतिपादित किया है कि सृष्टि का यदि कोई मालिक है तो साफ है कि वह एक ही होगा। तब मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, गिरजाघर आदि सब उसके ही तो घर हैं। फिर एक तरह का घर गिरा कर उसकी जगह दूसरी तरह का घर बनाने में क्या तुक है। ‘नादिया’ कहानी में कहानीकार ने यह व्यंजित किया है कि सांप्रदायिक उन्माद की पीठिका में जमीन से लोगों को विस्थापित करने के पीछे लोगों के निजी स्वार्थ होते हैं।

‘नन्हा गुलाब बूढ़ा खार’, ‘बिटिया ऐ’ कहानियां भी सांप्रदायिकता का प्रतिकार करती हैं। ‘पर कटी तितली’ में कहानीकार ने ज्योति की जीवन की व्यथा गाथा के माध्यम से दकियानूसी परिवार का बेटी के जन्म के प्रति भेदभावपूर्ण और अमानवीय दृष्टिकोण अनावृत्त किया है। ज्योति बेटियों के जन्म के बाद जिस तनाव से गुजरती है और विक्षिप्त अवस्था तक पहुंचती है, उसका यथार्थ चित्रण यह कहानी प्रस्तुत करती है। साधुराम दर्शक की कहानियां अपने लघु कलेवर में भी प्रयोजनीयता, उद्देश्यपरकता और जीवन के यथार्थ को सहज-सरल भाषा-शैली में व्यंजित करती हैं। मानवीय संवेदनाओं से ओतप्रोत अपने सामाजिक सरकारों और समाज के विडंबनापूर्ण यथार्थ के चित्रण के माध्यम से पाठक की संवेदना को गहरे तक आद्रित करने में की क्षमता रखती हैं। योगेश्वर शर्मा का पहला कहानी संग्रह ‘नंगा आदमी’ (1991) शीर्षक से प्रकाशित है। परंतु उनकी कहानी सृजन यात्रा सन् 1955 से ही प्रारंभ हो गई थी। वे हिमाचल प्रदेश के उन विरल कहानीकारों में से हैं जिनकी रचनाएं उस समय धर्मयुग और साप्ताहिक हिंदुस्तान में प्रकाशित हुईं। अनेक अग्रणी पत्रिकाओं में उनका कहानी सृजन क्रम जारी रहा और उनकी कहानियां अनेक संपादित संग्रहों में संग्रहीत होती रही हैं। ‘नंगा आदमी’ में उनकी दस कहानियां- पीलिया, काला ढांख का मसान, बाबू रामभरोसे रिटायर नहीं हुए, वार्ड नंबर सात का प्रत्याशी, एक मसीहा की मौत, मलबे में दबी जिंदगी, एक नाटक और, अध मुंडिया राक्षस, जसोदा मैं ठीक हूं और नंगा आदमी संगृहीत हैं। संदर्भित संग्रह की कहानियों की संवेदना भूमि ग्रामीण जीवन की विसंगतियों पर केंद्रित है, परंतु इन पात्रों की आवाजाही गांव और शहर में होती रहती है। शहर का परिवर्तित परिवेश और वहां की संवेदनशून्यता का पात्र साक्षात्कार करते हैं।

‘पीलिया’ में सामाजिक विषमता से पीडि़त वर्ग की व्यथा कथा महरी पूरनी तथा उसके सात-आठ वर्ष के बेटे के माध्यम से व्यंजित की गई है। घोर दरिद्रता में मां पीलियाग्रस्त बेटे को लाल हवेली के छोटे साहब के उच्छिष्ट गन्ने, मौसमी, संतरे के जूस को पिलाती है क्योंकि छोटे साहब स्वयं पीलिया से ग्रस्त होते हैं। इसलिए घर में उनके उपचार के लिए कई प्रकार के रस आते हैं। छोटे साहब तो ठीक हो जाते हैं, परंतु मनकू मर जाता है क्योंकि उसकी बीमारी को देखकर डॉक्टर बीमारी की भयावहता के संबंध में सजग भी करते हैं, परंतु उनका दारिद्रय बेटे का उपचार कराने में असमर्थ रहता है। कहानी का अंत त्रासदीय है। कहानी सामंतीय व्यवस्था में पिसते अभावग्रस्त वर्ग की पीड़ा को मुखरित करती है। ‘काले ढांख का मसान’ कहानी भी सामंतीय व्यवस्था में पिसते वर्ग की कारुणिक नियति को यथार्थ के धरातल पर प्रस्तुत करती है। ‘जसोदा मैं ठीक हूं’ में दो पीढिय़ों के मूल्यगत संक्रमण को निरूपित किया गया है। एक पीढ़ी की ग्रामीण जीवन और जमीन के प्रति संसिक्ति है तो दूसरी पीढ़ी का भौतिकता की चकाचौंध में ग्रामीण जीवन से मोह भंग है और भौतिकता के प्रति मोह में खो जाने का चित्रण है। संबंधों की रागात्मकता के निष्प्राण होने की स्थितियों का भी कहानी में निरूपण है।
-(शेष भाग अगले अंक में)

विमर्श के बिंदु : हिमाचल का कहानी संसार
लेखक का परिचय

1. हिमाचल की कहानी यात्रा
2. कहानीकारों का विश्लेषण
3. कहानी की जगह, जिरह और परिवेश
4. राष्ट्रीय स्तर पर हिमाचली कहानी की गूंज
5. हिमाचल के आलोचना पक्ष में कहानी
6. हिमाचल के कहानीकारों का बौद्धिक, सांस्कृतिक, भौगोलिक व राजनीतिक पक्ष

नाम : डॉ. हेमराज कौशिक, जन्म : 9 दिसम्बर 1949 को जिला सोलन के अंतर्गत अर्की तहसील के बातल गांव में। पिता का नाम : श्री जयानंद कौशिक, माता का नाम : श्रीमती चिन्तामणि कौशिक, शिक्षा : एमए, एमएड, एम. फिल, पीएचडी (हिन्दी), व्यवसाय : हिमाचल प्रदेश शिक्षा विभाग में सैंतीस वर्षों तक हिन्दी प्राध्यापक का कार्य करते हुए प्रधानाचार्य के रूप में सेवानिवृत्त। कुल प्रकाशित पुस्तकें : 17, मुख्य पुस्तकें : अमृतलाल नागर के उपन्यास, मूल्य और हिंदी उपन्यास, कथा की दुनिया : एक प्रत्यवलोकन, साहित्य सेवी राजनेता शांता कुमार, साहित्य के आस्वाद, क्रांतिकारी साहित्यकार यशपाल और कथा समय की गतिशीलता। पुरस्कार एवं सम्मान : 1. वर्ष 1991 के लिए राष्ट्रीय शिक्षक पुरस्कार से भारत के राष्ट्रपति द्वारा अलंकृत, 2. हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा राष्ट्रभाषा हिन्दी की सतत उत्कृष्ट एवं समर्पित सेवा के लिए सरस्वती सम्मान से 1998 में राष्ट्रभाषा सम्मेलन में अलंकृत, 3. आथर्ज गिल्ड ऑफ हिमाचल (पंजी.) द्वारा साहित्य सृजन में योगदान के लिए 2011 का लेखक सम्मान, भुट्टी वीवर्ज कोआप्रेटिव सोसाइटी लिमिटिड द्वारा वर्ष 2018 के वेदराम राष्ट्रीय पुरस्कार से अलंकृत, कला, भाषा, संस्कृति और समाज के लिए समर्पित संस्था नवल प्रयास द्वारा धर्म प्रकाश साहित्य रतन सम्मान 2018 से अलंकृत, मानव कल्याण समिति अर्की, जिला सोलन, हिमाचल प्रदेश द्वारा साहित्य के लिए अनन्य योगदान के लिए सम्मान, प्रगतिशील साहित्यिक पत्रिका इरावती के द्वितीय इरावती 2018 के सम्मान से अलंकृत, पल्लव काव्य मंच, रामपुर, उत्तर प्रदेश का वर्ष 2019 के लिए ‘डॉ. रामविलास शर्मा’ राष्ट्रीय सम्मान, दिव्य हिमाचल के प्रतिष्ठित सम्मान ‘हिमाचल एक्सीलेंस अवार्ड’ ‘सर्वश्रेष्ठ साहित्यकार’ सम्मान 2019-2020 के लिए अलंकृत और हिमाचल प्रदेश सिरमौर कला संगम द्वारा डॉ. परमार पुरस्कार।

पुस्तक समीक्षा : साहित्य अमृत का अंक, मनोरंजन का खजाना

मासिक पत्रिका ‘साहित्य अमृत’ का अगस्त 2023 अंक प्रकाशित हुआ है। लक्ष्मी शंकर वाजपेयी इस पत्रिका के संपादक हैं। यह अंक कहानियों को समर्पित है। कहानियों के अलावा आलेख भी पाठकों का ज्ञानवद्र्धन करेंगे। इस अंक का मूल्य 150 रुपए है। कहानियां जहां मनोरंजन करती हैं, वहीं पाठकों को सीख भी देती हैं। संपादकीय ‘देश प्रेम की अखंड ज्योति’ पाठकों का ध्यान आकर्षित करता है। चंद्रधर शर्मा गुलेरी की उसने कहा था, प्रेमचंद की रामलीला, वृंदावन लाल वर्मा की शरणागत, जयशंकर प्रसाद की पाप की पराजय, आचार्य चतुरसेन की हल्दी घाटी में, गुरुदत्त की आखिरी किश्त, जैनेंद्र कुमार की अपना-अपना भाग्य, अज्ञेय की शरणदाता, विष्णु प्रभाकर की धरती अब भी घूम रही है, धर्मवीर भारती की स्वर्ग और पृथ्वी, मन्नू भंडारी की मैं हार गई, निर्मल वर्मा की डेढ़ इंच ऊपर और कमलेश्वर की दिल्ली में एक मौत जैसी कहानियां पाठकों को जरूर पसंद आएंगी। इसके अलावा रामदरश मिश्र की सर्पदंश, चंद्रकांता की नदी है तो बहेगी ही, ममता कालिया की सब ‘बहादुर’ नहीं होते, महेश दर्पण की जड़, चित्रा मुद्गल की दुलहिन, उषा किरण खान की गोकुल के छवि, विद्या विंदु सिंह की मंदिर को छावा, प्रकाश मनु की उस कस्बे की अचरज कथा, नासिरा शर्मा की फुलवा, मालती जोशी की अपने-अपने क्षितिज, मैत्रेयी पुष्पा की बेटी, उषा यादव की टूटता तिलस्म, सच्चिदानंद जोशी की देस बिराना है, ऋता शुक्ल की राम लौटेंगे, बीएल गौड़ की सौ फुटी सडक़, नीरजा माधव की लालुंग ‘मी लार्ड’ नहीं जानता, प्रमोद कुमार अग्रवाल की पुस्तक क्रांति, रूप सिंह चंदेल की हुंडी, उर्मिला शिरीष की नानी की डायरी, कमलेश भारतीय की पापा जल्दी आ जाना, रश्मि कुमार की विदेसिया, सुभाष चंद्र की पहले प्यार की पहली चिट्ठी, संतोष श्रीवास्तव की उड़ान को पंख, तेजेंद्र शर्मा की सहयात्री, प्रगति गुप्ता की समय अभी शेष है, अभिराज राजेंद्र मिश्र की ऐसा लगता है, अलका सिन्हा की झील से झांकता है चेहरा, शशि पुरवार की परिंदा, हरीश पाठक की एक दिन का युद्ध, विवेक मिश्र को डोंगी, रेणु हुसैन की वह दुनिया की सबसे सुंदर औरत थी, सुधांशु गुप्त की मशीन की खराबी, आरती स्मित की हजार बच्चों की मां, वेदप्रकाश अमिताभ की आओ घर चलें, लक्ष्मेंद्र चोपड़ा की उसके हिस्से की आग, भावना शेखर की एक और अनहोनी व भविष्य कुमार सिन्हा की बाबा जैसी कहानियां भी इस अंक में संकलित हैं। कई और कहानीकारों ने भी अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई है। बलराम व अनिल सामोता के आलेख साहित्यिक ज्ञान बढ़ाते हैं। -फीचर डेस्क

जिंदगी से बतियाते, धुंधलके शामों के
$ग•ाल संग्रह : धुंधलके शामों के
लेखिका : डा. नलिनी विभा ना•ाली
प्रकाशक : अमृत प्रकाशन, दिल्ली
कीमत : 600 रुपए

जिंदगी की कलम से लिखते हुए डा. नलिनी विभा ‘ना•ाली’ ने कई आसमां लिखे हैं। $ग•ाल ने खुद पगडंडियों से गुजर कर मंजिलों के बयान लिखे हैं। लिखना समुद्र को कभी जब ज्वारभाटा शरारती हो। लिखना नदी को जब भागती रेत से इश्क कर रही हो। बावजूद इसके जमाने की लिखावट को न नज़्म पूरा करती, न $ग•ाल पूरा पढ़ पाती, फिर भी दौर-ए-इशरत को जो लिखता है, उसकी निगाहों में कई जहां बसते हैं। ‘धुधलके शामों के’ स$फा दर स$फा जिंदगी से बतियाने का सफर है। जिंदगी की शायरी में इनसान का नज़्म हो जाना, ‘रफू़ करके हर •ाख्म रिसता हुआ, नए •ाख्म खाने निकलते हैं हम। तड़प ले के सीने में जलते हैं हम, मगर फिर भी अपनों को खलते हैं हम।’ शायरा ना•ाली अपने विषयों के संदर्भ में नित नया संसार उंडेल देती हैं। इस संग्रह में शब्दों की बादशाहत से नहाई-धोई हुई $ग•ालें, दरअसल काग•ा पर मानव आकृतियां बनाती हैं और जिनके आर-पार गु•ार जाते हैं विचारों के कई घोड़े, ‘उम्मीद का चरा$ग जो जला था दिल में रात को, उसी की लौ पर टकटकी लगी रही है रात भर।’ $ग•ाल यहां सृजन की निरंतरता में कुछ आसमानी, कुछ रुहानी, कुछ •ाबानी, कुछ मस्तानी, कुछ अपनी और कुछ बेगानी शर्तों में उम्मीदों के स$फर पर निकली है, ‘इक दरिया था इन आंखों में, फिर भी हमने अश्क छुपाए।’ कभी परिवेश को बुनतीं अपनी लंबाई, ऊंचाई, खुदाई या तन्हाई खुद तय करती हैं, ‘जाड़ों में यूं $फलक से दबे पांव आई धूप, एहसास तक हुआ न मिरे गांव आई धूप।’ $ग•ाल अपनी प्रस्तुति की पलकों पर हर बार विचारों के घूंघट हटाती, तआरु$फ कराती चलती है। इसलिए डा. नलिनी विभा ना•ाली का हर संग्रह अपने साथ अध्ययन का एक कक्ष भी ले आता है, जहां अश’आर अपने भीतर गहन चिंतन की अवधारणा को नया मोड़ देते हैं। इसलिए $ग•ाल अपनी देहयष्टि में नाजुक सी औरत के आवरण में, चहचहाती चिडिय़ा सी, ‘हर इक बार हम ही नहीं बोलते, कुछ इक बार कहता है दरपन भी कुछ।’ वसंत की बहारों में तितलियों का पीछा करते शेरवानी ओढ़े कोई शे’र जब बेतकल्लुफ होता है, ‘इश्क करता है बेसहारा भी, और देता यही सहारा है।’ किसी मां के दर्द में $ग•ाल का गोद बन जाना या पहनावे में औरत के रंग-रूप, अंदाज, व्यथा, संवेग में जिंदगी के छोर पर उतर आना। रंग-बिरंगी चट्टानों के बीच दूर तक फैले समुद्र में कभी झील सी, तो कभी नाव सी कल्पना में ये $ग•ालें कभी शांत गहराई में मुलाकात करती हैं, तो कभी उफान में दिल तक उतर आती हैं। कहीं-कहीं ना•ाली का कथ्य एकाकी जीवन के लम्हों को बटोर लेता है, ‘कब तलक रह सकेगा ये महफूज, कांच का जिस्म टूट जाना है।’ ये $ग•ालियात अपनी सरल प्रस्तुति के कारण भावों के समुद्र को पूरी तरह खोल देती हैं, तो आईनों के मुस्कराने तक ले जाती हैं, ‘हैं चलो मुझमें हजारों $खामियां, एक दो तो होंगी फिर भी खूबियां।’ आशाओं के मंथन में फरिश्तों की पहचान में जब दिशाएं साथ-साथ भागती हैं, तो जैसे किसी ने सहेज कर रखा हो दुनिया का इतना सा सफर, ‘वो मुसाफिर क्या करेगा तय स$फर, राह में जो थक थका कर रुक गया।’ जिंदगी के विषय पर बेहतरीन $ग•ालों का समुदाय खड़ा करती शायरा, शामों के सन्नाटों से बाहर सुबह का संगीत सुनाती हैं, तो धुंधलके छंट जाते हैं, ‘करीं हमने कभी अपने दरो-दीवार से बातें, कभी खुद से, कभी अपने $कलम की धार से बातें।’

-निर्मल असो


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