हिमाचली हिंदी कहानी : विकास यात्रा : 26

By: Oct 7th, 2023 7:26 pm

कहानी के प्रभाव क्षेत्र में उभरा हिमाचली सृजन, अब अपनी प्रासंगिकता और पुरुषार्थ के साथ परिवेश का प्रतिनिधित्व भी कर रहा है। गद्य साहित्य के गंतव्य को छूते संदर्भों में हिमाचल के घटनाक्रम, जीवन शैली, सामाजिक विडंबनाओं, चीखते पहाड़ों का दर्द, विस्थापन की पीड़ा और आर्थिक अपराधों को समेटती कहानी की कथावस्तु, चरित्र चित्रण, भाषा शैली व उद्देश्यों की समीक्षा करती यह शृंखला। कहानी का यह संसार कल्पना-परिकल्पना और यथार्थ की मिट्टी को विविध सांचों में कितना ढाल पाया। कहानी की यात्रा के मार्मिक, भावनात्मक और कलात्मक पहलुओं पर एक विस्तृत दृष्टि डाल रहे हैं वरिष्ठ समीक्षक एवं मर्मज्ञ साहित्यकार डा. हेमराज कौशिक, आरंभिक विवेचन के साथ किस्त-26

हिमाचल का कहानी संसार

विमर्श के बिंदु

1. हिमाचल की कहानी यात्रा
2. कहानीकारों का विश्लेषण
3. कहानी की जगह, जिरह और परिवेश
4. राष्ट्रीय स्तर पर हिमाचली कहानी की गूंज
5. हिमाचल के आलोचना पक्ष में कहानी
6. हिमाचल के कहानीकारों का बौद्धिक, सांस्कृतिक, भौगोलिक व राजनीतिक पक्ष

लेखक का परिचय

नाम : डॉ. हेमराज कौशिक, जन्म : 9 दिसम्बर 1949 को जिला सोलन के अंतर्गत अर्की तहसील के बातल गांव में। पिता का नाम : श्री जयानंद कौशिक, माता का नाम : श्रीमती चिन्तामणि कौशिक, शिक्षा : एमए, एमएड, एम. फिल, पीएचडी (हिन्दी), व्यवसाय : हिमाचल प्रदेश शिक्षा विभाग में सैंतीस वर्षों तक हिन्दी प्राध्यापक का कार्य करते हुए प्रधानाचार्य के रूप में सेवानिवृत्त। कुल प्रकाशित पुस्तकें : 17, मुख्य पुस्तकें : अमृतलाल नागर के उपन्यास, मूल्य और हिंदी उपन्यास, कथा की दुनिया : एक प्रत्यवलोकन, साहित्य सेवी राजनेता शांता कुमार, साहित्य के आस्वाद, क्रांतिकारी साहित्यकार यशपाल और कथा समय की गतिशीलता। पुरस्कार एवं सम्मान : 1. वर्ष 1991 के लिए राष्ट्रीय शिक्षक पुरस्कार से भारत के राष्ट्रपति द्वारा अलंकृत, 2. हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा राष्ट्रभाषा हिन्दी की सतत उत्कृष्ट एवं समर्पित सेवा के लिए सरस्वती सम्मान से 1998 में राष्ट्रभाषा सम्मेलन में अलंकृत, 3. आथर्ज गिल्ड ऑफ हिमाचल (पंजी.) द्वारा साहित्य सृजन में योगदान के लिए 2011 का लेखक सम्मान, भुट्टी वीवर्ज कोआप्रेटिव सोसाइटी लिमिटिड द्वारा वर्ष 2018 के वेदराम राष्ट्रीय पुरस्कार से अलंकृत, कला, भाषा, संस्कृति और समाज के लिए समर्पित संस्था नवल प्रयास द्वारा धर्म प्रकाश साहित्य रतन सम्मान 2018 से अलंकृत, मानव कल्याण समिति अर्की, जिला सोलन, हिमाचल प्रदेश द्वारा साहित्य के लिए अनन्य योगदान के लिए सम्मान, प्रगतिशील साहित्यिक पत्रिका इरावती के द्वितीय इरावती 2018 के सम्मान से अलंकृत, पल्लव काव्य मंच, रामपुर, उत्तर प्रदेश का वर्ष 2019 के लिए ‘डॉ. रामविलास शर्मा’ राष्ट्रीय सम्मान, दिव्य हिमाचल के प्रतिष्ठित सम्मान ‘हिमाचल एक्सीलेंस अवार्ड’ ‘सर्वश्रेष्ठ साहित्यकार’ सम्मान 2019-2020 के लिए अलंकृत और हिमाचल प्रदेश सिरमौर कला संगम द्वारा डॉ. परमार पुरस्कार।

डा. हेमराज कौशिक
अतिथि संपादक
मो.-9418010646

-(पिछले अंक का शेष भाग)
‘काले ढांख का मसान’ में जीवणू के जीवन के संघर्ष, उसकी अंध श्रद्धाओं और विश्वासों को रेखांकित करते हुए नारी के प्रति उसके दृष्टिकोण को रूपायित किया है और बेटे से पुश्तैनी व्यवसाय करवाने की स्थितियों का निरूपण है। तीसरी पत्नी रामकली की हवेली की समृद्धता को देखकर ऐसी लिप्सा और सपना है, वह उस वैभव में डूबे रहना चाहती है। सामंतीय व्यवस्था में पिसते वर्ग की पीड़ा और स्त्री के प्रति हवेलियों और जमीदारों की भोग लिप्सा को प्रस्तुत कहानी रेखांकित करती है। ‘बाबू रामभरोसे रिटायर नहीं हुए’ शीर्षक कहानी एक मध्यवर्गीय बाबू की जिंदगी का प्रत्यवलोकन करती है। पैंतीस वर्षों तक का जीवन दैनिक जरूरतों में मरते खपते, बहन भाइयों की शादियों, बच्चों की पढ़ाई लिखाई, पालन पोषण में बिता देते हैं। कर्जे में डूबे सेवानिवृत्ति तक पहुंचते हैं। सेवानिवृत्ति पर वह अपने आप को अकेला अनुभव करते हैं। इसलिए रामभरोसे पत्नी से कहता है, ‘हम पहले भी कडक़ी में थे, आगे भी रहेंगे शायद। लेकिन बेटों के आगे हाथ नहीं फैलाएंगे। आज भी तेरे यह बेटे तेरे पैर छू लेते हैं तो गनीमत मान, इससे ज्यादा यह और कुछ नहीं करने वाले, इतना कह देता हूं।’ प्रस्तुत कहानी नई पीढ़ी की संतति की संवेदनशून्यता, माता-पिता के प्रति उपेक्षा भाव और दायित्वहीनता को रेखांकित करती है। रामभरोसे का एक बेटा ओवरसियर और दूसरा एक्साइज इंस्पेक्टर होता है, परंतु वह शहरों में अपने लिए पृथक पृथक मकान बनाकर रहते हैं। उनके लिए उनके पास उनको देने के लिए न पैसा होता है न रहने के लिए घर में कोई कोना ही। ‘नंगा आदमी’ में सीटू और सुखनी का घोर दारिद्रय भरा जीवन है। वे जीवन भर संघर्ष करते हैं, परंतु रहने के लिए न घर बना पाते हैं, न पहनने के लिए वस्त्र, गांव में जिस झोंपड़ी में रहते हैं वहां भी किवाड़ नहीं है। ‘उसने बड़े-बड़े सपने नहीं देखे हैं। बस एक साध रही कि झोंपड़ी में किवाड़ लग जाए। वह तीन साल से सोच रहा है। पैसे का ‘बेसगी’ का जुगाड़ नहीं बैठता। साध ज्यों की त्यों पड़ी है।

चुराने लायक कोई चीज घर में नहीं है, जो है वह सुखनी है। जवान जहान उसकी बीवी गऊ जैसी सीधी, लेकिन दुनिया की नजर तो सीधी नहीं है।’ गांव में शहरी लोगों के आने से देहात के कच्चे पक्के मकानों में किवाड़ों और तालों की जरूरत पड़ गई है। राजनेता गांव में वोट मांगने आने पर सीटू की दरिद्रता को देखता है, भरी सभा में उसकी गरीबी पर तरस भी खाता है और दरिद्रता दूर करने का आश्वासन भी देता है, परंतु मंत्री बनने पर उसे पहचानता तक नहीं। कहानीकार ने सीटू की चरित्र सृष्टि और उसके जीवन के दुख और नियति के माध्यम से व्यवस्था में पिसते आमजन की पीड़ा और अभावग्रस्त जीवन को रेखांकित किया है। ‘मलबे में दबी जिंदगी’ में रोशन लाल उन निम्न मध्यवर्गीय लोगों का प्रतिनिधि चरित्र है जो गांव से शहर में आकर आर्थिक कठिनाइयों से उबरने के लिए शहर की जमीन के किसी कोने में खोखा, ढारा, ढाबा, छपर लगाकर दो जून की रोटी का जुगाड़ करते हैं, परंतु सरकारी कानून के कारण जमीन के अवैध कब्जे के कारण उनकी इस तरह बनी बस्तियां उजाड़ दी जाती हैं। उनका सिर ढकने के ठिकाने से लेकर और रोटी रोजी छिन जाती है। उनकी जिंदगी जैसे मलवे के नीचे दब जाती है। इसके विपरीत धन संपन्न वर्ग हर जगह जमीन हड़प कर निर्भीक होकर घूमते हैं। उन्हें कोई नहीं पूछता। रोशन पूंजीवादी व्यवस्था के इस तांडव के विरोध में खड़ा होता है। ‘एक नाटक और’ में कहानीकार ने नाटक के मंचन के द्वारा वैचारिक परिवर्तन और क्रांति की धीमी प्रक्रिया को रेखांकित किया है। किस प्रकार जनता शोषण मूलक व्यवस्था के विरोध में खड़ी होती है।

प्रस्तुत संग्रह की कहानियां व्यवस्था की विसंगतियों और विद्रूपताओं को परत दर परत अनावृत करती हैं। कहानियों में ग्रामीण परिवेश, पहाड़ी जीवन की दुश्वारियां और आंचलिक भाषा की रंगत मुखरित हुई है। ग्रामीण समाज की दीन-हीन दशा, आर्थिक उत्पीडऩ और शोषण को यथार्थ के धरातल पर रूपायित करती है। योगेश्वर शर्मा की सभी कहानियां उद्देश्य परक, पात्र, घटनाएं और स्थितियां निकट परिवेश से संबंध रखती हैं। कहानी के प्रसंग और चरित्र स्वाभाविक रूप में विकसित होते हैं और पाठक की अनुभूतियों का अंग बनकर रस विभोर करती हैं। योगेश्वर शर्मा की ये कहानियां कथ्य और शिल्प की दृष्टि से ध्यान आकर्षित करती हैं। कुछ कहानियों के पात्र कथ्य की प्रभविष्णुता के कारण अविस्मरणीय बन पड़े हैं।

सुदर्शन वशिष्ठ हिंदी के चर्चित कहानीकार हैं। उनके नवें दशक में तीन कहानी संग्रह ‘हरे हरे पत्तों का घर’ (1991), ‘संता पुराण’ (1998) और ‘कतरनें’ (2000) प्रकाशित हैं। ‘हरे हरे पत्तों का घर’ (1991) में नौ कहानियां- माणस गंध, खतरनाक लोग, सेहरा नहीं देखते, बार में बूढ़ा, सुख का पंछी, घर बोला, हरे हरे पत्तों का घर, आवाज का सहारा और पहाड़ पर कटहल संगृहीत हैं। ‘माणस गंध’ कहानी श्रमिक वर्ग के शोषण को यथार्थ के धरातल पर प्रस्तुत करती है। स्लेट की खानों में श्रमिक वर्ग के संघर्षपूर्ण जीवन के यथार्थ को भीखम, घसीटा जैसे ग्रामीण मजदूरों के संदर्भ में निरूपित किया है। ग्रामीण मजदूरों का शोषण ‘टोपी वाला’ जैसे पूंजीपति करते हैं। स्लेट की खानों में जोखिम भरा काम करते हुए ग्रामीण मजदूर दब कर मर जाते हैं और उनकी दुखद नियति खानों में दबकर रह जाती है। मीडिया पत्रकार सभी पूंजीवादी व्यवस्थाओं में बिक जाते हैं। शोषण की मार झेलते भीखम जैसे कर्मठ सरल लोग उत्पीडऩ और शोषण में पिसते रहने के लिए विवश होते हैं। इसके साथ कहानीकार ने पहाड़ों में पर्यावरण को क्षति पहुंचाने और पहाड़ों के सौंदर्य को विकृत करने वाले लोगों के यथार्थ को भी सामने लाया है। ‘खतरनाक लोग’ में राजनीतिक लोगों की स्वार्थपरता और बेरोजगार युवाओं को झांसा देकर अपने राजनीतिक लक्ष्यों की सिद्धि के लिए युवाओं के शोषण को व्यंग्यात्मक भाषा में चित्रित किया है। ‘सेहरा नहीं देखते’ में बालक के पिता के पुनर्विवाह के समय सामाजिक रूढिय़ों के कारण पिता के सेहरे को पुत्र द्वारा न देखने के कारण विवाह में उपस्थित लोगों के मध्य बालक सबकी उपेक्षा का शिकार होता है। बिट्टू की चरित्र सृष्टि के माध्यम से बालक की बाल सुलभ उत्सुकता, हृदय की सरलता और निश्चलता का चित्रण है। ‘बार में बूढ़ा’ में एक सेवानिवृत्त पिता की नियति का चित्रण है जो अपने पुत्र और पुत्रवधू की उपेक्षा का शिकार होता है। आत्मीयता के अभाव में वह परिवार में एकाकी जीवन की यातना में शराब के नशे में डूबा रहकर वृद्धावस्था को गुजारता है। कहानीकार ने माता-पिता के प्रति संतति के उपेक्षापूर्ण व्यवहार से उत्पन्न वृद्धों की दुर्दशा का चित्रण किया है।

‘सुख का पंछी’ में आर्थिक अभाव से टूटे एक मध्यवर्गीय परिवार का चित्रण है जिसमें मां और दो बेटों के मध्य परस्पर संबंध के महीन धागों से कथा तंतु निर्मित किए गए हैं। आर्थिक अभावों से जूझते इस परिवार में दो भाइयों की परस्पर आत्मीयता और भिन्न किस्म की दूरी भी बनी रहती है। मां कहानी की केंद्रीय चरित्र है। मां के ह्रदय में दोनों बेटों के प्रति वात्सल्य भाव समान रूप में विद्यमान है, परंतु मन की कहीं गहरी परतों में बड़े बेटे के प्रति अतिरिक्त लगाव को सूक्ष्मता से अभिव्यंजित किया है। कथानायक के भाई और मां का चित्रण प्रभावी रूप में हुआ है। मां की भांति भाई भी अपने बड़े होने के दायित्व का अंत तक निर्वहन करता है। कथा नायक न तो अपने भाई का ही सहायक हो पाता है और न ही उसकी मृत्यु के अनंतर मां का सहायक ही। मां के निधन पर भी वह समय पर नहीं पहुंच पाता है। कथा नायक को बाद में यह अपराध बोध पीड़ा देता रहता है। इस पश्चाताप को कहानीकार ने संवेदनशीलता से उभारा है। ‘हरे हरे पत्तों का घर’ में भी मां की स्मृतियां और बेटे का अपना बचपन है। मां के चतुर्थ वार्षिक श्राद्ध के समय मां से संबद्ध अतीत की स्मृतियां और वर्तमान में लोगों की प्रतिक्रियाओं और आहत करने वाले व्यंग्य बाणों का चित्रण है जिससे कथानायक आहत होता है। ‘घर बोला’ और ‘पहाड़ पर कटहल’ दोनों कहानियों में ग्रामीण परिवेश में संयुक्त परिवार में जीवन यापन करते मां-बाप और बच्चों की एक साथ रहने की स्मृतियां हैं। दोनों कहानियों में नैरेटर अतीत की स्मृतियों को पुनर्जीवित करता है। ग्रामीण परिवेश, माटी की सोंधी गंध, मां का रसोई में रहना, पिता का हुक्का गुडग़ुड़ाना, मिट्टी के घरों में रहना, आंगन और गलियों की खेलकूद आदि कहानियों के अवयव बनकर उभरे हैं। नैरेटर बार-बार उन स्मृतियों के लोक में डूबता है। मां-बाप के अवसान के साथ ही घर खंडहर बनकर रह जाते हैं। ‘आवाज का सहारा’ में बालक के नीरव पहाड़ी रास्तों में आवाज के सहारे चलने का चित्रण है। एकाकी रास्तों में मां की आवाज बालक के लिए किस तरह निर्भीकता से रास्ता पर करवा देती है, उस अनुभव को कहानीकार ने व्यंजित किया है।

‘संता पुराण’ (1998) में सुदर्शन वशिष्ठ की तेरह कहानियां- शिमले वाला संता, गंध का दरिया, हंसना मना है, पत्तरझाड़, चट्टानों के बीच, खुश्क पत्ते, भूत वासा, सर्दियों में परछाई के पीछे, पहाड़ देखता है, कोहरा, खिन्नू और सुरंग संगृहीत हैं। सुदर्शन वशिष्ठ ने ‘संता पुराण’ की कहानियों में एक नवीन प्रयोग किया है। सभी कहानियों में संता एक चरित्र के रूप में विभिन्न कथा सूत्रों से संबद्ध होकर विकसित हुआ है। कहानीकार ने संता को एक प्रतीकात्मक चरित्र के रूप में उभारा है जिसमें जीवन का वैविध्य, आजीवन संघर्ष और जीवन के उतार-चढ़ाव हैं। सुदर्शन वशिष्ठ भूमिका में संता की चरित्र सृष्टि की पीठिका में अपने मंतव्य को स्पष्ट करते हुए कहते हैं- ‘संता किसी व्यक्ति या वर्ग का नाम नहीं है, वह प्रतीक है उस छटपटाहट का जो हर व्यक्ति झेलता है अपने भीतर अपने बाहर। यह जरूरी नहीं है कि वह रिक्शा पुलर या मजदूर ही हो। वह संता न होकर संतराम, संतराम शर्मा या फिर शर्मा, वर्मा या एसआर भी हो सकता है। वह एक बाबू, एक अफसर भी हो सकता है। वह मैं या आप भी हो सकते हैं। यदि वह मजदूर न होता, एक बाबू होता, तब भी मनोस्थितियां वही रहती, मात्र स्थितियां बदलती।’ प्रस्तुत संग्रह की कहानियों में संता और भूरी की कथा विविध संदर्भ में उभरती है। ये कहानियां पृथक -पृथक अस्तित्व रखते हुए भी परस्पर अंत:ग्रथित सी प्रतीत होती हैं और औपन्यासिक फलक के निकट पहुंचती हंै।

संता, भूरी, बंतो और उनके अनेक साथियों से संबद्ध कथा सूत्रों के माध्यम से संता की समाज में उपेक्षित स्थिति और उसके जीवन के संघर्ष और शोषण का निरूपण करते हुए कहानीकार ने समाज के उपेक्षित श्रमिक वर्ग की गाथा प्रस्तुत की है। ‘शिमले वाला संता’ में संता प्रमुख चरित्र है। उसके माध्यम से कहानीकार ने औपनिवेशिक शासन काल में शिमला में अंग्रेजों को रिक्शा में बिठाकर स्वयं मजदूर वर्ग द्वारा उन्हें शहर में इधर-उधर घुमाने के चलन को सामने लाया है। रेल लाइनों के विस्तार से संता, मस्तराम जैसे अनेक मजदूर रेल पटरियों के नीचे बने तीन-चार फीट के घरौंदों में, सीलन भरी कोठरियों में रात गुजारते थे। शहर में रहने वाला संता गांव में बंतो से स्वयं ही उसकी बड़ी बेटी भूरी का हाथ मांगता है और हजार रुपए देकर भूरी के साथ परिणय सूत्र में बंध कर शिमला शहर में आता है। पांच सौ अपनी कमाई से तथा पांच सौ मजदूर साथी प्रताप से लेकर बंतो को देता है। सीलन भरी कोठरी में संता की सुंदर पत्नी घुटन भरा समय गुजारती है। शराब में धुत प्रताप अपने उधार दिए हुए पैसे के कारण संता की पत्नी को वासना का शिकार बनाता है।                   -(शेष भाग अगले अंक में)

पुस्तक समीक्षा : पर्यटक स्थलों के साक्षात दर्शन कराता अंक

कला, संस्कृति और पर्यटन को समर्पित पत्रिका ‘प्रणाम पर्यटन’ का जुलाई-सितंबर 2023 अंक प्रकाशित हुआ है। यह अंक ग्रामीण पर्यटन को समर्पित है तथा इस क्षेत्र में संभावनाओं को खंगालता है। पत्रिका के संपादक प्रदीप श्रीवास्तव अपने आलेख ‘26 साल का युवा कन्नौज’ में इस शहर के इतिहास, संस्कृति व पर्यटक स्थलों के दर्शन करवाते हैं। संतोष श्रीवास्तव का आलेख ‘कला संग्रहालय का देश रूस’ पाठकों का ध्यान आकर्षित करता है। ‘अजयगढ़ का जयदुर्ग ’ में सुधा रानी तैलंग इतिहास को खंगालती दिखती हैं। इस पत्रिका का लक्ष्य है पर्यटक स्थलों के बारे में पहले पाठकों को पढ़ाना, और फिर सैर करवाना।

ऐसे काफी पाठक हैं जो इस पत्रिका से जानकारी लेने के बाद पर्यटक स्थलों का भ्रमण करते हैं। नीरज नीर का आलेख ‘चलें, प्रकृति की गोद में बसे : अजोध्या हिल्स’ भी कई तरह की जानकारियां पाठकों को उपलब्ध करवाता है। डा. प्रमिला वर्मा ‘भूटान : वैली ऑफ स्नो’ में बर्फ की इस घाटी के साक्षात दर्शन करवाती हैं। भूटान पर ही अंजना मनोज गर्ग का आलेख इस देश का विहंगम परिदृश्य पेश करता है। सुखमिना अग्रवाल ‘भूमिजा’ ‘एक अविस्मरणीय हवाई यात्रा’ के जरिए रोचक किस्सा पेश करती हैं। प्रदीप श्रीवास्तव ने एक अन्य आलेख में कुतुबमीनार का कलात्मक सौंदर्य उकेरा है। एम. जोशी हिमानी ने ‘अलर्थोप हाउस : जहां चिरनिद्रा में सोई है प्रिंसेस डायना’ के जरिए रोचक चर्चा पेश की है। प्रकृति प्रेमी अमित शर्मा पर डा. ओमप्रकाश कादयान का आलेख भी काफी रोचक है। ऊषा किरण शुक्ल ने गुप्तार घाट पर कलम चलाई है जहां प्रभु श्रीराम ने समाधि ली थी। पूजा गुप्ता की कहानी ‘दायरे से आजाद’ भी पाठकों को जरूर पसंद आएगी। इसके अलावा साहित्य के रसिया पाठकों के लिए इस अंक में कुछ कविताएं भी संकलित की गई हैं। अंजुल, डा. ऋतु शर्मा, चेतना प्रकाश चितेरी, जयप्रकाश नागला, माला वर्मा, डा. मंजु गुप्ता, अरुण कुमार त्रिपाठी, बृज राज किशोर, महेंद्र कुमार वर्मा, नरेश अग्रवाल, नवेंदु कुमार वर्मा, शिव डोयले विदिशा तथा कुछ अन्य कवियों ने विविध भावों से सुसज्जित कविताएं पाठकों के लिए लिखी हैं। कुल मिलाकर कह सकते हैं कि यह अंक पाठकों के लिए कई तरह की सामग्री उपलब्ध करवाता है। -फीचर डेस्क

चिंतन : परसाई की प्रासंगिकता

डा. देवेंद्र गुप्ता
मो.-9418473675

हिंदी हास्य व्यंग्य का साहित्य बहुत विशाल है। आज भारत की वर्तमान राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक, साहित्यिक, शैक्षिक और सामाजिक परिस्थितियां व्यंग्य के लिए निरंतर सार्थक भूमिका का निर्माण कर रही हैं। आजादी के बाद व्यंग्य की जो धारा श्रीलाल शुक्ल, परसाई, शरद जोशी और रविन्द्र नाथ त्यागी आदि ने प्रवाहित की थी, वह आज एक सशक्त एवं सक्रिय भूमिका के साथ रूप ग्रहण करते हुए साहित्यिक विधा के पद पर प्रतिष्ठापित हो गई है। आज भी व्यंग्यकारों की नई और पुरानी पीढ़ी एक साथ अपनी रचनाओं के माध्यम से हिंदी साहित्य को निरंतर समृद्ध कर रही हैं। स्वातंत्र्योत्तर हिंदी व्यंग्य की चार पीढिय़ां रचनाकर्म में संलग्न दिखाई देती हैं। हिंदी व्यंग्य की प्रथम पीढ़ी के हरिशंकर परसाई, शरद जोशी, श्रीलाल शुक्ल, रविन्द्रनाथ त्यागी और मनोहर श्याम जोशी ने हिंदी व्यंग्य साहित्य को स्वरूप गढऩे तथा सशक्त आधार देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। व्यंग्य की दूसरी पीढ़ी के नरेंद्र कोहली, अशोक शुक्ल, गोपाल चतुर्वेदी, प्रदीप पंत तथा शेरजंग गर्ग आदि अनेक व्यंग्य लेखकों ने व्यंग्य की भूमिका को विस्तार दिया। इसके पश्चात व्यंग्य की तीसरी पीढ़ी आती है।

वह आजादी के बाद की पैदाईश है और हिंदी व्यंग्य के क्षेत्र में पूरी तरह से सक्रिय है। इस पीढ़ी में ज्ञान चतुर्वेदी, प्रेम जनमेजय, विष्णु नगर, सूर्यबाला, हरीश नवल, अलका पाठक, विनोदशंकर शुक्ल, संतोष खरे, अरविन्द तिवारी, महावीर अग्रवाल आदि प्रमुख हैं। हिंदी व्यंग्य की चौथी पीढ़ी युवा है और नई सोच के साथ व्यंग्य रचनाओं का सृजन कर रही है। अधिकांशत: यह पीढ़ी स्तम्भ लेखन के मकडज़ाल में फंसी हुई है और अखबारी व्यंग्यात्मक टिप्पणियों को ही व्यंग्य रचना होने का भ्रम पाल बैठी है। बावजूद इसके यशवंत व्यास, गिरीश पंकज, विनोद साव, सुभाष चंदर और अजय अनुरागी, आलोक पुराणिक, शरद उपाध्याय, रामविलास जांगिड़, अशोक गौतम आदि उपन्यास, आलोचना, निबंध व स्तम्भ लेखन के क्षेत्र में गंभीर व्यंग्य के समर्थक हैं। समाचारपत्रों में स्तम्भ लेखन से साहित्यिक विधा में प्रवेश तक की यात्रा में यह स्थान व्यंग्य को आलोचकों से सायास नहीं मिला है, अपितु यह स्थान उसे पाठकों ने स्वयं दिया है। व्यंग्यकारों के सतत लेखन में वृद्धि आलोचकों को अब यह कहने का अवसर दे रही है कि व्यंग्य अब शूद्र नहीं रह गया है, अपितु ब्रह्मनत्व को प्राप्त हो गया है। वास्तव में अंग्रेजी के ‘स्टायर’ के अर्थ में व्यंग्य की विकासमान और नियमित धारा हिंदी साहित्य में भारतेंदु युग से शुरू होती है। अंतर केवल इतना है कि जहां प्राचीन तथा मध्यकालीन स्टायर प्राय पद्यबद्ध है, आधुनिक हिंदी व्यंग्य अपने कुछ आरंभिक पद्य प्रयोगों और इधर निराला, नागार्जुन, रघुवीर सहाय जैसे कुछ समर्थ कवियों के बावजूद अधिकाधिक गद्य की ओर प्रवृत होता गया है। ऐसा संभवत: मंचीय कविता के चलते हुआ जिसमें फूहड़ हास्य और चुटकुला प्रवृति के चलते व्यंग्य काव्य/कविता हाशिये पर चली गई। हिंदी साहित्य में जैसे परसाई या शुक्ल जैसे लेखकों ने गद्य में व्यंग्य को स्थापित किया, वैसा कविता में देखने को नहीं मिला, जबकि व्यंग्य लेखन के लिए जो परिस्थितियां कविता के लिए थीं, वही गद्य के लिए भी उपलब्ध थीं। यह हरिशंकर परसाई की चेतना सम्पन्न दृष्टि का ही परिणाम था कि हिंदी गद्य में सार्थक व्यंग्य लेखन का आरम्भ हुआ और व्यंग्य की स्वतंत्र सत्ता स्थापित होने की दिशा में व्यंग्य रचनाओं को सशक्त आधार मिलना आरम्भ हुआ। हरिशंकर परसाई के लेखन ने एक पूरे युग को प्रभावित किया और हिंदी लेखन के परिदृश्य को बदल कर रख दिया।

अब तो हिंदी साहित्य में, व्यंग्य साहित्येतिहास को परसाई पूर्व युग, परसाई युग और परसाई उत्तर युग के रूप में विभाजित करके व्यंग्य लेखन का अध्ययन किया जाने लगा है। इस काल विभाजन से व्यंग्य आलोचकों को यह भय भी सताता रहा है कि कहीं ऐसा न हो कि श्रीलाल शुक्ल और शरद जोशी, त्यागी आदि कमतर सिद्ध हो जाएं, हालांकि उनका व्यंग्य वैशिष्ट्य कमतर नहीं आंका जा सकता है। मुद्राराक्षस इस विषय को लेकर स्पष्ट हैं। वे लिखते हैं, ‘मैं एक बार यह लिख चूका हूं कि परसाई व्यंग्य के मानक हैं। बहुत से लोग सोच सकते हंै कि क्लासिकी संवेदना वाले श्रीलाल शुक्ल, अत्यंत सावधान रेखाओं वाले टिप्पणीकार और पाजी प्रयोगों में समर्थ मनोहरश्याम जोशी के बावजूद परसाई डेढ़ इंच ऊपर क्यों दीखते हैं। यह आश्चर्य की बात है कि वह व्यंग्य लिखते-लिखते कभी-कभी व्याख्यात्मक निबंध लिख जाते हैं। और वह भी हम स्वीकार करते हैं। यह इसलिए होता है कि वे हाईवे या राजमार्ग नहीं हैं। गांव की एक पगडंडी है जो असमतल भूगोल से विद्रोह नहीं करती, बल्कि उसे प्यार करती है। …परसाई की पहली कोशिश आलोचना के बावजूद अपने समाज से गहरे लगाव की होती है और यही बात परसाई को औरों से अलग करती है। ‘सदाचार का तावीज’ परसाई की उन रचनाओं से है जिन्होंने जन परिहास और लोक आमोद का भी स्थान पाया है। परसाई की कहानी ‘सदाचार का तावीज’ में लेखक परसाई स्वयं व्यक्ति नहीं, एक पूरा समाज है। इसीलिए उनकी ऐसी बहुत सी कहानियां जन परिहास का दर्जा पा सकी हैं।’ प्रेम जनमेजय ने हास-परिहास और गंभीर व्यंग्य को अलगाते हुए आज इस बात से युवा लेखकों को आगाह करते हुए कहा कि, ‘व्यंग्य को भी दिल बहलाव के रूप में अधिक प्रस्तुत किया जा रहा है। ऐसे में आवश्यक है कि परसाई जैसे व्यक्तित्व को बार-बार इस समय में साथ रखा जाए। उनके चिंतन को आज के परिप्रेक्ष्य में देखा जाए। परसाई के माध्यम से हम अपने आज को समझ पाएंगे।’ यह वह टिप्पणी है जो वर्तमान समय में भी परसाई के व्यंग्य चिंतन, उनके महत्त्व और प्रासंगिकता को रेखांकित करती है। परसाई के सम्बन्ध में ऐसी अन्य स्वीकारोक्तियां परसाई की व्यंग्य में ठसक को न केवल बरकरार रखती हैं, अपितु आधुनिक समय में राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों में उनके व्यंग्य लेखन की उपादेयता को भी स्थापित करते हुए उन्हें व्यंग्य का मसीहा बनाती हैं।                                                                                 -(शेष भाग अगले अंक में)


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