हिमाचली हिंदी कहानी : विकास यात्रा 28

By: Oct 21st, 2023 7:48 pm

कहानी के प्रभाव क्षेत्र में उभरा हिमाचली सृजन, अब अपनी प्रासंगिकता और पुरुषार्थ के साथ परिवेश का प्रतिनिधित्व भी कर रहा है। गद्य साहित्य के गंतव्य को छूते संदर्भों में हिमाचल के घटनाक्रम, जीवन शैली, सामाजिक विडंबनाओं, चीखते पहाड़ों का दर्द, विस्थापन की पीड़ा और आर्थिक अपराधों को समेटती कहानी की कथावस्तु, चरित्र चित्रण, भाषा शैली व उद्देश्यों की समीक्षा करती यह शृंखला। कहानी का यह संसार कल्पना-परिकल्पना और यथार्थ की मिट्टी को विविध सांचों में कितना ढाल पाया। कहानी की यात्रा के मार्मिक, भावनात्मक और कलात्मक पहलुओं पर एक विस्तृत दृष्टि डाल रहे हैं वरिष्ठ समीक्षक एवं मर्मज्ञ साहित्यकार डा. हेमराज कौशिक, आरंभिक विवेचन के साथ किस्त-28

हिमाचल का कहानी संसार

विमर्श के बिंदु

1. हिमाचल की कहानी यात्रा
2. कहानीकारों का विश्लेषण
3. कहानी की जगह, जिरह और परिवेश
4. राष्ट्रीय स्तर पर हिमाचली कहानी की गूंज
5. हिमाचल के आलोचना पक्ष में कहानी
6. हिमाचल के कहानीकारों का बौद्धिक, सांस्कृतिक, भौगोलिक व राजनीतिक पक्ष

लेखक का परिचय

नाम : डॉ. हेमराज कौशिक, जन्म : 9 दिसम्बर 1949 को जिला सोलन के अंतर्गत अर्की तहसील के बातल गांव में। पिता का नाम : श्री जयानंद कौशिक, माता का नाम : श्रीमती चिन्तामणि कौशिक, शिक्षा : एमए, एमएड, एम. फिल, पीएचडी (हिन्दी), व्यवसाय : हिमाचल प्रदेश शिक्षा विभाग में सैंतीस वर्षों तक हिन्दी प्राध्यापक का कार्य करते हुए प्रधानाचार्य के रूप में सेवानिवृत्त। कुल प्रकाशित पुस्तकें : 17, मुख्य पुस्तकें : अमृतलाल नागर के उपन्यास, मूल्य और हिंदी उपन्यास, कथा की दुनिया : एक प्रत्यवलोकन, साहित्य सेवी राजनेता शांता कुमार, साहित्य के आस्वाद, क्रांतिकारी साहित्यकार यशपाल और कथा समय की गतिशीलता। पुरस्कार एवं सम्मान : 1. वर्ष 1991 के लिए राष्ट्रीय शिक्षक पुरस्कार से भारत के राष्ट्रपति द्वारा अलंकृत, 2. हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा राष्ट्रभाषा हिन्दी की सतत उत्कृष्ट एवं समर्पित सेवा के लिए सरस्वती सम्मान से 1998 में राष्ट्रभाषा सम्मेलन में अलंकृत, 3. आथर्ज गिल्ड ऑफ हिमाचल (पंजी.) द्वारा साहित्य सृजन में योगदान के लिए 2011 का लेखक सम्मान, भुट्टी वीवर्ज कोआप्रेटिव सोसाइटी लिमिटिड द्वारा वर्ष 2018 के वेदराम राष्ट्रीय पुरस्कार से अलंकृत, कला, भाषा, संस्कृति और समाज के लिए समर्पित संस्था नवल प्रयास द्वारा धर्म प्रकाश साहित्य रतन सम्मान 2018 से अलंकृत, मानव कल्याण समिति अर्की, जिला सोलन, हिमाचल प्रदेश द्वारा साहित्य के लिए अनन्य योगदान के लिए सम्मान, प्रगतिशील साहित्यिक पत्रिका इरावती के द्वितीय इरावती 2018 के सम्मान से अलंकृत, पल्लव काव्य मंच, रामपुर, उत्तर प्रदेश का वर्ष 2019 के लिए ‘डॉ. रामविलास शर्मा’ राष्ट्रीय सम्मान, दिव्य हिमाचल के प्रतिष्ठित सम्मान ‘हिमाचल एक्सीलेंस अवार्ड’ ‘सर्वश्रेष्ठ साहित्यकार’ सम्मान 2019-2020 के लिए अलंकृत और हिमाचल प्रदेश सिरमौर कला संगम द्वारा डॉ. परमार पुरस्कार।

डा. हेमराज कौशिक
अतिथि संपादक
मो.-9418010646

-(पिछले अंक का शेष भाग)
‘मंगलाचारी’ दलित विमर्श की कहानी है। संदर्भित कहानी में शहनाई वादक फुहणू केंद्रीय चरित्र है। कहानीकार ने इस चरित्र के संदर्भ में देवतंत्र और देव संस्कृति की आंतरिक संरचना और विसंगतियों को उसके जीवन संघर्ष के माध्यम से निरूपित किया है। देवतंत्र और देव संस्कृति के किसी भी अनुष्ठान और उत्सव की शुरुआत फुहणू के शहनाई वादन से संपन्न होती है, परंतु इन्हीं दलित बजंतरियों को मंदिर प्रवेश, यहां तक कि देवरथ तक का स्पर्श निषेध माना जाता है। देवतंत्र से संबद्ध वर्चस्ववादी शक्तियां देवता का भय, देवदोष आदि बताकर उन्हें अस्पृश्यता का दंश झेलने के लिए विवश करती हैं। शहनाई वादक फुहणू जाति विधान की विसंगतियों और देव संस्कृति के उस विधान और बाह्याडंबर को चुनौती देता है। ‘कोलतार’ संग्रह की शीर्षक कहानी है। प्रस्तुत कहानी में यह प्रतिपादित किया है कि स्वातंत्र्योत्तर भारत के स्वार्थी राजनेताओं की सत्ता लोलुपता के आगमन से साधारण अभावग्रस्त जन की पीड़ा की चिंता के प्रति उनकी असंवेदनशीलता यहां तक बढ़ गई कि उनके दुख-दर्द सुनने का भी अवसर उनके पास नहीं रहा। कहानी का प्रमुख चरित्र डाक बंगले में रुके मंत्री से मिलकर अपने शोषण की व्यथा को बताना चाहता है।

वह अपने भ्रष्ट अधिकारी द्वारा बिगाड़े गए केस संबंधी फाइल दिखाकर न्याय की याचना के लिए मिलना चाहता है। प्रात: से सायं तक प्रतीक्षारत रहता है, जबकि गली के एक हलवाई जैसे अवसरवादी लोग मंत्री से मिलते रहे। परंतु मंत्री से वह नहीं मिल पाता। वह अपने मन की पीड़ा और आक्रोश को कोलतार पर रंडीबाज शब्द लिखकर व्यंजित करता है। यह शब्द लिखने के बाद उसे ऐसा लगा कि उसने अपनी बात मंत्री महोदय से खुलकर कह दी है। ‘मिलते जुलते चेहरे’ शीर्षक कहानी हमारी न्याय व्यवस्था के यथार्थ को सामने लाती है जिसमें न्याय प्राप्ति के लिए व्यक्ति को वर्षों तक प्रतीक्षा करनी पड़ती है। संदर्भित कहानी में पति के अन्याय की शिकार पत्नी को बारह वर्षों तक भी न्याय नहीं मिल पाता। नैरेटर को जज का चेहरा स्त्री के पति से मिलता-जुलता प्रतीत होता है। एक ओर न्याय की याचना करने वाले निराश लोगों के चेहरे हैं, वहीं दूसरी ओर जज, देवता और उनके संबंधियों के मिलते-जुलते चेहरे प्रतीत होते हैं। कहानीकार ने अन्याय की शिकार स्त्री की द्वंद्वग्रस्त मन:स्थिति को रूपायित किया है।

‘सतखसमी’ मध्यवर्गीय जीवन की झांकी प्रस्तुत करती है। संयुक्त परिवार के विघटन के साथ-साथ संबंधों में किस प्रकार दूरी और संवेदनशून्यता और कड़वाहट उत्पन्न होती है, उसका चित्रण है। इसके साथ ही कहानीकार ने यह भी निरूपित किया है कि पहाड़ी स्त्री के अंतर्मन में ममता का स्रोत किस प्रकार प्रस्फुटित होता है। कहानी में जेठ के सभी गुनाहों को विस्मृत कर उसके अनाथ बच्चों को संभालने का दायित्व वह अपने ऊपर लेती है। संयुक्त परिवार के मधु-कटु अनुभवों के मध्य मानवीय मूल्य दुर्घटनाओं की आंधी में किस तरह अवतरित होते हैं, उन्हें यह कहानी जीवंतता से मूर्तिमान करती है। ‘रोशनी का आरा’ व ‘स्वयंहारा’ आदि कहानियां स्त्री-पुरुष संबंधों की जटिलताओं और परिवर्तित मूल्य दृष्टि की परिचायक हैं। ‘जनाना’, ‘बकवास’, ‘टूटे पंखों वाली जिंदगी’ व ‘साया’ आदि कहानियां मन की द्वंद्वात्मक और तनावग्रस्त मन:स्थिति को मनोवैज्ञानिक धरातल पर निरूपित करती हैं। ‘टूटा हुआ शीशा’ बाजार तंत्र पर आधारित कहानी है। ‘खून का रिश्ता’ में कहानीकार ने स्थापित किया है कि धन की शक्ति निर्धन को उपेक्षित और अपमानित करती है। कहानी में विवाह के अवसर पर सगा मामा धन के अभाव के कारण परिवार और समाज में किस तरह उपेक्षित होता है, उसे लाल बादछा जैसे चरित्र के माध्यम से व्यंजित किया है।
एसआर हरनोट का ‘पीठ पर पहाड़’ सन् 1992 में प्रकाशित कहानी संग्रह है। प्रस्तुत संग्रह में शुरुआत, महाबंद, देवद्रोह, वोट, भारी पड़ते लोग, रोटी जैसा चांद, अपने पांव पर, सोफा सेट, कलछनी और अपने-अपने घर कहानियां संगृहीत हैं। हरनोट की संदर्भित संग्रह की कहानियां प्रतिपाद्य की दृष्टि से वैविध्यपूर्ण और बहुआयामी हैं। चरित्र सृष्टि की दृष्टि से देखें तो उनमें ग्रामीण चरित्र शोषण और उत्पीडऩ को सहते हुए अंतत: शोषण के प्रतिकार के लिए उठ खड़े होते हैं और शोषक को अचंभित कर देते हैं। भाषा की सरलता, सहजता के साथ व्यंग्य की धार अंत तक पहुंच कर आघात करती है। संग्रह की पहली कहानी ‘शुरुआत’ सामाजिक संबंधों की पड़ताल करती हुई राजनीतिक क्षेत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार को अनावृत करती है। पूरन और उसके पुत्र कमलू के माध्यम से इसे व्यंजित किया है। पूरन ने राजनीति और प्रशासन के क्षेत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार को गेहूं के वितरण के संदर्भ में रूपायित किया है। राजनीतिक क्षेत्र में व्याप्त इस भ्रष्टाचार से आम आदमी को शिकार होते देखकर पूरन नितांत दुखी होता है, परंतु प्रतिकार नहीं कर पाता। नई पीढ़ी के उसके बेटे कमलू में इस अन्याय के विरुद्ध आक्रोश उत्पन्न होता है। वह मंत्री को पत्थर मार कर भाग जाता है। नई पीढ़ी के विद्रोह को लेखक ने कमलू के माध्यम से व्यंजित किया है।

‘महाबंद’ में कहानीकार बंद जैसी घोषणाओं से जनता की असुविधाओं और कठिनाइयों की ओर ध्यान आकर्षित करता है। ‘देवद्रोह’ कहानी धर्म की विकृतियों, अंधश्रद्धाओं और बाह्याडंबरों को परत दर परत अनावृत करती है। भारतीय समाज अंधश्रद्धाओं और धर्म की विकृतियों को समझते हुए भी उससे मुक्त नहीं हो पता। इस विडंबना को कहानीकार ने प्रस्तुत कहानी में निरूपित किया है। ‘वोट’ कहानी संबंधों के ताने-बाने में मानवीय मूल्यों के विघटन को रेखांकित करती है। ‘भारी पड़ते लोग’ प्रशासन तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार और असहाय जन की पीड़ा को मूर्तिमान करती है। ‘रोटी जैसा चांद’ में एक वृद्धा की आर्थिक विपन्नता से उत्पन्न असहाय अवस्था का निरूपण है। चांद जो सौंदर्य का प्रतीक रहा है, उसकी कहानीकार ने भिन्न रूप में प्रस्तुति की है। चांद निर्धन अभावग्रस्त जन की पीड़ा को कम नहीं कर सकता। वह दूर से आकर्षित ही कर सकता है, परंतु वृद्धा को चांद केवल मक्की की रोटी जैसा प्रतीत होता है। इसलिए कहानी के उत्तरार्ध में चांद बादलों की ओट में चला जाता है। ‘सोफा सेट’ में मध्यवर्गीय परिवारों की प्रदर्शन वृत्ति और उसकी पक्षधरता को खूब राम चाचा और पंडित के संदर्भ में चित्रित किया है। दहेज की विभीषिका से उत्पन्न स्थितियां किरपा की भावनाओं की व्यंजना के माध्यम से सामने लाई हैं। दहेज प्रथा की विभीषिका से उत्पन्न परिस्थितियों को कहानी निरूपित करती है। ‘कलछनी’ में मुनिया की चरित्र सृष्टि के माध्यम से ऐसी युवती की नियति की अभिव्यंजना की है जो पारिवारिक परिस्थितियों के कारण परिणय सूत्र में नहीं बंध पाती और अविवाहित अवस्था में दिग्भ्रमित लोगों की कामुक दृष्टि का सामना करती है। मद्य व्यसनी वृद्ध पिता बेटी की बढ़ती उम्र की चिंता न करके शराब के नशे में डूबा रहता है। मुनिया सजग होते हुए भी थानेदार के षड्यंत्र की शिकार होती है। थानेदार पिता को फंसा कर उसका शील भंग करना चाहता है, परंतु वह स्वयं थाने में जाकर थानेदार के कुकृत्य सामने लाते हुए प्रतिकार स्वरूप उसके मुंह पर थूक देती है। कहानीकार हरनोट मुनिया जैसी नारियों की सृष्टि करके युगानुरूप नारी चेतना के विकास को अंकित करते हैं। ‘अपने-अपने घर’ भी दलित जीवन के उपेक्षित जीवन की पीड़ा को मुखरित करती है।

बद्रीसिंह भाटिया का ‘यातना शिविर’ (1992) शीर्षक से कहानी संग्रह प्रकाशित है जिसमें उनकी दस कहानियां- तबादला, रैक, टेलीफोन, उपचार, फोटो, सालगिरह एक, सालगिरह दो, यातना शिविर, अंतराल और विष वृक्ष संगृहीत हैं। बद्रीसिंह भाटिया की संदर्भित संग्रह की कहानियों में स्त्री-पुरुष संबंधों की जटिलता, भौतिक जीवन दृष्टि और नगर बोध के फलस्वरूप संबंधों का अकेलापन और रागात्मकता का अभाव और प्रेम के स्रोत सूखने की स्थितियों का निरूपण है। ‘तबादला’ में शेखर और राखी के मध्य रागात्मकता के स्रोत के सूखने की स्थितियों का निरूपण है। संबंधों के ठंडेपन में पति अपना तबादला कहीं अन्यत्र करा देता है। दाम्पत्य संबंध के बिखराब को कहानी चित्रित करती है। परंतु संबंधों में आयी ऊब के कारणों को कहानी विवृत नहीं करती है। ‘फोटो’ शीर्षक कहानी में एक ऐसे श्रमशील व्यक्ति का चित्रण है जो जीवन भर संघर्ष करते हुए भी पत्नी की छोटी-छोटी आकांक्षाओं की पूर्ति में असमर्थ रहता है। उसकी दृष्टि में पत्नी का कोई अस्तित्व ही नहीं है। यौवनावस्था में एक फोटो उतारने की चाह पर उसके रूप को लेकर भी कटाक्ष करता है। रिटायर होने के अवसर पर पेंशन के कागजों पर संयुक्त फोटो खिंचवाने के लिए पति आग्रह करता है तो पत्नी का आक्रोश लावे की भांति प्रस्फुटित होता है। कहानीकार ने पति-पत्नी के मध्य के तनाव, पत्नी के प्रति उम्र भर की विमुखता और उपेक्षा को रेखांकित किया है। ‘अंतराल’ कहानी में भी प्रकाश और पार्वती का दांपत्य जीवन है। उनका दांपत्य संबंध उनके प्रेम की परिणति है, परंतु समय के अंतराल के बाद उस प्रेम में वह उत्कटता नहीं है। पत्नी का शहर से गांव में स्थानांतरण होने पर पत्नी के बार-बार आग्रह पर भी पति उस ओर ध्यान नहीं देता। अंतत: गांव के स्कूल में शिक्षिका बनकर वहां के परिवेश को सुधारने का भरसक प्रयत्न करती है, परंतु गांव की ओछी राजनीति, प्रधान का हस्तक्षेप उसकी ऊर्जा को क्षीण करता है। वह अंतत: निराश हो जाती है। कहानीकार ने प्रस्तुत कहानी में गांव में संयुक्त परिवार की परस्पर सहनशीलता, त्याग और ग्रामीण समाज में व्याप्त अंधविश्वासों और रूढिय़ों आदि का एक साथ रूपांकन किया है। ‘विष वृक्ष’ में रतनी और नेकचंद के दांपत्य जीवन का तनाव है। पत्नी की परपुरुष से उत्पन्न अवैध संतान को लेकर पति के आक्रोश, असहाय और अपाहिज सी स्थिति का निरूपण है। कहानी के अंत में उसका परिचित जब उसका हाल-चाल पूछता है तो वह बौखलाहट में अट्टहास कर कहता है, ‘क्या हाल, कानून तो चुप है, मैं टुकड़े-टुकड़े हो गया, मैं नंगा हो गया। मेरे आंगन में विष वृक्ष उग आया है।’ ‘टेलीफोन’ कहानी में मध्यवर्गीय परिवार का चित्रण है।

प्रस्तुत कहानी में चंद्र और उसके पति दोनों नौकरीपेशा हैं। इस कहानी में प्रमुख रूप में कामकाजी महिलाओं की समस्याओं का चित्रण है जिन्हें घर, परिवार और कार्यालय में दोहरी-तिहरी संघर्षरत जिंदगी से जूझना पड़ता है। ‘यातना शिविर’ के माध्यम से एक ऐसे त्रिकोण में उलझे व्यक्ति का चित्रण है जो शहर में रहते हुए गांव में रह रहे वृद्ध माता-पिता की देखभाल नहीं कर पाता। अपने मां-बाप को अकेले छोडक़र शहरों में आजीविका के लिए संघर्ष करते हुए उसे लगने लगता है कि ‘वह एक यातना शिविर में है जहां पत्नी, साहब और मां के साथ बिरादरी एक तफ्तीश कर्ता सिपाही है जो कोड़ों से नहीं शब्दों से उस पर वार कर रही है।’ नरेन का यह दर्द व व्यथा अकेले उसकी पीड़ा नहीं है, अपितु वह प्रत्येक नौकरीपेशा आदमी की पीड़ा है जो गांव में मां-बाप को अकेले छोडक़र परिवार सहित शहरों में रहते हैं। प्रस्तुत कहानी के संदर्भ में वृद्धों के प्रति, विशेष रूप से वृद्ध विधवा मां के प्रति परिवार के सदस्यों के दृष्टिकोण को पुत्रवधू के कथन के माध्यम से बखूबी समझा जा सकता है। उसकी दृष्टि में वृद्ध मां उसके ऊपर बोझ है।                                                   -(शेष भाग अगले अंक में)

पुस्तक समीक्षा : सेतु का एक और आकर्षक अंक

साहित्य, संस्कृति एवं कला की अद्र्धवार्षिक पत्रिका का जुलाई-दिसंबर 2023 का अंक इस बार साक्षात्कार विशेषांक है। शिमला से प्रकाशित इस पत्रिका के संपादक डा. देवेंद्र गुप्ता हैं। इस अंक में 15 लेखकों के साक्षात्कार प्रकाशित किए गए हैं, जो साहित्य से जुड़े विविध प्रश्नों का उत्तर जानने की कोशिश करते हैं। डा. देवेंद्र गुप्ता का आलेख समकालीन गद्य में साक्षात्कार की भूमिका पर प्रकाश डालता है। दूधनाथ सिंह का साक्षात्कार आजादी और लेखक की आजादी के प्रश्न को खंगालता है। विजेंद्र का मानना है कि लोक हमारी महान काव्य परंपरा की आत्मा है। अब्दुल बिस्मिल्लाह कहते हैं कि लिखने के लिए सोचना बहुत जरूरी है। रमेश उपाध्याय का मानना है कि साहित्य सबसे किया जा सकने वाला संवाद है। विश्वनाथ प्रसाद तिवारी कहते हैं कि श्रेष्ठ कविता हमेशा सहज और संप्रेष्य होती है। सूरज पालीवाल का साक्षात्कार भी पाठकों को आकर्षित करता है। वह कहते हैं कि बड़े लेखक और आलोचक के लिए विश्वसनीयता पहली शर्त है। विनोद शाही कहते हैं कि आलोचना को सबसे बड़ी चुनौती मिलती है अनुकरण की मानसिकता से। ओम प्रकाश वाल्मीकि कहते हैं कि डा. अंबेडकर दलित साहित्य के लिए सूर्य पुंज हैं। प्रेम जनमेजय कहते हैं कि व्यंग्य के औजारों की पहचान आवश्यक है। वेद प्रकाश बटुक का मानना है कि हिंदी संघर्ष और निर्माण की भाषा रही है। उषा बंदे का साक्षात्कार भी पाठकों को अपनी ओर आकर्षित करता है। उनका कहना है कि नारी विमर्श बहस से ज्यादा जागृति व संसिटाईजेशन का विषय है। डा. कैलाश आहलूवालिया का कहना है कि नॉस्टलजिया या स्मृतिवाद कविता के लिए आवश्यक है। डा. ओमप्रकाश सारस्वत कहते हैं कि मेरे लिए विचार मूल्यवान हैं, विचारधारा नहीं। सुदर्शन वशिष्ठ कहते हैं कि लेखक सत्य का अन्वेषक होता है। इसी तरह एसआर हरनोट कहते हैं कि समकालीन हिंदी कहानी में लोक पक्षधरता का सवाल अहम मुद्दा है। पत्रिका का यह अंक साहित्य की अनेक गुत्थियों को सुलझाता है।                                                                          -फीचर डेस्क

निशांत में कविता को गाथा बना कर, कुछ था जो कवि था

कविता जब जिंदगी बन जाए, मौत के आलिंगन से लौट आता है कवि। जिसने कविता को जीवन बनाया, उस कवि के लिए यह पुस्तक केवल आवरण नहीं और न ही कुछ पन्नों पर उकेरे गए शब्द हैं, बल्कि कविता का बाहुपाश है जो दिलों के समुद्र को निचोड़ रहा है। संवेदना की अंजुलि में कविता स्वयं को महासागर बना रही है। भरत प्रसाद और अरुण शीतांश के संपादन में हिमाचल के दिवंगत कवि सुरेश सेन निशांत की यादों के पन्ने समेट कर प्रत्यक्ष में, ‘लोक सत्ता के प्रहरी’ ने पुस्तक के रूप में आवाज दी है तथा परोक्ष में कहीं हिमाचली कविता के संगम पर विवेचन भी हो रहा है। पहाड़ की दृष्टि में कविता की निरंतरता को सुरेश सेन निशांत के दो संग्रह ‘वे जो लकड़हारे नहीं थे’ और ‘कुछ थे जो कवि थे’ के मार्फत इतना सशक्त करते हैं कि इस पुस्तक का हर अध्याय सोपान बन जाता है। किताब की हाजिरी में भी स्वयं निशांत कह उठते हैं, ‘कवि चाहे छोटा हो या बड़ा। अच्छा हो या बुरा, मेरे ख्याल में किसी योजना के तहत इस रास्ते पर नहीं आता। कविता के प्रति एक अनजान आकर्षण उसे इस दुनिया में ले आता है।’ यह पुस्तक सुरेश सेन निशांत के बहाने कविता के कई मुहाने खड़े कर रही है, जहां विविध कलाओं, व्याख्याओं, समीक्षाओं और शब्दावलियों से ओतप्रोत कविता की थाली में साहित्यिक व्यंजन अपनी पूर्णता में कवि होने के संतोष लिए पक रहे हैं। पकने और परिपक्व होने में अंतर यही है कि अगर आप एक परिभाषा के तहत तयशुदा उसूलों और पाठक के रसूख की कविता लिखते हैं, तो आप पके हुए हो सकते हैं, लेकिन कविता अगर पक कर कवि को प्रतिष्ठित और अमर कर दे, तो परिपक्वता का ऐसा प्रमाण है जो वर्षों बाद और सदियों के शृंगार में काम आता है।

यहां निशांत की कविता, एक शाश्वत संवाद खड़ा कर रही है, ‘बीज हूं मैं/मैं प्यार हूं/हवा हूं/पानी हूं/पुरखों की एकमात्र निशानी हूं/मैं हूं तो तुमसे दूर है/महाजन की टेढ़ी न•ार/मैं हूं तो/बची हुई है/तुम्हारे जिंदा होने की खबर।’ सुरेश सेन को समझने के लिए कई लेखक इस पुस्तक के मार्फत काम कर रहे हैं। अग्निशेखर के संवाद गूंज रहे हैं, ‘सच थी तुम्हारी चिंता। तुम दुखी थे समकालीन कविता को वाचाल और गद्य का जामा पहनाए जाने से।’ डा. अजीत प्रियदर्शी उनकी नई कविता के संदर्भ में कहते हैं, ‘सुरेश सेन सामाजिक सरोकारों के कवि हैं। उनकी कविता में पहाड़ का दर्द बोलता है।’ निशांत की कविताओं में पहाड़ के दर्द को छूते संस्मरण में खोए अस्मुरारी नंदन मिश्र, ‘बोझा उठाए पहाड़ से उतरती स्त्री’ के चित्रण में कवि के कठिनतम सफर को देखने के बावजूद, जीवन के प्रति उनकी रागात्मकता व भाषा की लयात्मकता के कायल हो जाते हैं। रचनाओं में दिवंगत कवि की संवेदना का समुद्र तलाश रही पुस्तक के कई पक्ष और कई स्पर्श हैं, जिन्हें कमोबेश हर सहयोगी लेखक ने महसूस किया है। इसलिए संग्रह की रुह में भी इक रुह कविता से सीधे हासिल हुई है। आत्मा रंजन अपनी श्रद्धांजलि में निशांत के शांत व्यक्तित्व के भीतर की उथल-पुथल पर कहते हैं, ‘वे साहित्यिक राजनीति से गहरे आहत रहे।’ मुरारी शर्मा भी गंदी गलियों की अभद्रता की ओर इशारा कर रहे हैं जहां, ‘सोशल मीडिया पर की गई अवांछित टिप्पणियों से यह भावुक और संवेदनशील कवि न केवल आहत हुआ, बल्कि अवसाद की स्थिति तक पहुंच गया।’ सुरेश सेन निशांत के भीतर कहीं तो टूटा था खामोशियों का पहाड़, जिसकी आह सुनते साहित्यकार एसआर हरनोट द्रवित हैं, ‘बस दुख यही रहा कि हिमाचल की डाहें और चुप्पियां और ज्यादा बढ़ती गईं।’ कविता की कई परिभाषाएं यह संग्रह गढ़ रहा है, जहां पहाड़ के संकोच से निकलकर निशांत कविता की गाथा बन रहे हैं।

खुद उन्हीं की कुछ कविताएं ठिठक जाती हैं, ‘अब नहीं रहा/वैसी शरारतों का मौसम/न रहे वो रस भरे आम के पेड़/न नदी रही उतनी चंचल/मुट्ठी के खेत में।’ यह संग्रह उन ढोंगी-पाखंडी कवियों को भी खोज रहा है जो कविता के भीतर किसी भी कवि की हत्या की सुपारी रख देते हैं या सोशल मीडिया की बेबाकी में सिर्फ साहित्य के सरोकारों के कातिल सिद्ध हो रहे हैं। ज्योतिष जोशी लिखते हैं, ‘निशांत की मृत्यु अचानक नहीं हुई। वे तिल-तिल कर मर रहे थे, इसलिए साहित्य, विशेषकर कविता से वे किस समाज की कल्पना कर रहे थे, जैसे मूल्यों की प्रतिष्ठा की आस उन्हें थी, उसमें से कुछ भी नहीं हो रहा था और आसपास की लेखक बिरादरी के लोग उनके स्वप्न को हास्य बनाकर उन पर व्यंग्य किया करते थे।’ पहाड़ की जख्मी देह से चस्पां सुरेश सेन की कविताएं आज भी जहां अपनी अनुगूंज लिए वक्त की पपडिय़ां उतार रही हैं, वहीं यह संग्रह, विहाग वैभव के शब्दों में वादा कर रहा है, ‘किसी कविता या कवि का मूल्यांकन इस मूल्य पर होना चाहिए कि अमुक कवि हमारी सभ्यता और भाषा-समाज के लिए कितना आवश्यक है।’ गुस्से का दीपक लिए कवि लड़ता रहा अंधेरों से, की रास्तों पर रोशनी मगर पत्थर पास से बरसे।’ निशांत सदी की काव्यात्मकता का झोंका था। वह आज भी पहाड़ के उस टीले पर बंजर हुई जमीन पर वक्त को छील कर पूछ रहा है, ‘हम किसी पहाड़ पर/बांसुरी बजाते हुए नहीं/किन्हीं खेतों में हल चलाते हुए नहीं/हम किसी ट्रक पर से/सीमेंट चढ़ाते या उतारते हुए मिलेंगे/ओस की बूंदों से नहीं/सीमेंट की धूल से/भरी पड़ी होंगी हमारी देहें/हम खांस रहे होंगे।’ -निर्मल असो

पुस्तक : लोक सत्ता के प्रहरी
संपादक : भरत प्रसाद, अरुण शीतांश
प्रकाशक : शिल्पायन पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स, दिल्ली
मूल्य : 595 रुपए

कविता : कर्ण का संताप

कर्ण भरा पड़ा था क्रोध में
जल कर मरी क्यों नहीं द्रौपदी
योग्य क्षत्रिय जब पा न सकी
जुगनू की तरह
द्रुपद खेल गया चालबाजी
पहले करे भर भर स्वागत
अब हमें अपमानित किया
क्यों न द्रौपदी को फेंक दे अग्नि में
मन की ज्वाला तो शांत हो जाए
कैसे लौटेंगे ले शर्मिन्दा मुंह
कैसे लाज बचाएंगे?
ब्राह्मण धूर्त निकले कैसे, धोखा दे गए
खाएगी भिक्षा मांग कर द्रौपदी
यही उसकी नियति है
जन्म हुआ वह भी त्रासदी में
बढ़ेगी व्याकुलता इन पांडवों की
न होगी लेकिन संतुष्टि
भटकेंगे दर दर…
उधर द्रुपद को एक झांकी भरमा गई
पहुंचे नारद जी, द्रुपद ने आस जताई
लो नारायण का नाम वही
भव सागर से पार लगाएं रूप वही जो तुम समझो
धुनर्विद्या वही जीतेगा, नारायण का आशीर्वचन पाया।
-डा. गीता डोगरा


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