हिमाचली हिंदी कहानी : विकास यात्रा : किस्त 27

By: Oct 14th, 2023 7:36 pm

कहानी के प्रभाव क्षेत्र में उभरा हिमाचली सृजन, अब अपनी प्रासंगिकता और पुरुषार्थ के साथ परिवेश का प्रतिनिधित्व भी कर रहा है। गद्य साहित्य के गंतव्य को छूते संदर्भों में हिमाचल के घटनाक्रम, जीवन शैली, सामाजिक विडंबनाओं, चीखते पहाड़ों का दर्द, विस्थापन की पीड़ा और आर्थिक अपराधों को समेटती कहानी की कथावस्तु, चरित्र चित्रण, भाषा शैली व उद्देश्यों की समीक्षा करती यह शृंखला। कहानी का यह संसार कल्पना-परिकल्पना और यथार्थ की मिट्टी को विविध सांचों में कितना ढाल पाया। कहानी की यात्रा के मार्मिक, भावनात्मक और कलात्मक पहलुओं पर एक विस्तृत दृष्टि डाल रहे हैं वरिष्ठ समीक्षक एवं मर्मज्ञ साहित्यकार डा. हेमराज कौशिक, आरंभिक विवेचन के साथ किस्त-27

हिमाचल का कहानी संसार

विमर्श के बिंदु

1. हिमाचल की कहानी यात्रा
2. कहानीकारों का विश्लेषण
3. कहानी की जगह, जिरह और परिवेश
4. राष्ट्रीय स्तर पर हिमाचली कहानी की गूंज
5. हिमाचल के आलोचना पक्ष में कहानी
6. हिमाचल के कहानीकारों का बौद्धिक, सांस्कृतिक, भौगोलिक व राजनीतिक पक्ष

लेखक का परिचय

नाम : डॉ. हेमराज कौशिक, जन्म : 9 दिसम्बर 1949 को जिला सोलन के अंतर्गत अर्की तहसील के बातल गांव में। पिता का नाम : श्री जयानंद कौशिक, माता का नाम : श्रीमती चिन्तामणि कौशिक, शिक्षा : एमए, एमएड, एम. फिल, पीएचडी (हिन्दी), व्यवसाय : हिमाचल प्रदेश शिक्षा विभाग में सैंतीस वर्षों तक हिन्दी प्राध्यापक का कार्य करते हुए प्रधानाचार्य के रूप में सेवानिवृत्त। कुल प्रकाशित पुस्तकें : 17, मुख्य पुस्तकें : अमृतलाल नागर के उपन्यास, मूल्य और हिंदी उपन्यास, कथा की दुनिया : एक प्रत्यवलोकन, साहित्य सेवी राजनेता शांता कुमार, साहित्य के आस्वाद, क्रांतिकारी साहित्यकार यशपाल और कथा समय की गतिशीलता। पुरस्कार एवं सम्मान : 1. वर्ष 1991 के लिए राष्ट्रीय शिक्षक पुरस्कार से भारत के राष्ट्रपति द्वारा अलंकृत, 2. हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा राष्ट्रभाषा हिन्दी की सतत उत्कृष्ट एवं समर्पित सेवा के लिए सरस्वती सम्मान से 1998 में राष्ट्रभाषा सम्मेलन में अलंकृत, 3. आथर्ज गिल्ड ऑफ हिमाचल (पंजी.) द्वारा साहित्य सृजन में योगदान के लिए 2011 का लेखक सम्मान, भुट्टी वीवर्ज कोआप्रेटिव सोसाइटी लिमिटिड द्वारा वर्ष 2018 के वेदराम राष्ट्रीय पुरस्कार से अलंकृत, कला, भाषा, संस्कृति और समाज के लिए समर्पित संस्था नवल प्रयास द्वारा धर्म प्रकाश साहित्य रतन सम्मान 2018 से अलंकृत, मानव कल्याण समिति अर्की, जिला सोलन, हिमाचल प्रदेश द्वारा साहित्य के लिए अनन्य योगदान के लिए सम्मान, प्रगतिशील साहित्यिक पत्रिका इरावती के द्वितीय इरावती 2018 के सम्मान से अलंकृत, पल्लव काव्य मंच, रामपुर, उत्तर प्रदेश का वर्ष 2019 के लिए ‘डॉ. रामविलास शर्मा’ राष्ट्रीय सम्मान, दिव्य हिमाचल के प्रतिष्ठित सम्मान ‘हिमाचल एक्सीलेंस अवार्ड’ ‘सर्वश्रेष्ठ साहित्यकार’ सम्मान 2019-2020 के लिए अलंकृत और हिमाचल प्रदेश सिरमौर कला संगम द्वारा डॉ. परमार पुरस्कार।

डा. हेमराज कौशिक
अतिथि संपादक
मो.-9418010646

-(पिछले अंक का शेष भाग)
अंतत: संता तीन मजदूर साथियों से पैसे लेकर प्रताप के पैसे चुकाता है। भूरी गांव में मां के पास लौटती है और संता भी लौट आता है। ‘गंध का दरिया’ में संता की यह कहानी ही आगे बढ़ती है। शिमला की तीन-चार फीट की कोठरी में रहते हुए भूरी प्रताप जैसे दरिंदों को देखती है और मस्तराम जैसे स्थिर बुद्धि श्रमिकों को भी। अंतत: भाग कर अपनी मां बंतो के पास लौटती है जहां संता भी रहने लगता है। गांव में दिनभर निठल्ला बैठा रहता है। शराब में धुत रहता है। मां उसे घर से निकालती है। अंतत: संता भूरी को शिमला ले जाता है और कमाने लगता है। बंतो यह समझती है कि पुरुष के बिना नारी का अस्तित्व अधूरा है। इसलिए वह कहती है, ‘हम औरतों के लिए मरद का सहारा चाहिए होता है। मरद चाहे मिट्टी का माधव ही हो, तब भी वह मरद होता है। मरद के बिना हम औरतें बेपरदा हो जाती हैं। यहां रह जाए तो अच्छा है, मरद तो है, चाहे बांस की तरह खोखला है। फिर भी मरद है। लंबा छम्मा। लोगों को डर तो रहेगा।’ ‘हंसना मना है’ सुदर्शन वशिष्ठ की लघु कलेवर की कहानी है जिसमें एक संघर्षशील व्यक्ति के जीवन से हंसी किस प्रकार दूर रहती है। कहानी में संता को पत्नी भूरी की हंसी भी रहस्यपूर्ण लगती है और जब वह स्वयं काम पर जाता है और लोग उसे देखकर हंसते हैं, वह कुछ अनहोनी के संबंध में सोचता है। वह सोचता है कि जीवन में जिस असहाय स्थिति से गुजर रहा है उसमें हंसना या साथ में खुशी का होना एक दुर्लभ चीज है। कहानी के उत्तरार्ध में भूरी और दूसरी स्त्रियां संता के घर लौटने पर हंसती हंै। इस प्रसंग में कहानीकार का कथन है, ‘हंसना सेहत के लिए जरूरी है न। वह खुद हंसता है, न उसने कभी किसी दूसरी किसी साथी मजदूर को हंसते हुए देखा है। न वह हंसते हैं, न कोई उनसे हंस कर बात करता है। सबके चेहरे सपाट है लकड़ी के मुखौटे की तरह। उनके लिए हंसना मना है। काम न मिले तो वैसे ही चेहरे पर शिकनें बढ़ती जाती हैं। बोझ उठा लें, सिर पर भार पडऩे से चेहरा खिंच जाता है। हंसने के लिए चेहरे पर शिकन या खिंचाव का न होना जरूरी है।’

सुदर्शन वशिष्ठ ने इस कथन के माध्यम से मजदूर वर्ग की व्यथा कथा नितांत कुशलता से सामने लाई है। ‘पहाड़ देखता है’ एक अन्य लघु कलेवर की कहानी है। इस कहानी में संता का जीवन व्यापी संघर्ष पहाड़ की भांति है। सैलानी पहाड़ देखने आते हैं परंतु यहां पहाड़ उसे देखते हैं। कहानीकार ने संता जैसे अभावग्रस्त संघर्ष करने वाले श्रमिकों की कारुणिक गाथा प्रस्तुत की है। ‘कोहरा’ मार्मिक कहानी है जिसमें नारी की दुर्दशा, पुरुष प्रधान समाज में नारी का शोषण और अमानवीयता को मनसा की चरित्र सृष्टि के माध्यम से रूपायित किया है। शराब में धुत पति उसे बहुत मारता था और एक बार उसने नशे की हालत में मनसा की ओर दराती फैंकी जिससे उसकी गाल पर लगा निशाना सदा के लिए बना रहा। पति की मृत्यु के अनंतर बेटे का भी मां के प्रति अमानवीय व्यवहार होता है। विधवा मनसा ने तीन बेटियों और एक बेटे का पालन-पोषण किया। बहनों और अपने विवाह के संपन्न होने के बाद उसका मां के प्रति न केवल व्यवहार ही परिवर्तित होता, अपितु मां पर हाथ भी उठाता है।

ऐसी स्थिति में संता बेटे का हाथ पकड़ता है। विधवा नारी की अपने ही परिवार में क्या दशा होती है, उसका मार्मिक चित्रण संदर्भित कहानी में हुआ है। पुत्र की नृशंसता से तंग आकर मां वृद्धावस्था में संता से विवाह करती है। संता की प्रतीक्षा में मनसा अतीत की स्मृतियों में डूबती है। स्मृतियों का कोहरा मनसा के स्मृति पटल पर छा जाता है। ऐसे क्षणों में वह कई वर्ष पीछे चली जाती है। इस कहानी में कहानीकार ने प्रतीकात्मक शैली में एक विधवा स्त्री की पीड़ा अभिव्यंजित की है। कहानी स्त्री जीवन के असीम संघर्ष और अंतर्मन की व्यथा कथा को मूर्तिमान करती है। ‘सुरंगें’ कहानी में कहानीकार ने यह चित्रित किया कि गांव छोडक़र शहर में रहने वाले लोग एक सुदीर्घ के अंतराल के अनंतर जब अपने गांव पुन: लौटते हैं तो उन्हें कोई नहीं पहचानता। उनकी जमीन भी कहीं बंट जाती है या गायब हो जाती है। कहानी में संता भी ऐसा ही चरित्र है जो वृद्धावस्था में गांव लौटता है तो अपने ही घर में नई पीढ़ी के बच्चे उसे मांगने वाला समझकर उसे चावल और खिचड़ी लोहड़ी के अवसर पर देते हैं। जब वह अपना परिचय देता है तो लोग उसे सिमले वाला संता कह कर परिचय देते हैं। संता अतीत की स्मृतियों में डूब कर सोचता है, ‘मन में न जाने कितनी सुरंगें होती हंै। खेत में चूहे के बिलों की तरह भीतर ही भीतर फैले। खेत में जब पानी देते हैं तो कहीं का कहीं निकल जाता है। कभी एक खेत के बीच गायब होकर तीसरे खेत में निकलता है। कहीं अचानक गुम हो जाता है तो पता नहीं चलता कहां गया। सुरंगों में पानी भर जाने पर चूहे खेतों में इधर-उधर भागते हैं, ठीक ऐसे ही मन की सुरंगों में जब यादों का पानी भरता है तो पता नहीं कहां का कहां निकल जाता है।’ इस कहानी में यह भी स्थापित किया है कि जीवन के उत्तरार्ध में व्यक्ति अपने पुश्तैनी घर और जमीन पर ही पहुंचना चाहता है। शहर में रहते हुए गांव से मनुष्य की पहचान गायब हो जाती है।

‘कतरने’ (2000) शीर्षक से सुदर्शन वशिष्ठ का तेरह कहानियों का संग्रह है जिसमें सोच का शाप, दादा का प्रेत, सती का मोहरा, चादर, कतरने, कोट, बर्फ की चांदनी, बाघ, सन्नाटा, दूसरा दरवाजा, फाइल में पताका, मुआवजा और फूलों की घाटी में राक्षस संगृहीत हैं। प्रस्तुत कहानी संग्रह के प्रारंभ में ‘कहानी में कहानी’ शीर्षक के अंतर्गत कहानी की रचना प्रक्रिया के संबंध में कहानीकार ने कहा है, ‘कहानी में कहानी रहती है। कहानी से कहानी निकलती है जैसे बात से बात निकलती है। एक कहानी अपने में कभी पूरी नहीं होती। उसकी जड़ें वट वृक्ष की तरह शाखों से निकलती हैं।’ इस दृष्टि से इस कहानी संग्रह की कहानियों को देखें तो संग्रह की कतरने, कोट, बर्फ की चांदनी और बाघ कहानियां परस्पर संपृक्त हैं। यहां एक कहानी के कथा सूत्र दूसरी कहानी से संबद्ध होकर क्रमिक श्रृंखला में विकसित होते दिखाई देते हैं। ‘सोच का शाप’ एक फौजी बेटे और उसके पिता पर केंद्रित कहानी है। इसमें पिता अपने फौजी बेटे की चिंता में विह्वल होता है। यह कहानी एक बलिदानी वीर की अंतिम यात्रा को नितांत मार्मिकता से व्यंजित करती है जिसमें दिवंगत फौजी बेटे के बूट, कपड़ों को धूप में सुखना आदि का मार्मिक चित्रण है। ‘कतरने’ में बेलीराम दर्जी का काम करता है। विवाह के अवसर पर गांव में घर में बुलाकर कपड़े सिलवाने की रिवाज और शान का चित्रण है।

बेलीराम कपड़ों को सिलते हुए कथा की दुनिया में पहुंचकर एक के बाद एक किस्से सुना कर लोगों का जमावड़ा लगाए रखता है। बेलीराम का बेटा मस्तराम जिसे बचपन में मकौड़ा कहा जाता था, वह पिता के व्यवसाय को अपनाकर शहर से कारीगर बनकर लौटता है और शहर में मशीन रखकर काम प्रारंभ करता है। कहानीकार ने मकौड़ा की सात बहनों का भी उल्लेख किया है जो चींटियों की तरह रेंगती हुई निकटवर्ती गांव में बस जाती हैं। मकौड़ा अफीम के नशे में डूब कर अपने व्यवसाय को चौपट कर देता है। ‘कोट’ कहानी में दर्जी का व्यवसाय करने वाला मस्तराम है। इसमें जौहरी प्रमुख चरित्र है। इसके माध्यम से कहानीकार ने गद्दी जीवन की दुश्वारियां निरूपित की हैं। उसका भेड़ों के रेवड़ों के साथ हिमाच्छादित पर्वत श्रृंखलाओं में इधर से उधर भटकने, भेड़ों की सुरक्षा की चिंता आदि का चित्रण है। इसके साथ मस्तराम मकौड़ा की कहानी भी आगे बढ़ती है। जौहरी को विश्वास है कि कोट सीता है तो बस मस्तराम। वह कोट बनाने के लिए पट्टी देता है, परंतु कोट नहीं बन पाता।

अंतत: नशे में धुत्त दर्जी हाथ में पट्टी पकड़े मृत्यु को प्राप्त करता है। ‘दादा का प्रेत’ कहानी में आत्मीय संबंधों और परिवार के घनिष्ठ रिश्तों को एक नए रूप में परिभाषित किया है। ‘सती का मोहरा’ अंधविश्वासों पर केंद्रित कहानी है। किस प्रकार कोई अंधविश्वास मन में नीड़ बना लेता है, मस्तिष्क में छा जाता है और अंतत: किस तरह की स्थितियों में वह अंधविश्वास खंडित होता है। ‘सन्नाटा’ शीर्षक कहानी जनजातीय क्षेत्र में नौकरी करने वाले लोगों के संघर्ष को सामने लाती है। कहानी में ऐसे व्यक्ति का चित्रण है जो जोत की पहाडिय़ों पर अंधाधुंध हिमपात होने से तीन महीने तक बर्फ से घिरे एक रेस्टहाउस में एक ही स्थान पर रहने के लिए विवश होता है। तीन मास तक उसके जीवन-मृत्यु की खबर किसी को नहीं मिलती। परिवार के सदस्य उसके लिए शोक मनाते रहते हैं। तीन मास पश्चात बर्फ पिघलने और मौसम का रुख बदलने पर जब वह घर लौटता है तो उसके घर वाले उसे भिखारी समझकर उसी के श्राद्ध की रोटियां उसे देने लगते हैं। रोटियां देते अपने बेटे के हाथों को वह कसकर पकड़ता है। इतने में बंधा हुआ कुत्ता छूट कर आता है और खाना खाने की अपेक्षा वह अपने मालिक को सूंघते-चाटते हुए उसकी गोदी में जा बैठता है। ‘मुआवजा’ और ‘फूलों की घाटी में राक्षस’ राजनीतिक पृष्ठभूमि पर रचित कहानियां हैं। ‘फाइल में पताका’ दफ्तरों की कार्यपद्धति और निष्क्रियता को निरूपित करती है। सुदर्शन वशिष्ठ की कहानियों की संवेदना भूमि में वैविध्य और बहुआयमिता है। कहानियों के प्रतिपाद्य में वर्णन की गहराई और परिपक्वता है। उनकी कहानियों में उत्तरोत्तर संवेदनशीलता की गहराई, संप्रेषणीयता और नए-नए शिल्प रूप आकर्षित करते हैं। कहानियों का फलक गांव और कस्बे से लेकर शहर तक व्याप्त है। कोमल मानवीय संबंधों के चित्रण के साथ कहानीकार ने समकालीन जीवन में संबंधों की टूटन, संवेदनशून्यता, आत्मकेंद्रितता, सरकारी तंत्र की निष्क्रियता का यथार्थ चित्रण है। भाषा की काव्यात्मकता, व्यंग्यात्मकता और आंचलिकता सुदर्शन वशिष्ठ की कहानियों की शिल्पगत विशिष्टताएं हैं।

सुंदर लोहिया की कहानी सृजन की शुरुआत सन् 1958 में जबलपुर से प्रकाशित होने वाली ‘वसुधा’ पत्रिका से होती है। तदनंतर सारिका, धर्मयुग जैसी देश की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में उनकी कहानियां प्रकाशित हुई। चंबा में रहते हुए धर्मयुग में उनकी कहानी ‘रोशनी का आरा’ प्रकाशित हुई और सारिका में मोहन राकेश के संपादन काल में उनकी ‘साया’ शीर्षक कहानी प्रकाशित हुई थीं। ‘नई कहानियां’ मासिक पत्रिका का संपादन जब कमलेश्वर कर रहे थे, उस समय ज्ञानरंजन और दूधनाथ जैसे प्रतिष्ठित कथाकारों के साथ सुंदर लोहिया की कहानी भी प्रकाशित हुई थी। सुंदर लोहिया का पहला कहानी संग्रह बहुत बाद में ‘कोलतार’ शीर्षक से सन्1992 में प्रकाशित हुआ। ‘कोलतार’ संग्रह में उनकी चौदह कहानियां- मंगलाचारी, स्वयंहारा, कोलतार, सतखसमी, मिलते जुलते चेहरे, उटपटांग, खिडक़ी नहीं खुलेगी, टूटे पंखों वाली जिंदगी, टूटा हुआ शीशा, खून का रिश्ता, जानना बकवास, साया और रोशनी का आरा संगृहीत हैं। सुंदर लोहिया की कहानियों की संवेदना भूमि विविध मुखी है। उनकी कहानियां सामाजिक संरचना में पिसते शोषित वर्ग की करुण गाथा है। उनकी कहानियां पर्वतीय जीवन की कठिनाइयों और अंधविश्वासों के चित्रण के साथ सामंतीय और पूंजीवादी मानसिकता के शोषण के शिकार हाशिए के समाज और निम्न मध्य वर्ग के यथार्थ को रूपायित करती हैं।                                                 -(शेष भाग अगले अंक में)

पुस्तक समीक्षा : राजी महल का इतिहास खंगालती पुस्तक

गंगा राम राजी इस बार राजी महल की कहानी ‘छज्जू दे चौबारे’ लेकर आए हैं। 14 अध्यायों में बंटी और रवीना प्रकाशन से प्रकाशित इस किताब की कीमत 290 रुपए है। राजी महल कैसे बना, उसका इतिहास क्या है तथा विशिष्टताएं क्या हैं, इसका पूरा उल्लेख किताब करती है। इसके वण्र्य विषय के संबंध में गणेश गनी कहते हैं, ‘कहते हैं कि लाहौर में पुराने अनारकली बाजार में छज्जू का चौबारा था जिसके अवशेष आज भी गवाही देते हैं। जौहरी छज्जू का पूरा नाम था लाला छज्जूराम भाटिया। दोमंजिले आवास की पहली मंजिल पर उसका कारोबार था। दूसरी मंजिल पर परिवार रहता था और उसी की छत पर उसने बनाया था एक चौबारा। इस चौबारे को फकीरों ने अपना डेरा बना लिया था। इस चौबारे पर फकीरों की धूनी भी रमती थी और भजन-कीर्तन व सूफियों का नृत्य भी चलता था। छज्जू का मन अध्यात्म में रमता गया। उसने अपनी कमाई का बड़ा हिस्सा फकीरों, भक्तों व जरूरतमंद लोगों पर खर्च करना शुरू किया। शीघ्र ही उसे छज्जू भगत कहा जाने लगा। लोग तब अक्सर कहते थे कि इस चौबारे पर आकर रुहानी सुकून और मानसिक शांति मिलती है। सत्रहवीं शताब्दी में उसका चौबारा फकीरों का डेरा बन गया।

फकीर दिन में वहां धमाल नृत्य करते और तालियों के बीच गाते, ‘जो सुख छज्जू दे चौबारे, ओ बलख न बुखारे।’ साथ ही ‘अपनी बात’ में लेखक कहते हैं कि, ‘राजी महल का एक इतिहास रहा है, जैसे ताज महल का। शाहजहां को मुमताज के लिए कुछ करने की सूझी, इधर गंगाराम को भी ‘राजी’ के लिए कुछ करने की सूझी। ध्यान रहे कि यहां यह न समझा जाए कि मैंने प्यार में शाहजहां की नकल की होगी। मेरा अपना अंदाज-ए-बयां है। यह मेरा राजी महल ही है जो बाद में इसे देखने आए लोगों द्वारा याद किया जाएगा। हम दोनों आपस में एक-दूसरे को राजी का संबोधन करते हैं। अब तो सब जानने वाले या मेरे पाठक राजी के नाम से ही संबोधन करते हैं, सब जगह राजी ही राजी है, इसलिए भी मुझे यह इतिहास लिखना पड़ा है।’ किताब पढक़र आभास हो जाता है कि गंगाराम राजी का इतिहास लेखन में कोई सानी नहीं है। -फीचर डेस्क

चिंतन : परसाई की प्रासंगिकता

डा. देवेंद्र गुप्ता
मो.-9418473675

-(पिछले अंक का शेष भाग)
व्यंग्य को समझने के लिए वस्तुत: एक सुशिक्षित मस्तिष्क का होना आवश्यक माना गया है और यह पाठक के स्तर पर भी बौद्धिकता की मांग करता है। हास परिहास से इतर व्यंग्य पाठक को मात्र गुदगुदाने के लिए नहीं बल्कि किसी विसंगति या विडंबना के उद्घाटन से उसको पूर्ण रूपेण झकझोर देने और विचलन करने का उपक्रम है। तभी उसमें अभिव्यक्ति का इकहरापन न होकर अभिव्यक्ति शिल्प के अधिकाधिक उपदानों का खुलकर प्रयोग होता है। अतिशयोक्ति, विडंबना, संदर्भशीलता, पैरोडी, आक्रोश, प्रदर्शन, एलिगरी, फंतासी आदि इसके प्रमुख उपादान हैं। व्यंग्य के पीछे लेखक का निश्चित चिंतन तथा दृष्टिकोण होता है जिसका आधार लेकर वो स्थिति विशेष को अपनी प्रखर आलोचना का लक्ष्य बनाता है। स्पष्ट है कि जो समाज अनेक राजनीतिक और सामाजिक विसंगतियों और तनावों में जकड़ा हुआ है, वह हास्य के मुकाबिले व्यंग्य के लिए ही अधिक उपजाऊ भूमि व वातावरण तैयार करता है। हम कह सकते हैं कि परसाई ने इन परिस्थितियों और अवसरों को व्यर्थ नहीं जाने दिया और उन्हें अपने व्यंग्य लेखन के लिए उर्वर भूमि मिली और अपने स्तंभों, लेखों, कहानी, उपन्यास में उपरोक्त शिल्पविधि और टूल्स का प्रयोग करते हुए वह व्यंग्य की फसल उगाने, काटने और बेचने में सफल हुए। परसाई को हिंदी व्यंग्य के सबसे अग्रणी रचनाकार के रूप में प्रतिष्ठा तो प्राप्त हुई ही, उन्होंने व्यंग्य को एक शैली के रूप में प्रतिष्ठित किया था और धीरे-धीरे व्यंग्य को हिंदी साहित्य की एक ऐसी विधा के रूप में स्वीकार्यता दिलाई जिसमें निबंध, कथा, कविता, नाटक जैसी पूर्व स्थापित विधाओं को एक नया रूपाकार प्राप्त हो गया।

इस रूपाकार में व्यंजना शैली को पूर्ण प्रतिष्ठा मिली। 1976 में प्रेम जनमेजय के साथ हुई बातचीत में परसाई जी ने व्यंग्य विधा है या शैली, पर अपने सुचिंतित विचार भी रखे, ‘बात असल में यह है जैसे कहानी, कविता, उपन्यास या नाटक शास्त्रीय विधाएं हैं, उनका एक स्ट्रक्चर है। व्यंग्य का ऐसा कोई स्ट्रक्चर नहीं है। इसलिए व्यंग्य शास्त्रीय अर्थों में विश्वविद्यालीय मायनों में विधा नहीं है। यह एक स्पिरिट है जो किसी भी विधा में हो सकती है। इसके लिए आपको साहित्य के शास्त्रीय मानदंड बदलने होंगे, लेकिन अब यह आलोचकों का कत्र्तव्य हो जाता है कि रचनाओं के आधार पर देखें कि व्यंग्य में क्या क्या तत्व हो सकते हैं। हमें इसकी चिंता नहीं करनी चाहिए। इसका निर्णय पेशेवर आलोचक और हिंदी के विभागाध्यक्ष करें तो अच्छा है।’ यह परसाई के विराट लेखकीय व्यक्तित्व का ही प्रतिफलन है कि नए लेखकों की चौथी पीढ़ी पर भी हरिशंकर परसाई का प्रभाव विशेष रूप से परिलक्षित होता है और इसी में परसाई की प्रासंगिकता निहित है। राष्ट्रीय पुस्तक न्यास ने वर्ष 1997 में ‘हिंदी हास्य व्यंग्य संकलन’ का पहला संस्करण निकाला, जिसका संपादन श्रीलाल शुक्ल व प्रेम जनमेजय ने किया था। वर्ष 2023 में इसकी उन्नीसवीं आवृति का निकलना पाठकों में व्यंग्य विधा के प्रति बढ़ती स्वीकार्यता का द्योतक है। इसके सम्पादकीय में सम्पादक द्वय ने संक्षेप में परसाई जी के लेखन और उनके व्यंग्य शिल्प को लेकर गंभीर टिप्पणी दी है। वह परसाई के व्यंग्य साहित्य के महत्त्व और मूल्यांकन के लिए शोधार्थियों और गंभीर पाठकों के लिए अति आवश्यक है। भूमिका में लिखा है कि, ‘हरिशंकर परसाई का साहित्य बड़ा विशाल है और जो स्थितियां दूसरों को सामान्य जान पड़ती हैं, उनमें विडम्बना और विकृति को पकडऩे की असामान्य क्षमता है। यही नहीं, फंतासी, लोककथा, अन्योक्ति आदि विभिन्न शिल्पगत तंत्रों के प्रयोग से वे किसी भी कोण से पाठक की चेतना को झकझोर सकते हैं। उनकी प्रतिभा में आविष्कारक तत्व आश्चर्यजनक मात्रा में विद्यमान है। उन्हीं के लेखन का कदाचित यह फल है कि व्यंग्य छिटपुट वाग्विलास न रहकर हिंदी में एक सशक्त और नियमित लेखन प्रक्रिया बन गया है। आधुनिक साहित्य में अगर हिंदी व्यंग्य की स्वतंत्र पहचान बनी है तो उसका अधिकांश श्रेय परसाई को ही है। वर्तमान समाज की विसंगतियों और उसके पाखंड और कुरीतियों के खिलाफ अत्यंत पठनीय कहानियों और निबंधों के अलावा उन्होंने लघु उपन्यास ‘रानी नागफनी की कहानी’ भी लिखा, पर उनके साहित्य का एक वृहत भाग अनेक पत्रिकाओं में समय-समय पर किए गए स्तम्भ लेखन का है जिसमें स्थायी मूल्यवत्ता की प्रचुर सामग्री उपलब्ध है।

उनके असंतोष का मुख्य आधार आज की राजनीतिक और सामाजिक मूल्यहीनता है जिसके प्रति उनकी दृष्टि एक ऐसे कलाकार की है जो विपिन्नों, वंचितों और संघर्षशील वर्गों के प्रति स्पष्ट रूप से प्रतिबद्ध है।’ हरिशंकर परसाई अपनी रचनाओं के माध्यम से पाठकों की चेतना पर सीधा दिशापूर्ण प्रहार करते हैं। परसाई की दृष्टि सीमित नहीं है। वह साहित्य और साहित्य पर की विसंगतियों की चर्चा करते हुए भी अंतरराष्ट्रीय विसंगतियों को लक्षित कर प्रहार करते हैं। हरिशंकर परसाई की रचनाएं पाठकों का विसंगतियों से मात्र परिचय नहीं कराती हैं, अपितु उस पर प्रहार करने की दिशा देती हैं। व्यंग्य के कथ्य का चुनाव परसाई बड़े ध्यान से करते हैं। अपितु किस पर व्यंग्य करना है किस पर नहीं, यह निर्णय लेने के लिए उनके अंदर एक आलोचक बैठा है। ‘तुलसी दास चंदन घिसें’ में, ‘कबीरा खड़ा बाजार में’ और ‘तुलसीदास चन्दन घिसे’ शीर्षक स्तम्भ के अंतर्गत लिखे गए स्तम्भों का व्यंग्य रचनाओं का संकलन है। इस संग्रह की अधिकांश रचनाएं सामाजिक घटनाओं एवं जीवित साहित्यिक व्यक्तियों की विसंगतियों पर आधारित हैं। परन्तु परसाई किसी घटना, काल या व्यक्ति की सीमा में नहीं बंधे हैं। परदे के राम और अयोध्या की चर्चा करते हुए सामाजिक-राजनीतिक विसंगतियों पर प्रहार करते हैं। आठवें दशक के उत्तरार्ध में वह ‘गंगा’ के स्तम्भ में संस्मरण लिख रहे थे। संस्मरण अतीत की स्मृतियों से जुड़ा होता है। परन्तु परसाई अपने लेखन में इस सीमा को नहीं मानते हैं। संस्मरण लिखते समय वह वर्तमान से कटते नहीं हैं। वह अतीत के झरोखों से वर्तमान को देखते हैं। उनकी व्यंग्य दृष्टि अतीत में घूमती हुई वर्तमान में व्याप्त विसंगतियों पर सार्थक प्रहार करती है। बहरहाल, व्यंग्य लेखन में परसाई का योगदान अविस्मरणीय है।


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