बंदरमुक्त कैसे होंगे

By: Oct 5th, 2023 12:05 am

क्या बंदर अब भी जंगल की अमानत है या इससे इनसान का मुकाबला नहीं है, फिर भी मनुष्य के अस्तित्व के प्रश्न पर मानवता हावी रहती है। वन्य प्राणी सुरक्षा कानून ने बंदर को ऐसी प्रजाति तो नहीं माना कि इसकी ओर घातक निगाह से न देखा जाए, फिर भी बंदिश यह है कि जंगल के भीतर इससे अमंगल न किया जाए। इस बार सवाल उत्पाती बंदर को मारने की अनुमति का है, तो जिक्र हिमाचल की आबादी के सामने इससे जुड़े प्रकोप का भी है। यानी जनता चाहे तो वह उत्पाती बंदर की तरफ कोई खूंखार पत्थर उछाल दे, लेकिन धर्म की आंख से अभी तक यह निशाना नहीं बना जो गोली से ऐसी शरारतों का खात्मा कर दे। एक बार धूमल सरकार ने बाकायदा अभियान चलाया और कुछ शूटर काम पर लगाए गए, लेकिन तब के तथाकथित नेशनल मीडिया खास तौर पर एक न्यूज चैनल के हिमाचली एंकर ने इस कार्रवाई को बारूद बना दिया। जाहिर है वन विभाग एक ऐसा पहरा है जो हिमाचल के प्रति सख्तियों का थानेदार तो बनना चाहता है, लेकिन अपनी वजह से उत्पन्न मानवीय परेशानियों की जिम्मेदारी नहीं लेता। वन्य प्राणी भी इसी तरह की एक भूली सी जिम्मेदारी है। बंदर क्या जाने जंगल की सीमा। सुबह किसी की छत या पेड़ पर फल उजाड़ दे और फिर शाम को शरारत के साथ जंगल के अभयारण्य में खुद को संरक्षित कर ले। जाहिर है हिमाचल की सत्तर फीसदी भूमि पर खड़ा जंगल कब अपनी सरदारी घोषित कर दे, इसका न सामाजिक जीवन को आभास है और न ही विकास के रास्तों को पता। यह कैसा वन संरक्षण जो चैन से प्राकृतिक संसाधनों से प्रदेश की मुलाकात में बाधक बना रहता है। मूल विषय तो यह होना चाहिए कि वन्य प्राणी अगर जंगल से बाहर उत्पात मचा रहे हैं, तो यह जंगलात की नीति और प्रबंधन का दोष है। यहां बंदरों और जंगली जानवरों से हो रहे नुकसान का आकलन भी होना चाहिए ताकि इसकी भरपाई की जा सके।

आश्चर्य यह कि अगर प्रदेश को अपनी विकास की गाड़ी जंगल के रास्ते गुजारनी पड़ती है, तो इसके बदल उतनी ही तादाद में हरियाली तथा कीमत चुकानी पड़ती है, मगर जब जंगल के जानवर बस्ती में जीना और खेत में खेती हराम करते हैं, तो वन विभाग की कोई जिम्मेदारी तय नहीं होती। हमीरपुर, ऊना, कांगड़ा, मंडी, चंबा व सिरमौर के कुछ हिस्सों में जंगलों के अधीन आई जमीन सौ फीसदी इनसान की बेहतरी के लिए इस्तेमाल होनी चाहिए, लेकिन वहां के वनों ने मानव बस्तियों को घिनौने अनुभव से घेर रखा है। हमीरपुर के ही बड़सर-बिझड़ी जैसे इलाकों में वन संपदा के दंश झेलती खेती उजड़ चुकी है। किसान बंदर को जंगल की अमानत नहीं, अपनी बर्बादी का ऐसा दूत मानते हैं जिसे वन विभाग का प्रश्रय हासिल है। बंदरों की नसबंदी के जो आंकड़े दिए जाते हैं, वे प्रमाणित नहीं होते। अगर ऐसा प्रमाणित होता तो बस्ती के करीब बंदर की शुमारी कम हो जाती, परंतु सामाजिक परिदृश्य बताता है कि हर साल और साल में कई बार बंदरों की नस्ल नया व भयावह स्वरूप अख्तियार कर रही है। ऐसे में आक्रामक बंदर के खिलाफ हथियार खोलने की अनुमति भले ही प्रशंसनीय लगे, मगर इसके लिए राज्य की ओर से संकल्प जरूरी है। संकल्प वन, बागबानी, कृषि व प्रशासन के साथ मिल कर यह तय करे कि हर साल कितने खेत या बागान बंदरों से मुक्त होंगे। ये सारे विभाग किसान और बागबान के साथ-साथ आम इनसान को यह शपथपत्र दें कि कौनसा इलाका बंदर मुक्त घोषित होगा तथा इसके परिप्रेक्ष्य में कितनी सफलता अर्जित हुई, वरना चाहे कितनी भी घोषणाएं बंदरों के उत्पात के खिलाफ हो जाएं, इनसे आजिज लोगों के आंसू पोंछने का प्रमाण नहीं मिलता। सरकार को व्यापक स्तर पर बंदरों से निपटना होगा।


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App