आम आदमी की जरूरत…

By: Oct 28th, 2023 12:05 am

आम आदमी की ज़रूरतों बारे, बातें और विचार विमर्श करने के लिए, बदलावों की जननी राजनीतिजी तैयार बैठी रहती है। उनके हुक्म के बिना सूखा पत्ता भी नहीं गिरता, वह बात दीगर है कि आम जि़ंदगी की ज़रूरतें शोर मचाती रहती हैं। उधर ख़ास लोग अपने काम में जुटे रहते हैं। अब ख़ास यानी नकली बुद्धि का ज़माना आ चुका है जिसने सामान्य बुद्धि की ज़रूरत कम कर दी है। नई, विशेष, स्वादिष्ट, चमकती, शान बढ़ाऊ बुद्धि बाज़ार में बिकनी शुरू हो चुकी है। यह विडंबना का विकसित रूप ही है कि अभी तो कृत्रिम बुद्धि ने अपना सिक्का जमाना शुरू ही किया है और इसके बनाने वाले ही परेशान होने लगे हैं। विकास होता ही ऐसा है। विकास करने और करवाने के लिए हर कोई तड़पता है। अपने पराए हो जाते हैं और पराए, अपनों को छोडक़र अपना विकास करवाने इस तरफ आ जाते हैं। विकास होने लगे और होता जाए, ज़्यादा हो जाए तो पता नहीं चलता कि कब विकास के भेस में विनाश जीवन में प्रवेश कर जाता है। फिर हाय-तौबा मचती है कि इतने विकास की क्या ज़रूरत थी। अभी तो बुद्धिपार्टी शुरू हुई है और इसे अभी से धर्म, जाति, कुराजनीति से परेशान बेचारी मानवता के लिए खतरा बताया जा रहा है। अब तो अंग्रेज़ी की ‘मस्क’ भी डर युक्त बदबू बिखेर रही है, लेकिन बदलाव का मौसम तो इसे पूरी तरह ओढ़ लेने की फिराक में है। तकनीक ने इनसान को सहयोग देते देते उसे अपना दास बना लिया है।

इनसान को उचित दिखना बंद हो गया है। कहा भी तो गया है कि दुर्घटना से पहले दिखना बंद हो जाता है। नकली अकल द्वारा लाई जा रही असली बेरोजगारी की बाढ़ में आम आदमी ही बहेगा, ख़ास बंदे तो पैसों की नाव में तैरते रहेंगे। व्यावसायिक दुनिया के सामाजिक प्रशासकों को कुछ न मांगने वाला रोबोट चाहिए। इनसान तो खाना, मोबाईल, दवाई, जूते, पकवान, बोनस, यूनियन, वेतन और उसमें निरंतर बढ़ोतरी बारे हमेशा शोर मचाता रहता है। जब चतुर, चालाक, नकली बुद्धि का शासन दूर दूर तक कायम हो जाएगा तो नैसर्गिक, असली बुद्धि दुखी हो जाएगी। नकली के लिए असली भावना, सद्भावना, दुर्भावना, प्रेम, प्यार, रोमांस सब कूड़ा कचरा हो जाएगा। कृत्रिम बुद्धि ढूंढ ढूंढ कर शिकार करेगी। मानवीय जाति को तबाह कर देगी। जब इनसान से भी शातिर, नकली बुद्धि का पूर्ण राज्य स्थापित हो जाएगा तो उसके पास करने के लिए कुछ नहीं बचेगा। फिर एक दिन उसके अपने हिस्सों में ही अंतद्र्वंद्व आरम्भ होकर, युद्ध शुरू हो सकता है। फिर अतिकृत्रिमता का समय आएगा और वर्चस्व कायम करने के लिए लड़ाई होगी। एक दूसरे को खत्म करने पर उतारू हो जाएंगे। कहीं असली वृक्ष के नीचे बैठा इनसान ज़रूर सोचेगा कि इनसान को इतने तकनीकी विकास की ज़रूरत नहीं थी। उसके दिमाग और शरीर को लगेगा कि विकास ज़्यादा हो गया। हो सकता है तब नालायक हो चुकी कृत्रिम बुद्धि, एक दिन ऐसी मशीन विकसित कर दे जो यह निर्णय लेना शुरू कर दे कि समाज में कौनसा शरीर उसके लायक है और कौनसा नहीं। जो काबिल न हो, जिसके पास धन, सुविधाएं और पहुंच नहीं, उसे खत्म कर दिया जाए। क्या नैसर्गिक बुद्धि इस सन्दर्भ में कुछ भी सोचने समझने लायक है।

प्रभात कुमार

स्वतंत्र लेखक


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