दशहरा उत्सव को नए रंगों ने बनाया आकर्षक

By: Oct 30th, 2023 12:17 am

17वीं सदी की देवपरंपराएं आज भी कायम, उत्सव समिति के प्रयासों से दुनियाभर में पहुंची कुल्लवी संस्कृति

स्टाफ रिपोर्टर-भुंतर
सदियों से अनूठे देव इतिहास को संजोने वाला अंतरराष्ट्रीय कुल्लू दशहरा उत्सव का स्वरूप अब आकर्षक होने लगा है। 20 सदी में देवी-देवताओं व भगवान रघुनाथ के अहम फैसलों के कारण चर्चा में रहने वाला उत्सव 21वीं सदी में इस पर हो रहे नए रंग-रोगन से चर्चा में है। 17वीं सदी में आरंभ हुआ दशहरा उत्सव 21वीं सदी में पहुंचते-पहुंचते कई नए रंग रूप में ढल गया है। 21वीं सदी के दो दशकों में अहम बदलाव यह उत्सव देख रहा है। इस बार विदेशी कलाकारों की सांस्कृतिक परेड भी उत्सव को नया रंग दे गई है। इससे पूर्व देवधुन, महा-आरती की नई शुरूआत उत्सव ने देखी गई है। कुछ साल पहले उत्सव में हुई महानाटी ने विश्व भर में मेले को नया व अलग स्थान दिलाया, तो सामूहिक लालड़ी के स्वरूप में भी आंशिक बदलाव देखने को मिला। करीब 369 सालों से दशहरा सैकड़ों देवी-देवताओं के अनूठे देव मिलन की रस्मों को संजोए हुए है। भगवान रघुनाथ जी के कुल्लू आगमन के बाद ढालपुर में देवभूमि के सैकड़ों देवताओं ने जश्न स्वरूप जो देवोत्सव मनाया था, वह आज कुल्लू के अलावा प्रदेश की भी शान बना है। घाटी के 365 देवी-देवताओं की हाजिरी के साथ आरंभ हुआ यह उत्सव 20वीं सदी के मध्य में नई प्रथा आरंभ होने के बाद महज इक्का-दुक्का देवताओं की हाजरी को भी देख चुका है।

हालांकि सदियों की परंपरा को कायम रखने का महत्त्व जब आयोजकों को समझ आया तो देवताओं की संख्या अब 315 के पार फिर से पहुंच गई है। सोहलवीं शताब्दी के साल 1660-61 में जब कुल्लू के राजा ने देवताओं को ढालपुर आने का न्योता भेजा था, तो कई रस्में उस दौरान आरंभ हुई थीं। इन रस्मों में आजादी से पूर्व तक राजघरानों के मार्गदर्शन में निभाया जाता रहा, तो इसके बाद दशहरा की विशेष आयोजन समिति के हाथों में अब इसकी कमान आई है, लेकिन इसकी पुरातन परंपराओं को जीवित रखने के प्रयास समिति ने भी किए हैं। दशहरा में राजपरिवार की दादी हिंडिम्बा का स्वागत हो या नर सिंह की जलेब की बात हो, आज भी जस की तस है। अयोध्या से कुल्लू में आकर बसे देवभूमि के अधिष्ठाता रघुनाथ जी की पूजा-अर्चना के तौर-तरीके भी 369 सालों से नहीं बदले हैं लेकिन उत्सव को आकर्षक और बेहतर बनाने के लिए जो प्रयास किए गए हैं वे कुल्लू की देव-संस्कृति को बेजोड़ बनाने की दिशा में सराहनीय प्रयास भी है। इन प्रयासों ने दशहरा के स्वरूप को अलग रंग दिया है। भगवान रघुनाथ के कारदार दानवेंद्र सिंह की मानें तो कुल्लू दशहरा उत्सव की देवपरंपराएं बिल्कुल भी नहीं बदली है, किंतु उत्सव को आकर्षक बनाने के लिए किए जा रहे प्रयासों से इसका स्वरूप पुरातन स्वरूप से भिन्न जरूर नजर आ रहा है।


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