खामोश पूर्व दिशा का सूरज

By: Oct 23rd, 2023 12:05 am

हिमाचल के बंद रोशनदान पूर्व दिशा में भी नहीं खुलते, आता हर दिन सूरज मगर मुलाकात नहीं करते। कुछ इसी तरह हमने सदियां गुजार दीं, आहट पर यकीं होता तो साथ चलते। हिमाचल ने सृष्टि को देखने की दृष्टि इतनी संकीर्णता से भर दी है कि यहां हिसाब के हर मोर्चे पर स्वार्थ की गवाही लगती है। स्कूल-कालेजों को परिणाम और कालेज-विश्वविद्यालयों को सिर्फ नाम भर का काम चाहिए। यहां ऐसा माहौल नहीं कि इतिहास को पलटा जाए या साहित्यिक विवाद को परखा जाए। वर्षों से कला, संस्कृति और भाषा विभाग अकादमी आसन जमाए चुन रहे हैं कि भीगे रहें चहेतों के शब्द और संवाद की जगह कवियों के कीर्तन होते रहें। गेयटी थियेटर की आरजू में कला की दृष्टि का सम्मोहन अपनों को प्रभावित करता है और इसी कशमकश में हिमाचल का विचार परिक्रमा कर रहा है। जो सिफारिशी खत में है, वह किताब के प्रकाशन तक पींगें बढ़ा रहा है और जहां कहने की जरूरत है वहां सियासी बेडिय़ां हैं।

हिमाचल के समारोहों में सरकार के तिलकधारियों की शिनाख्त इस सीमा तक कि हर सत्ता मंच पर बोलती है, लेकिन जन संवाद खामोश रहता है। ऐसे में जब कभी कसौली में लिट फेस्ट होता है, तो हिमाचल से चर्चाओं का माहौल बदल जाता है यानी अचानक यह प्रदेश ऐसा सुन पाता, जो स्वतंत्रता की मौलिकता में विचारों की स्वतंत्रता है। हैं तो हिमाचल में अब कई विश्वविद्यालय, लेकिन सामूहिक चर्चाओं में प्रदेश की बौद्धिकता के मजमूनों को स्थान नहीं मिलता। केंद्रीय विश्वविद्यालय के नींव पत्थरों पर ही एक विशेष विचारधारा पोत दी गई या गहन चिंतन में उबासियां ले रहे संस्थान की नींद ही कश्मीर के मसलों पर खुलती है। खींच कर तो मंडी विश्वविद्यालय को भी लंबा किया गया, लेकिन स्वतंत्र विचारों की भ्रूण हत्याओं पर परिसर की खामोशियों का भी चीरहरण हो गया। हिमाचल में विचारों के बजाय तयशुदा सहमतियों पर सत्ता के ईष्ट देवता पूजे जाते हैं। हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का पूरा पखवाड़ा, समारोहों की खेप में उतर जाता है, लेकिन हिंदी राज्य के पास अपनी हिंदी का वृतांत नहीं मिलता। हिमाचल में कोई थिंक टैंक नहीं, बल्कि मीडिया के स्वरूप में सोशल मीडिया का अवतार कुछ ऐसी मक्खी की तरह हुआ कि विचार के बजाय गुड़ की तलाश बढ़ रही है। बेशक अखबारों के लेखकीय स्तंभों में हिमाचल का लेखक वर्ग दिखाई दे, लेकिन कलम पर सरकार की रोशनी चढ़ी है। हम कायदे से अर्थ शास्त्र पढ़े ही नहीं।

यहां केंद्रीय या राज्य के बजटीय भाषणों पर अर्थशास्त्रियों की टिप्पणियों के भंवर में मौलिक एवं स्वतंत्र विचारों की कमी है, तो राजनीति पर लिखने की ताकत बुद्धिजीवी दिखाते नहीं। लेखकों के नए अवतरण में नेताओं के लिए लिखा जा रहा है, तो विषयों की चाटुकारिता में शब्द गौण हैं। हिमाचल में धर्मशाला और शिमला के फिल्म समारोह एक सुखद पहल की तरह, फिल्मों के आंचल में वैचारिक बहस को मौका दे रहे हैं, वरना विभागीय कसरतें तो प्रदेश के सृजन की तौहीन ही कर रहीं। शिमला के बाद नवंबर में धर्मशाला फिल्म फेस्टिवल, अपने साथ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर ऐसे बिंदु तलाश लेगा और जहां बहस कंदराओं से बाहर खुली सांस लेगी। ऐसे में प्रदेश के बुद्धिजीवी वर्ग को कॉफी हाउस या चाय की चर्चा को हिमाचल की राजनीतिक संकीर्णता से बाहर स्वतंत्र आचरण की खुली हवा में बोलने की हिम्मत देनी होगी। किसी भी राज्य की स्वतंत्र बहस से भविष्य की चुनौतियां संबोधित होंगी, वरना सरकारें आती-जाती रहेंगी और हम किसी नौकरशाह से बार-बार यह उम्मीद करेंगे कि भाषा-संस्कृति विभाग कोई ऐसा कवि सम्मेलन करा दे, जहां कविता के बजाय कवि समुदाय शिरोमणि घोषित हो जाए। हम अपने बजट की मौलिकता में न खेत, न बागीचा और न ही ग्रामीण अर्थ व्यवस्था पर चर्चा करते, बस हिमाचल को यही पैमाइश करनी है कि सरकारी बजट से सुविधाएं निकाल कर कर्मचारी वर्ग सम्मानित हो और नागरिक समाज किसी तरह के कर से अछूता रह जाए।


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