विकास के चुनावी वादों का सच

By: Oct 9th, 2023 12:05 am

मुफ्त की सुविधाएं केवल आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों को ही दी जानी चाहिए…

गत वर्ष हिमाचल प्रदेश विधानसभा-2022 के चुनाव संपन्न हुए। देश के अन्य राज्यों की तरह हिमाचल प्रदेश के विधानसभा चुनावों में भी कुछ दलों ने मुफ्त बिजली और गैस कनेक्शन के लक्ष्य को अपना प्रमुख चुनावी वादा बनाया था। राजनीतिक दल आमजन को लुभावने चुनावी नारों के साथ वादों की बरसात करते हैं। हिमाचल प्रदेश जैसे पहाड़ी राज्य जिनके पास अन्य राज्यों की अपेक्षा सीमित संसाधन हैं, वहां धरातल की सच्चाई जाने बिना इस प्रकार के नारे मात्र हवाई सपने प्रतीत होते हैं। जाहिर है कि इस तरह की चुनावी रेवडिय़ां मतदाताओं को आकर्षित तो करती हैं बल्कि एक हद तक चुनावों में मतदाताओं को किसी पार्टी विशेष के पक्ष में मतदान करने के लिए प्रेरित भी करती हैं। सवाल यह है कि क्या यह मुफ्त की राजनीति हिमाचल प्रदेश जैसे कम संसाधनों से जूझते राज्य को विकास के स्तर पर किस तरह से प्रभावित करेगी? मुफ्तखोरी की राजनीति भारत में लम्बे समय से विवादों का कारण बनती रही है। हाल के ही दिनों में ‘मुफ्तखोरी’ शब्द भारतीय राजनीति में विवाद का मुख्य केंद्र बन गया है। चुनाव के समय राजनीतिक दल अपने पक्ष में मतदाताओं को रिझाने के लिए मुफ्त बिजली, पानी, बेरोजगारी भत्ता, महिलाओं और श्रमिकों को भत्ता, मुफ्त लैपटॉप, स्मार्टफोन, स्कूटर, घर आदि के वादों के साथ अपने पक्ष में चुनावी माहौल बनाने का प्रयत्न करते हैं। भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी कई बार मुफ्तखोरी की शॉर्टकट राजनीति के विषय में देश के राजनीतिक दलों से अपील कर चुके हैं। हाल ही में झारखंड के देवघर में रैली को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा था कि लोगों को शॉर्टकट वाली सोच से दूर रहना चाहिए क्योंकि इससे शार्ट सर्किट भी हो सकता है और देश बर्बाद हो सकता है। प्रधानमंत्री मोदी के इस वक्तव्य को श्रीलंका जैसे देशों में पैदा हुए आर्थिक संकट से जोडक़र भी देखा जा सकता है।

मोदी के इस दावे में काफी हद तक सच्चाई भी दिखती है कि ऐसे राजनीतिक चलन एक स्वस्थ अर्थव्यवस्था के लिए नि:संदेह हानिकारक हैं। ऐसे वादों के साथ चुनी गई सरकारें न केवल करदाताओं के लिए हानिकारक स्थितियां उत्पन्न करती हैं, बल्कि अपने लिए भी समस्याओं को खड़ा करती हैं। सबसे स्याह पक्ष यह है कि इससे गरीबों के लिए कल्याणकारी योजनाओं को लागू करना बेहद मुश्किल हो जाता है। इस साल के अंत में देश के कई राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं। आगामी चुनावों में राजनीतिक पार्टियों ने मतदाताओं को अपने पक्ष में लामबंद करने के लिए अभी से ही मुफ्त के वादे शुरू कर दिए हैं, जो कि किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में उचित नहीं हैं। यदि हिमाचल प्रदेश के सन्दर्भ में बात की जाए तो पिछले साल के विधानसभा चुनावों में प्रदेश की प्रमुख राजनीतिक पार्टियों ने जनता से मुफ्त के कई वादे किए। हालांकि प्रदेश की जनता ने आप पार्टी के दिल्ली के ‘मुफ्त मॉडल’ को पूरी तरह से नकार दिया, लेकिन इसके बावजूद मुफ्तखोरी की राजनीति हिमाचल प्रदेश के चुनावों में हावी रही थी। कांग्रेस सरकार ने प्रदेश की जनता से इसी प्रकार के कई वादे किए और अंतत: प्रदेश में सरकार बनाने में सफल भी हुई! बस में मुफ्त का सफर हो या फिर मुफ्त 320 यूनिट बिजली देने का वादा, फ्रीबीज और इस प्रकार की मुफ्त सुविधाएं देखने-सुनने में तो लुभावनी हैं लेकिन इनका अत्यधिक प्रचार-प्रसार सरकार के बजट में कमी जैसे संकट को बढ़ा भी सकता है। इसके साथ ही सरकारी नौकरियों व अन्य विकास कार्यक्रमों, विभागों में धन की कमी का प्रमुख कारण भी बन सकता है। हिमाचल प्रदेश मौजूदा वक्त में जिस त्रासदी से दो-चार हो रहा है, उससे निकलकर वापस विकास की पटरी पर लाना काफी कठिन कार्य होगा। इस प्रकार की मुफ्त सुविधाएं विकास की तमाम अच्छी योजनाओं और कार्यों में और अवरोध पैदा कर सकती हैं। इससे इनके लाभार्थियों में एक प्रकार का निर्भरता सिंड्रोम जन्म लेता है। मुफ्त में प्राप्त वस्तुएं प्राप्तकर्ताओं में निर्भरता और उसकी पात्रता का एक नकारात्मक पैटर्न भी बना सकती हैं, जो भविष्य में पहले से अधिक मुफ्त वस्तुओं की उम्मीद कर सकते हैं। इसके दुष्परिणाम यह होंगे कि उन लोगों में कड़ी मेहनत करने या टैक्स का भुगतान करने के लिए जवाबदेही में कमी आ सकती है। जैसे एक रुपये प्रति किलोग्राम चावल या शून्य लागत पर बिजली जैसी मुफ्त की सुविधाएं लाभार्थियों की जिम्मेदारी और जवाबदेही की भावना को कम कर सकती हैं और उन्हें हर परिस्थिति में बाहरी सहायता पर निर्भर बना सकती हैं।

मुफ्तखोरी पर एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉम्र्स ने तमिलनाडु राज्य में एक सर्वेक्षण किया है जिसके अनुसार तमिलनाडु में 41 प्रतिशत मतदाताओं ने मुफ्त की सुविधाओं को मतदान व अपने उम्मीदवार के चयन में एक महत्वपूर्ण कारक माना है। जाहिर है कि इस तरह के वादों से राजकोषीय बोझ व घाटा भी बढ़ता है। सार्वजनिक व्यय, सब्सिडी, घाटे, ऋण और मुद्रास्फीति में वृद्धि के कारण मुफ्त वस्तुएं मुहैया कराने से राजकोषीय स्थिरता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। संसाधनों के गलत आवंटन का सबसे सटीक उदाहरण उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में पूर्ववर्ती सरकार द्वारा मुफ्त में बांटी गयी लैपटॉप योजना है, जिसकी आलोचना नीति आयोग की एक रिपोर्ट में भी की गई है। उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा दी गई लैपटॉप जैसी मुफ्त सुविधाओं ने वहां के स्कूलों के बुनियादी ढांचे, शिक्षकों के कौशल, शिक्षा गुणवत्ता या सीखने के परिणामों में सुधार जैसे अधिक जरूरी मुद्दों से ध्यान भटका दिया। हिमाचल प्रदेश जैसे राज्यों को ऐसी सुविधाओं से सचेत होने की आवश्यकता इसलिए भी अधिक है क्योंकि ऐसी मुफ्त की सुविधाओं से कहीं न कहीं प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से पर्यावरण पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकते हैं, जैसे पानी, बिजली या ईंधन जैसे प्राकृतिक संसाधनों के अति प्रयोग और बर्बादी को बढ़ावा देकर ये एकदम फ्री सेवाएं पर्यावरण पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकती हैं। उदाहरण के लिए मुफ्त बिजली, मुफ्त पानी या मुफ्त गैस सिलेंडर जैसी चीजें पर्यावरण संरक्षण के प्रोत्साहन को कम कर सकती हैं और कार्बन फुटप्रिंट और प्रदूषण के स्तर को भी बढ़ा सकती हैं। सीएजी की एक रिपोर्ट कहती है कि पंजाब में किसानों के लिए मुफ्त बिजली के कारण बिजली का अत्यधिक उपयोग और बर्बादी, टैक्स-चोरी जैसी समस्याओं में वृद्धि हुई है। यहां ध्यातव्य यह है कि हिमाचल प्रदेश का एक वर्ग ऐसा है जो अभी भी गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन कर रहा है। ऐसे परिवार व युवा वर्ग जो बेरोजगार हों, उनको इन सुविधाओं के दायरे में रखना उचित हो सकता है, मगर सक्षम लोगों को मुफ्त की रेवडिय़ां बांटना ठीक नहीं है।

रमेश धवाला

भाजपा नेता


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