श्राद्ध कर्म की उपयोगिता एवं व्यावहारिकता

अपने पूर्वजों के सम्मान तथा उनकी आत्मिक शांति के लिए श्रद्धा का प्रतीक श्राद्ध अवश्य करें, परन्तु जीते जी उनसे प्रेम करें, उनका सम्मान करें, उन्हें सुख-शान्ति प्रदान करें। श्राद्ध कर्म का फर्ज निभाते हुए वृद्धों का दर्द भी महसूस करने का प्रयास करें। यह श्राद्ध कर्म सामाजिक रूप से पीढिय़ों की सुख-शांति के लिए आवश्यक है, वहीं पर सही अर्थों में इसकी व्यावहारिकता को समझने की आवश्यकता है। मूल्यों की रक्षा करते हुए जीवित प्रियजनों के लिए सेवा, आदर एवं श्रद्धा का भाव रखें…

भारतीय हिन्दू संस्कृति एवं परम्परा के अनुसार श्राद्ध का अभिप्राय श्रद्धा से है, इसलिए हर वर्ष पितृ पक्ष में अपने पूर्वजों को याद करते श्राद्ध कर्म किया जाता है। प्रत्येक वर्ष पितरों की प्रसन्नता, दु:खों से मुक्त होने का पर्व श्राद्ध 16 दिनों तक मनाया जाता है। प्रत्येक परिवारजन मृत्युतिथि पर श्राद्ध, पिंडदान, जलदान आदि करके पितरों को तृप्त करते हैं। सनातन धर्मावलंबियों द्वारा पितरों की कृपा और आशीर्वाद पाने के लिए तर्पण, श्राद्ध कर्म आदि करना आवश्यक समझा जाता है। ऐसा माना जाता है कि श्राद्ध करने से कुल में वीर, निरोगी, शतायु एवं श्रेय प्राप्त करने वाली संततियां उत्पन्न होती हैं। श्राद्ध करने से वृद्धि, पुष्टि, स्मरण शक्ति, धरणा शक्ति, पुत्र-पौत्रादि एवं ऐश्वर्य की वृद्धि होती है। भारतीय संस्कृति में पुत्रों या पौत्रों द्वारा पितरों के प्रति श्रद्धा तथा आस्था रखते हुए उनकी मुक्ति, सद्गति तथा शांति के लिए श्राद्ध कर्म करने का उत्तरदायित्व निभाना एक सभ्य, संस्कारी तथा जिम्मेदार मनुष्य की निशानी समझा जाता है।

श्राद्ध का अर्थ श्रद्धापूर्वक किया हुआ वह संस्कार जिससे पितर संतुष्टि प्राप्त करते हैं। पितृपक्ष आश्विन मास के कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा तिथि से शुरू होता है जो अमावस्या तक रहता है। मान्यता है कि पितृपक्ष में श्राद्ध और तर्पण करने से पितर प्रसन्न होते हैं और परिजनों को अपना आशीर्वाद प्रदान करते हैं। मानवीय मूल्यों पर विचार करते हुए यह ठीक भी है कि हमें पारिवारिक जड़ों को याद रखते हुए अपने पूर्वजों के लिए आदर एवं सम्मान व्यक्त करना चाहिए। धार्मिक संस्कारों तथा सामाजिक परम्पराओं को जीवित रखते हुए यह आवश्यक भी है। संस्कृति तथा परम्पराओं का सम्मान करते हुए व्यक्ति को कुछ आवश्यक बातों पर गम्भीरतापूर्वक भी विचार करना चाहिए। वर्ष में एक बार पितृपक्ष में श्राद्ध कर्म के समय अपने पूर्वजों तथा माता-पिता का कुत्ते, कौवे, गाय तथा भिखारी में अपने प्रियजनों का अक्स देखने वालों को यह याद रखना चाहिए कि हमने अमुक व्यक्ति के साथ उसकी मजबूरी, बीमारी तथा उसके जीते जी कैसा व्यवहार किया है? रूढि़वादी परम्पराओं में लिप्त तथा आडम्बर करते हुए अपने भावों की अभिव्यक्ति का कोई लाभ नहीं होता। यदि हमने किसी व्यक्ति के साथ समय रहते अच्छा व्यवहार नहीं किया हो, उसका दु:ख-दर्द महसूस न किया हो, मृत्युपरांत मात्र लोक लाज के लिए दिखावा एवं ढकोसलेबाजी करना कहां तक सही है? वर्तमान समाज में अपने माता-पिता तथा बुजुर्गों के साथ अपमान, अत्याचार, बदतमीजी तथा मारपीट करने की बहुत सी घटनाएं सामने आ रही हैं। घर के पालतु कुत्ते बुजुर्गों से अधिक प्रिय एवं सम्मानीय हो चुके हैं। घर में तकलीफ, लाचारी, बीमारी से ग्रसित वृद्ध रात भर कराहता रहता है।

भोजन, पानी तथा दवाई के लिए तरसता रहता है, लेकिन उसकी सुनवाई नहीं होती। संस्कार रहित युवा तथा घर के बच्चे भी उसकी उपेक्षा करते हुए बदतमीजी करते हैं। समाज में असहाय वृद्धों को घरों के भीतर मारपीट तथा प्रताडि़त किया जाता है। फिर मरने के बाद पितृ कर्म से पुण्य प्राप्त करने का आडम्बर करते हैं। ऐसे निष्ठुर तथा क्रूर लोगों को तो जन्मजन्मांतर तक भी सुख-शांति तथा चैन नहीं मिलना चाहिए। ऐसे व्यक्तियों को तो सामाजिक तथा कानूनी दृष्टि से अपराधी घोषित किया जाना चाहिए। वर्तमान समाज में वृद्ध आश्रम का खुलना विकास की निशानी समझा जा रहा है, लेकिन यह हमारी बुद्धि एवं सोच का दिवालियापन है। हालांकि किसी मजबूर एवं लाचार व्यक्ति के लिए ये वृद्धाश्रम वरदान भी साबित हुए हैं। कड़वा सच यह है कि समाज में अधिकतर वृद्ध अपनी ही औलादों के निकृष्ट एवं असंवेदनशील व्यवहार से कुंठित एवं ग्रसित हैं। घरों में वृद्धों को रखने तथा उनकी रोजाना भोजन व्यवस्था पर बेटों और बहुओं को आमतौर पर लड़ते-झगड़ते तथा हिसाब-किताब करते देखा गया है। अनेकों बड़े सम्भ्रांत परिवारों, पढ़े-लिखे, राजनेताओं, व्यापारियों तथा आला अधिकारियों के घरों में यह जगजाहिर तथा खुला सत्य है। यह बहुत ही गंभीर एवं विचित्र स्थिति है। ऐसे में विचार करने योग्य है कि मरने के चार वर्षों के उपरांत यदि किसी मृत आत्मा को श्राद्ध तिथि के अवसर पर पूड़ी, खीर, पकवान, फल, मेवे तथा वस्त्र मिल भी जाएं तो किस काम के? वृद्धाश्रम में रहने वाले उपेक्षित वृद्धों का मानना है कि जीते जी उनकी संतानें कपड़े, दवाई तथा खाने को भोजन नहीं देती तथा मरने के बाद लोकलाज के लिए श्राद्ध, पिंडदान तथा तर्पण का दिखावा करते हैं। अभी हाल ही में कानपुर के रेडियोलॉजिस्ट डॉ. प्रेम साहनी का बेटा उनकी मृत्यु पर कनाडा से घर नहीं पहुंच पाया।

उल्लेखनीय है कि डॉ. साहनी अपने आवासीय परिसर में ह्रदयघात या फिर कोई जहरीला पदार्थ निगलने से मृत पाए गए थे। चण्डीगढ़ निवासी उनकी बहन डॉ. डेजी तथा डॉ. संजीव ने उन्हें मुखाग्नि दी तथा उनके बेटे को वीडियो कॉल से अन्तिम दर्शन करवाए गए। समाज को आधुनिक, व्यावसायिक तथा भौतिकवादी इन विचित्र स्थितियों पर गम्भीरता से विचार करना होगा। अपने पूर्वजों के सम्मान तथा उनकी आत्मिक शांति के लिए श्रद्धा का प्रतीक श्राद्ध अवश्य करें, परन्तु जीते जी उनसे प्रेम करें, उनका सम्मान करें, उन्हें सुख-शान्ति प्रदान करें। श्राद्ध कर्म का फर्ज निभाते हुए वृद्धों का दर्द भी महसूस करने का प्रयास करें। यह श्राद्ध कर्म सामाजिक रूप से पीढिय़ों की सुख-शांति के लिए आवश्यक है, वहीं पर सही अर्थों में इसकी व्यावहारिकता को समझने की आवश्यकता है। मानवीय, सामाजिक, नैतिक तथा सांस्कृतिक मूल्यों की रक्षा करते हुए मृत प्रियजनों का श्रद्धापूर्वक श्राद्ध करते हुए जीवित प्रियजनों के लिए सेवा, आदर एवं श्रद्धा का भाव रखें।

प्रो. सुरेश शर्मा

शिक्षाविद


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