चंदरेयां नोटां ने मेरा चन्न परदेसी कीता

क्या भारत में संसाधनों तथा योग्यतानुसार सैलरी पैकेज की उपलब्धता नहीं हो सकती? भारत से प्रतिभाओं का पलायन रोकना होगा…

इस आलेख का शीर्षक आम तौर पर ट्रकों के पीछे लिखा रहता है, क्योंकि ट्रक का ड्राइवर परिवार के भरण पोषण के लिए हमेशा घर से दूर तथा सफर में ही रहता है। लगभग दो-तीन दशक पूर्व यह बात इसलिए समझ नहीं आती थी क्योंकि ज्ञान, अनुभव और समझ भी कम थी। उस समय आबादी भी अधिक नहीं थी तथा गरिमापूर्ण तरीके से भरण-पोषण के अवसर भी मौजूद थे। घर के युवा तथा बड़े अपने गांव-शहर के आसपास ही मौजूद रहते थे। कोई न कोई काम-धंधा तथा नौकरी करने के बाद शाम को या सप्ताह के अंत में घर आ जाते थे। गांव-मुहल्ले में गिना-चुना सैनिक, इंजीनियर, रेलवे, कारखाने तथा फैक्टरी या किसी अन्य व्यवसाय में काम करने वाला व्यक्ति ही बाहर किसी देश तथा प्रदेश में होता था अन्यथा शिक्षक, क्लर्क, सिपाही, फारेस्ट गार्ड, मैकेनिक, कारपेंटर, चपरासी तो लगभग प्रत्येक परिवार में मौजूद रहता था। परिवारों का आकार बड़ा होता था। परिवार में आठ-दस भाई-बहन होना सामान्य था। रोजगार के अवसर उपलब्ध थे, परन्तु बहुत शिक्षित तथा व्यवसाय अनुसार योग्यता पूर्ण करने वाले लोग बहुत कम मिलते थे। बुजुर्ग अपने किसी लाडले पुत्र को अधिक नहीं पढ़ाते थे। उसे घर गृहस्थी, खेती बाड़ी तथा परिवार समाज के व्यवहार की दृष्टि से शिक्षण-प्रशिक्षण देते थे। परिवार में नौकरी करने वाले घर चलाने वाले व्यक्ति तथा उसके परिवार का पूरी तरह से ध्यान रखते। घर के बुजुर्ग भी संवेगात्मक, भावनात्मक, सुरक्षात्मक तथा मनोवैज्ञानिक रूप से सन्तुष्ट रहते। घर-परिवार तथा रिश्तेदारी में सरकारी नौकरी करने वालों की शान ही निराली थी। गांव तथा समाज के लोगों को अपने मित्र-सज्जन, भाई-बन्धु से आशा भी होती थी। सब अवसरों पर नौकरीशुदा व्यक्ति का आदर सम्मान होता था। परिवार, गांव तथा समाज में हर व्यक्ति की पहचान तथा मान-सम्मान था।

बहुत अधिक इच्छा, आशा, अपेक्षा तथा पैसे की भूख भी नहीं होती थी। बाहर से कोई परदेसी, अप्रवासी तथा कोई बाहरी व्यक्ति कामकाज के लिए नहीं आता था। दूरसंचार तथा आने-जाने के संसाधन सीमित थे। सरकारी रोजगार के अवसर भी उपलब्ध थे। संसाधनों के अभाव में जीवन कष्टदायक तो था, फिर भी शान्ति, संतुष्टि तथा संतोष था। कुछ दशकों के उपरांत घर-परिवार, समाज, प्रांत, देश तथा विदेश में ऐसी परिवर्तन की हवा चली कि सब कुछ बदल गया। सामाजिक आचार-व्यवहार, साधन, संसाधन, व्यक्ति की सोच तथा व्यवस्थाओं की नीतियों में परिवर्तन हुआ। कुछ तो हमने दुनिया को मुठ्ठी में कर लिया और कुछ दुनिया की मु_ी में हो गए। वैश्विक स्तर पर शिक्षा, आर्थिकी, संसाधन, विज्ञान, संचार, तकनीक, भौतिकवाद नीतियों ने हमारे जीवन में आशातीत परिवर्तन कर दिया। इस परिवर्तन से जहां हमारी जीवन शैली बदल गई, वहीं हम ही अपने से तथा अपनों से ही दूर होते गए। हमारा सामान्य तथा प्राकृतिक जीवन पूरी तरह से परिवर्तित हो गया। परिवार, गांव तथा समाज टूटते तथा बिखरते गए। परिणामस्वरूप नई सोच, नया व्यवहार, नई संस्कृति तथा सभ्यता का जन्म हुआ। हम अपने आप तथा अपने परिवार तक सीमित तथा संकुचित होते गए। सामाजिक तथा सामूहिक सरोकार लगभग समाप्त ही हो गए। हम व्यक्तिवादी, स्वार्थी, सीमित तथा संकुचित हो चुके हैं। चारों ओर छीना-झपटी, अवसरवादिता तथा असंतोष व्याप्त है। खुमार बाराबंकवी का एक शे’र याद आ रहा है : ‘चरागों के बदले मकां जल रहे हैं/ नया है जमाना, नई रौशनी है।’ वर्तमान सामाजिक व्यवस्था में हर परिवार में एक या दो बच्चे हैं। छोटे से बड़ा व्यक्ति अपने बच्चों को अच्छी और महंगी शिक्षा देने को प्रयासरत तथा प्रतिबद्ध है। माता-पिता बच्चों की ख्वाहिशें पूरी करने में कोई कसर नहीं छोड़ते। व्यवस्थाओं के प्रयासों से शिक्षा में गुणवत्ता बहुत दूर होती गई। कार्य संस्कृति लगभग समाप्त ही है। सरकारी उपक्रमों में रोजगार उपलब्ध ही नहीं। अगर किसी को मौका मिलता है तो लोग काम नहीं करना चाहते। बहुत ही कम लोग ईमानदारी तथा संकल्पित होकर कार्य कर रहे हैं।

जो व्यक्ति समर्पित भाव से कार्य करना चाहता है, उसकी कोई पहचान नहीं है। जिम्मेदारी तथा कर्मठता से कार्य करना चुनौतीपूर्ण हो गया है। जान-पहचान तथा प्रभावशाली व्यक्तियों का बोलबाला हो गया है। रोजगार के अवसर न के बराबर हैं। जहां रोजगार उपलब्ध है, वहां सामान्य रूप से प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावशाली व्यक्तियों तथा व्यवस्थाओं का हस्तक्षेप हो ही जाता है। योग्यता को दरकिनार होते देखा जाता है। किसी भी कीमत पर हम अवसरों को हथियाना चाहते हैं। नई पीढ़ी को विषय-विकारों तथा नशों ने घेर रखा है। अच्छी शिक्षा तथा संस्कारों से युक्त कुछ युवा बहुत ही प्रखर, प्रतिभाशाली तथा योग्य हैं। बहुत संस्कारी तथा ज्ञान-ध्यान रखते हैं। महंगी शिक्षा प्राप्त इन योग्य तथा प्रखर बुद्धि से युक्त युवाओं को घर के आसपास रोजगार उपलब्ध नहीं हैं। सरकारों तथा व्यवस्थाओं में उनकी योग्यता, शिक्षा तथा कौशल के मुताबिक वेतन तथा पैकेज देने की क्षमता नहीं है। इसलिए वे अच्छे पैकेज तथा सुख-सुविधाओं के लिए महानगरों या फिर विदेशों का रुख करते हैं। निजी कम्पनियां पैसा अवश्य देती हैं, लेकिन दिन-रात काम लेकर जान निकल कर रख देती हैं। साल-छह महीने के बाद भी छुट्टी नहीं दी जाती। माता-पिता तथा परिजन विवाह, शादियों, शुभ अवसरों तथा तीज-त्योहारों पर अपने लाडलों की प्रतीक्षा करते हैं। अगर किसी अवसर पर सीमित छुट्टी में घर पर पहुंच भी जाते हैं तो अपने ही बच्चे मेहमान बन कर ही आते हैं। आठ-दस दिन की छुट्टी में दो-दो दिन आने-जाने में, दो दिन घूमने-फिरने में, दो दिन सगे सम्बन्धियों से मिलने तथा दो दिन वापसी की तैयारियों में लग जाते हैं। इसलिए तीन दशक पहले ट्रकों पर लिखा हुआ रोजगार, परिवार के भरण पोषण का दर्द, मजबूरी तथा पीड़ा ‘चन्दरेयां नोटां ने मेरा चन्न परदेसी कीता’ के मायने अब समझ आते हैं।

इस वाक्य में वर्णित ड्राइवरों का दु:ख-दर्द, पीड़ा तथा उनके परिजनों की वेदना वर्तमान परिदृश्य तथा परिपे्रक्ष्य में अब बेरोजगारों की पीड़ा तथा आज की व्यवस्था संचालकों की नीति एवं नीयत समझ आती है। यह कोई बहुत सामान्य बात नहीं है। इस पर गम्भीरतापूर्वक विचार तथा मंथन होना चाहिए। इसके लिए कौन जिम्मेदार है? सरकारों तथा व्यवस्थाओं की क्या जिम्मेदारी है? हमारा पढ़ा-लिखा तथा योग्य नौजवान रोजगार के लिए देस-परदेस तथा विदेश का रुख क्यों करता है? क्या भारतवर्ष में इस तरह के संसाधनों तथा योग्यतानुसार सैलरी पैकेज की उपलब्धता नहीं हो सकती? भारत से प्रतिभाओं का पलायन रोकना होगा।

प्रो. सुरेश शर्मा

शिक्षाविद


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