गोबर के गुलगुले

By: Nov 21st, 2023 12:05 am

देश में जब तक आज़ादी का अमृत काल नहीं उतरा था, आम जनता गुड़ से बने गुलगुले खाती थी। उस वक्त हिन्दी की एक मशहूर कहावत चलती नहीं दौड़ती थी- गुड़ खाए, गुलगुलों से परहेज़। लेकिन जब से भक्तों ने गुड़ की जगह गोबर खाना शुरू किया है, लगता है इस कहावत को बदलने का समय आ गया है। अब कहना हो तो कहना चाहिए- गोबर खाय, गुलगुलों से परहेज़। मुझे लगता है कि जो भक्त हैं, अगर उन्हें तनिक भी प्रेरित किया जाए तो वे गोबर के गुलगुले खाने से परहेज़ नहीं करेंगे। जब कई भक्त बाक़ायदा गोबर खाने के वीडियो बना कर सोशल मीडिया पर अपलोड कर सकते हैं तो वे इसके गुलगुले खाने से क्यों कर परहेज़ करेंगे। बस थोड़ी सी मोटीवेशन की ज़रूरत है। जब लोग बिना मोटीवेशन के ही इजऱायल के समर्थन में हमास से लडऩे गज़ा जा सकते हैं तो मोटीवेशन के बाद हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के लिए गोबर के गुलगुले भी खा सकते हैं। रही बात लद्दाख में चीनी क़ब्ज़े की तो उसे छुड़ाने के लिए किसी भी भक्त को अपने आपको वालंटियर करने की आवश्यकता नहीं। अपनी ज़मीन है, अगर किसी को दे भी दी तो हमारी मजऱ्ी। फिर हमारा तो इतिहास ही रहा है कि हम सभी मेहमानों का स्वागत पान पराग, क्षमा करें धूमधाम से करते हैं। हमारे लिए अतिथि देवो भव: हैं। चीन हमारा ख़ास मेहमान है। हमारा देश चीनी सामान का सबसे बड़ा आयातक है। हम अपनी दिवाली उनकी झालरों, लालटेन और लैम्पों से रौशन करते हैं। हमारे विदेश मंत्री एस. जयशंकर कहते हैं कि चीन हमसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। हम उससे पंगा नहीं ले सकते। जब किसी से पंगा लेने की हिम्मत न हो तो बेहतर होता है कि उसकी जी-हुजूरी की जाए। उसे झूला झुलाया जाए। फिर उसे मनचाहा नाम दे दिया जाए। क्या फर्क पड़ता है।

खाने तो गुलगुले ही हैं, वह भी गोबर के। जब लोग बिना किसी मोटीवेशन के सडक़ों पर गायों को खुला छोड़ सकते हैं और गोभक्ति की मोटीवेशन पर किसी विधर्मी की मॉब लिंचिंग कर सकते हैं तो क्या थोड़ी सी प्रेरणा मिलने अपनी गो-माता के सम्मान में गोबर के गुलगुले नहीं खा सकते। यूँ भी चुनावों के दौरान प्रधानमंत्री सहित हमारे नेता जिस भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं, उससे तो यही लगता है कि माननीयों सहित आम जन भी बिना किसी शर्मो-हया के गोबर खाने में मस्त हैं। प्रधानमंत्री का पद भले बड़ा हो, लेकिन उस पर बैठने वाले व्यक्ति का क़द इतना छोटा हो गया है कि उस पर बैठा आदमी अक्सर परी कथाओं के बौने की तरह अदृश्य हो उठता है। वह आँखे फाड़ कर देखने पर तभी नजऱ आता है जब उसकी ज़बान से निकलने वाला अगड़म-बगड़म लोगों के कान में गड़ता है। यह गोबर के गुलगुलों का ही प्रभाव है कि देश वैश्विक गुरू बनने के बाद आत्ममुग्धता की पींगें झूल रहा है और सम्मोहित लोग भूखे पेट राष्ट्रवाद के गीत गाते हुए झूम रहे हैं। भूख का इलाज भले गोबर न हो, लेकिन गोबर कैंसर का उपचार बेहद कारगर ढँग से कर सकता है।

मुझे इस बात की पूरी उम्मीद है कि आने वाले समय में अगर लोग राष्ट्रवाद के नाम पर सरकार को सहयोग दें तो हो सकता है कि सरकार गोबर की प्रोसेसिंग के लिए श्रेष्ठतम वैश्विक प्रोद्यौगिकी वाले प्लांट लगाने के बाद गोबर के उत्तम गुणवत्ता वाले गुलगुलों का उत्पादन करे जो न केवल खाने में स्वादिष्ट हों, बल्कि सुपाच्य भी हों। इससे सरकार को अस्सी करोड़ लोगों को प्रति माह दिए जाने वाले नि:शुल्क पाँच किलो राशन से भी छुटकारा पाने में मदद मिलेगी। लोगों को घर बैठे रोजग़ार के जो अवसर प्राप्त होंगे, सो अलग। गुलगुले बनाने के लिए छत्तीसगढ़ सरकार की गोधन न्याय योजना की तजऱ् पर अन्य सरकारें गोबर खऱीद योजनाएं आरम्भ कर सकती हैं। अगर सरकार चाहे तो अपने चहेते व्यापारी मित्रों को गोबर प्रोद्यौगिकी के विकास और उन्नयन के लिए खरबों रुपये के आर्थिक पैकेज मुहैया करवा कर चीन ही नहीं, पूरे विश्व को गोबर के गुलगुलों के निर्यात के मामले में तो मात दे ही सकती है।

पीए सिद्धार्थ

स्वतंत्र लेखक


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