मरीज को मुसाफिर न बनाएं
अस्पताल से स्वस्थ होकर लौटना, खुद के आत्मबल को जीतना भी है। जीवन संघर्ष की दास्तान का एक ताल्लुक हिमाचल की स्वास्थ्य सेवाओं और बदलते परिदृश्य में सार्वजनिक अस्पतालों और अब मेडिकल कालेजों की व्यवस्था से भी है। भीड़ बढ़ती जा रही उस मुकाम पे, जहां हर डाक्टर को देखती निगाहें एहतराम से। इस व्यवस्था के बीच चीखती जिंदगी के कई पहलू कई विराम पैदा होते हैं, तो हमारी आस्था के ये संस्थान मरीज को मुसाफिर बना देते हैं, यानी हर दिन जिंदगी को धकियाते मिल जाएंगे वही, जिन पर भरोसा करके हमने यह इंतजाम किया है। गनीमत है कि कुछ लोग समय से पहले हिमाचल के मेडिकल संस्थानों पर भरोसा करना छोड़ कर कहीं बाहर निकल जाते, वरना एक असंवेदनशील माहौल से हम प्रार्थना करते-करते कई बार बहुत कुछ खो देते हैं। जिनके अपने अस्पताल से जीवित नहीं लौटते, उन्हें पूछें कि मरीज को मुसाफिर बना देने की व्यवस्था अंतत: कितनी जोखिमभरी है। कुछ लौट आते हैं। कुछ सरकारी डाक्टर बचा लेते होंगे, लेकिन हर संस्थान से बाहर निकलती एंबुलेंंस का अंजाम, एक कहानी है अपूर्णता, अविश्वास, लापरवाही और असंवेदनशीलता की। कभी अपनी चिकित्सा पर्ची पर उन सुनहरी अक्षरों में लिखी दवाई का गुणात्मक परितोषिक देखना कि हमें कितना अनावश्यक बारूद खिलाया जा रहा है। कभी मेडिकल कालेजों के उपकरणों में अटकी सांसों को सुनना कि क्यों हर तीसरे दिन ये मशीनें काम नहीं करती हैं। एक समय ऐसा भी था जब जिला या जोनल अस्पताल ही अपने कंधों पर जिम्मेदारी ओढ़ लेते थे, लेकिन आज कोई मेडिकल कालेज तक यह बताने को तैयार नहीं कि क्या वह राज्य के मुख्यमंत्री को अति उत्तम स्वास्थ्य लाभ दे पाएगा।
यहां फिर धन्यवाद दिल्ली के एम्स का कि उसने हमारे प्रदेश के मुखिया को फिर से ऊर्जावान बना कर चिकित्सा पर विश्वास बढ़ाया, वरना सारे कहकहे हिमाचल में नासूर की तरह चुभते हैं। हमने हर सरकार में देखा कि एक बड़े पदभार के साथ स्वास्थ्य मंत्री, निदेशक एवं सचिव चिकित्सा होते है, लेकिन किसे परवाह है कि स्वास्थ्य संस्थानों के निरीक्षण-परीक्षण में सक्रिय भूमिका निभाएं। अस्पताल अब एक घोषणा हैं, राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा और क्षेत्रवाद का तमगा, वरना मरीज यूं दर-दर न भटकते। मुख्यमंत्री के स्वस्थ होकर लौटने की खुशी हिमाचल के लिए एक राहत है, लेकिन कहीं तो हमारे चिकित्सा संस्थान इस गौरव के पात्र नहीं। हो सकता है इसी तरह की बीमारी के लक्षण हिमाचल के हर अस्पताल तक पहुंच रहे हों, लेकिन वहां की पद्धति, परिपक्वता और काबिलीयत पर भरोसा क्यों करें। अब एक ओर शीर्षासन यह कि प्रदेश मेडिकल यूनिवर्सिटी के लिए उचित जमीन ढूंढे और इमारतें खड़ी करें, लेकिन अगर गांव की डिस्पेंसरी, शहर का अस्पताल, जिला अस्पताल या मेडिकल कालेज तक असफल हो तो यह क्या कर लेगी। आखिर कब तक हमें पीजीआई, दिल्ली एम्स या लुधियाना का अस्पताल बचाएगा। इस बीच निजी अस्पतालों की खेप में उतरते खतरे को भी समझना होगा, जहां मरीज का एक ग्राहक की तरह दोहन हो रहा है। उपचार के मार्फत हिमाचल में सज रहा बाजार क्या सार्वजनिक अस्पतालों की काबिलीयत से बेहतर है, यकीनन नहीं क्योंकि धकियाते मरीजों के लिए ये भी सहारा नहीं बन रहे।
ऐसे में मुख्यमंत्री व्यवस्था परिवर्तन के रुख को मोड़ते हुए समग्रता से हिमाचल की चिकित्सा पद्धति की डींगों के पीछे के सत्य को जांच कर, कुछ नया कर दिखाएं। हमें इमारतें नहीं, अमल चाहिए। जिला स्तर पर ही जो अस्पताल सौ से तीन सौ बेड के हैं, उन्हें इतना सक्षम बनाएं कि ये निजी संस्थानों की तरह चौबीस घंटे की इमरजेंसी को खुद संबोधित कर पाएं। ताज्जुब यह कि ऐसे अस्पतालों की आपातकालीन सेवाएं केवल औपचारिकता से मेडिकल कालेजों के गलियारे भर रही हैं। सर्वेक्षण से मालूम होगा कि क्यों निचले स्तर पर मरीजों को आगे धकियाया जा रहा है। अब समय आ गया है कि सरकारी मेडिकल कालेजों में से एक यानी टीएमसी को स्नातकोत्तर संस्थान बनाने के अलावा जिला अस्पतालों को किसी न किसी रोग के राज्य स्तरीय उत्कृष्ट संस्थान के रूप में सुसज्जित, व्यवस्थित तथा परिमार्जित किया जाए। जब कभी हिमाचल के मुख्यमंत्रियों को बाहरी चिकित्सा संस्थानों का रुख करना पड़ता है, तो इसका प्रतिकूल प्रभाव प्रदेश की चिकित्सा प्रणाली की छवि पर होता है। आखिर कभी तो जवाबदेही, पारदर्शिता के साथ यह विश£ेषण किया जाए कि हिमाचल खुद अपने स्वास्थ्य की देखभाल कर सकता है।
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