हिमाचली हिंदी कहानी : विकास यात्रा

By: Nov 26th, 2023 12:05 am

डा. हेमराज कौशिक

अतिथि संपादक

मो.-9418010646

कहानी के प्रभाव क्षेत्र में उभरा हिमाचली सृजन, अब अपनी प्रासंगिकता और पुरुषार्थ के साथ परिवेश का प्रतिनिधित्व भी कर रहा है। गद्य साहित्य के गंतव्य को छूते संदर्भों में हिमाचल के घटनाक्रम, जीवन शैली, सामाजिक विडंबनाओं, चीखते पहाड़ों का दर्द, विस्थापन की पीड़ा और आर्थिक अपराधों को समेटती कहानी की कथावस्तु, चरित्र चित्रण, भाषा शैली व उद्देश्यों की समीक्षा करती यह शृंखला। कहानी का यह संसार कल्पना-परिकल्पना और यथार्थ की मिट्टी को विविध सांचों में कितना ढाल पाया। कहानी की यात्रा के मार्मिक, भावनात्मक और कलात्मक पहलुओं पर एक विस्तृत दृष्टि डाल रहे हैं वरिष्ठ समीक्षक एवं मर्मज्ञ साहित्यकार डा. हेमराज कौशिक, आरंभिक विवेचन के साथ किस्त-3२

-(पिछले अंक का शेष भाग)

तारा नेगी का प्रथम कहानी संग्रह ‘दायरे’ (1995) शीर्षक से प्रकाशित है जिसमें उनकी सोलह कहानियां- हकीकत, सिमटे पल, मेहमान, यथार्थ, दहशत, दायरे, बिन्दी, समझौता, अस्तित्व, विदाई, स्थिति, वापसी, संकट, रिश्ते, जलजला और नियति संगृहीत हैं। तारा नेगी की ‘हकीकत’ शीर्षक कहानी में हिमाचल प्रदेश के पर्वतीय क्षेत्र से दिल्ली जैसे महानगर में विवाह करके रहने वाली युवती मीता के संघर्ष का चित्रण है। उसका संघर्ष पारिवारिक जीवन के साथ स्वयं निजी बीमारी से भी है। वह आत्मनिर्भर होने के लिए ब्यूटी पार्लर खोलती है। नैरेटर जो स्वयं दूरस्थ पर्वतीय क्षेत्र से है, उसके संपर्क में और अधिक प्रगाढ़ता आती है, जब पहाड़ी भाषा के शब्दों के माध्यम से उसे ज्ञात होता है कि वह उस प्रदेश और क्षेत्र से संबंध रखता है जहां से वह स्वयं संबंध रखती है। मीता की चित्र सृष्टि के माध्यम से कहानीकार ने उन युवतियों के जीवन संघर्ष को चित्रित किया है जो विवाह कर महानगरों में आकर रहती हैं। पति का बिजनेस, उनकी अवांछित आदतें उन्हें अंदर ही अंदर तोड़ डालती हैं। मीता कैंसर पीडि़त होकर तीन वर्ष के विवाहित जीवन के बाद इस दुनिया को छोड़ देती है। शहर के बेगानेपन में वह अपने मन की व्यथा किसी से नहीं कह पाती है। ‘सिमटे पल’ में हिमाच्छादित पर्वत श्रृंखलाओं में स्थित गांव के जीवन के संघर्ष और दुश्वारियों का चित्रण है। आज के भौतिकवादी युग में जहां व्यक्ति अपने स्वार्थ तक केंद्रित है, वहां सुदूरवर्ती गांव में प्रेम, सौहार्द और सहयोग की भावना निहित है। प्रस्तुत कहानी में सोहण की रुग्णावस्था में सरजू और उसका बेटा रमेश परस्पर वैमनस्य होने के बावजूद विपत्ति ग्रस्त होने पर मदद करते हैं।

सरजू सोहण के अतिरिक्त उसकी पत्नी और बच्चों का उस कठिन समय में सहायक होता है। सोहण की पत्नी को सरजू अपनी मां सी सगी प्रतीत होती है और और गांव के लोग अपने नजदीकी रिश्तेदारों से भी ज्यादा मददगार प्रतीत होते हैं। भीषण हिमपात के कारण पांच दिनों की सिमटी जिंदगी उस समय खुलती है जब हिमपात की भयावहता थम जाती है और मौसम खुशहाल हो जाता है और दूसरी ओर सोहण की तबीयत संभल जाती है। पांच दिनों की सिमटी जिंदगी का अंधेरा छंट जाता है। संग्रह की शीर्ष कहानी ‘दायरे’ संबंधों में आए बदलाव को निरूपित करती है। मां की मृत्यु के अनंतर एक मेले में मायके आयी बेटी अंकिता के चिंतन और पूर्व स्मृतियों के माध्यम से परिवार में आये परिवर्तन को रेखांकित किया है। वह सोचती है ‘नाते रिश्तेदारी यूं रूखे व्यवहार से बरकरार रह सकती है? घर आया मेहमान किसी की सुख समृद्धि का खुले दिल और इज्जत का कायल होता है।’ अंकिता मां की स्मृतियों में डूबी मेलों के प्रति पीढ़ीगत उत्साह और वर्तमान में उसके परिवर्तन को रेखांकित करती है। साथ में मां के निधन के बाद भाभी के व्यवहार के माध्यम से आतिथ्य भाव में आए परिवर्तन को निरूपित करती है। ‘नियति’ में कहानीकार ने कांता की चरित्र सृष्टि के माध्यम से पर्वतीय क्षेत्र में स्त्रियों के दुश्वारी भरे जीवन का अंकन है। प्रात: से सायं तक गांव में घर गृहस्थी से लेकर जमीन, खेत, फसल और पशुओं की देखरेख, बच्चों के पालन पोषण में अपने आपको पूरी तरह समर्पित करने वाली नारी की नियति का चित्रण है। ‘मेहमान’ रोमैंटिक रेशों से निर्मित प्रेम कहानी है जिसमें रचना और नवीन का किशोरवय का प्रेम है। कालांतर में रचना का विवाह रंजीत से होता है और उनके पांच वर्ष का बेटा भी है। दस वर्ष के अंतराल के बाद अचानक नवीन उसके घर उस समय आता है जब उसके पति कहीं बाहर टूर पर होते हैं। वह रात्रि को वहां ठहरता भी है, परंतु दोनों अपनी-अपनी परिधि में बंद रहते हैं। परंतु उनका प्रेम बना रहता है।

‘यथार्थ’ शीर्षक कहानी में दिल्ली महानगर में रहने वाली युवती अनीता जब रतन से विवाह करने के अनंतर वर्षों बाद अपने पति के साथ गांव में स्थित घर में लौटती है तो अनीता के मन में पहाड़ का सौंदर्य देखने की उत्सुकता होती है। मैदान में रहने वाली बहू के लिए पहाड़ों का सौंदर्य दूर से अभिभूत करता है। उस अनूठे सौंदर्य को देखने की बलवती उत्कंठा होती है। वहां के कठिन जीवन से जब वह साक्षात्कार करती है और पहाड़ों का मौसम देखती है तो शीघ्र शहर लौटना चाहती है। ‘दहशत’ भी एक सशक्त कहानी है। इसमें महानगर में रहने वाले लोगों के मध्य महामारी को लेकर एक दहशत फैलती है जिसके परिणामस्वरूप परस्पर रिश्तों के सूत्र क्षीण हो जाते हैं। दहशत भरे परिवेश में जब कामवाली उनके घर में आती है तो उस तनाव भरे वातावरण में वह उसको लौटने के लिए कहते हैं। उन्हें संदेह होता है कि संक्रमण उससे ही न फैल जाए। कहानी में मिस्टर और मिसेज रावत के परस्पर संवाद उस दहशत भरे वातावरण को मूर्तिमान करते हैं। अपने ही गांव से आया एक परिचित व्यक्ति जब शहर में उनके घर पर पहुंचता है तो उनके मन में महामारी को लेकर संशय उत्पन्न होता है। कहानीकार ने यह भी प्रतिपादित किया है कि शहरों में जिस तरह के संशय का वातावरण महामारी को लेकर व्याप्त होता, उस तरह का गांव में नहीं होता है। कहानीकार तारा नेगी की संदर्भित संग्रह की कहानियां सुदूर पहाड़ी ग्रामीण क्षेत्रों में जीवन के संघर्ष और जिजीविषा को रेखांकित करती हैं। उनकी कहानियों में मीता, कांता, सरजू, बिंदी, लीला आदि अविस्मरणीय चरित्र हैं जो पहाड़ी जीवन के यथार्थ को निरूपित करते हैं। लघु कलेवर की ये कहानियां वस्तु और शिल्प की दृष्टि से सुगठित हैं। निकट परिवेश में विन्यस्त इन कहानियों की सहज अनुभूति और सहज अभिव्यक्ति पाठक को आकर्षित करती है। रजनीकांत का विवेच्य अवधि में ‘बीते लम्हों का दर्द’ (1995) शीर्षक से कहानी संग्रह प्रकाशित है। इसमें उनकी इक्कीस कहानियां- विवृत, वापसी, ताऊ जी, इंक्वारी, थकते कदम, प्रश्नों के घेरे, एक और बहादुर की मौत, प्रतिशोध, आदत से मजबूर, ममता की धूप छांव, रोग का निदान, साक्षात्कार, यथार्थ के पांव, बीते लम्हों का दर्द, रिश्ते, रिश्ते कागज के, बदलते परिवेश, श्रद्धा, पराया दुख अपना दुख, फूलां और एक और मीरा संगृहीत हैं।

संदर्भित संग्रह की पहली कहानी ‘विवृत’ संबंधों पर केंद्रित है। गांव से निकलकर महानगरों में उच्च पदों पर आसीन निकट संबंधी अपनी ही परिधि में बंद हो जाते हैं और आत्मीय संबंधों को विस्मृत कर उनके प्रति उपेक्षा भाव रखते हैं। कहानी में बहन की महानगर में उच्च पद पर आसीन भाई के प्रति आत्मीयता, स्नेह और विश्वास है। इसलिए अपने पढ़े-लिखे बेटे को आजीविका दिलाने में सहयोग करने के लिए उनके पास भेजती है। परंतु बेटे का मामा अपने भानजे को शहर से गांव इस मिथ्या सांत्वना के साथ भेजता है, जब अवसर आएगा, वह स्वयं बुला लेगा। भाई स्वयं भी कुछ दिनों के लिए गांव आता है। बहन भाई को मिलने पहुंचती है, परंतु तब तक वह शहर को लौट चुका होता है। बहन निराश होती है। परंतु उसमें फिर भी भाई पर भरोसा है कि वह उसे मिलेगा और बेटे की आजीविका में सहायक होगा। परंतु वह दिन कभी नहीं आता। ‘वापसी’ में डॉ. रतन केंद्रीय चरित्र है। वह डाक्टर की उपाधि अर्जित कर गांव में लौटता है। वह अपने बाबा की अंतिम इच्छा की पूर्ति के लिए गांव में क्लीनिक स्थापित कर ग्रामीण समाज की सेवा करना चाहता है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उसकी मां गांव के जीर्ण-शीर्ण मकान को ठीक करवाती है। परंतु गांव में व्याप्त उसके प्रति ईष्र्या द्वेष, कलह और प्रधान की ओछी राजनीति को अनुभव करके निराशा में डूब कर अपने निर्णय को परिवर्तित करने के लिए विवश होता है। ‘ताऊ जी’ शीर्षक कहानी नि:संतान सेवानिवृत्त शिक्षक के दांपत्य जीवन पर केंद्रित है। इस कहानी में सेवानिवृत्ति के अनंतर दाम्पत्य जीवन में परस्पर सामंजस्य के अभाव के कारण उत्पन्न स्थितियों का निरूपण है। सेवानिवृत्ति के बाद पति पत्नी की उपेक्षा, कटाक्ष और क्रोध की ज्वाला से आहत होकर हरिद्वार जाकर जल समाधि लेने लगता है, परंतु पुलिस कांस्टेबल बचा लेता है।

वह अपने प्रिय भतीजे के पास जाता है। वह उन्हें समझा बुझाकर घर भेजता है। ‘इंक्वारी’ विभागीय दायरों में उलझते पति-पत्नी संबंधों की टकराहट का चित्रण है। ‘थकते कदम’ में आधुनिकता की चकाचौंध में संतति के अपने माता-पिता के प्रति दृष्टिकोण को रेखांकित किया है। कहानी में माता-पिता मजदूरी करके बेटे को शिक्षा अर्जित करवा कर शहर में नौकरी दिलवाने में सहायक होते हैं। बेटा गांव जब लौटता है तो पिता उसका सामान स्वयं उठाकर लाता है। अपनी मध्यवर्गीय प्रदर्शन वृत्ति के कारण बेटा अपने पिता को दूसरों के समक्ष कुली के रूप में परिचय देता है। पिता को जब चाय वाले से यह ज्ञात होता है तो पिता पुत्र के इस कथन और दृष्टिकोण से आहत होता है। ‘प्रश्नों के घेरे’ में अनमेल विवाह से उत्पन्न स्थितियों का चित्रण है। सेठ अपनी धन शक्ति के बल पर सुंदर युवती को उसके पिता को पैसे देकर विवाह करता है, परंतु पत्नी में अधेड़ उम्र के सेठ के प्रति अनुरक्ति नहीं होती है। सेठ की सुंदर पत्नी सोमा अपनी आयु के युवक की ओर आकर्षित होती है। देह संबंध स्थापित करने के फलस्वरूप गर्भवती होती है। कुछ समय पश्चात उसका मदिरा व्यसनी पति मृत्यु को प्राप्त होता है। पत्नी अपने युवा प्रेमी के पास जो अन्यत्र स्थानांतरित हो चुका होता है, उसके कार्यालय का पता कर उसके पास पहुंचती है, परंतु वह घर के सदस्यों की स्वीकृति की बात का बहाना बना कर विवाह करने को तैयार नहीं होता। प्रस्तुत कहानी पुरुष की स्वार्थ वृत्ति और नारी को उपभोग की वस्तु मानने वाले पुरुष समाज के यथार्थ को सामने लाती है। ‘एक और बहादुर की मौत’ में एक नेपाली मजदूर का चित्रण है जो दिन-रात मजदूरी करके गुजारा करता है। वह अपनी पगार बढ़ाने का आग्रह करता है, परंतु उसकी मजदूरी को नहीं बढ़ाया जाता। बाद में वह कमरे में मृत पाया जाता है। ‘प्रतिशोध’ में कहानीकार ने जगन्नाथ की चरित्र सृष्टि के माध्यम से यह प्रतिपादित किया है कि क्रोध और प्रतिशोध की भावना मनुष्य को किस प्रकार नाना प्रकार के संकटों में डालकर जेल की सलाखों तक पहुंचाती है। एक अन्य कहानी ‘आदत से मजबूर’ रमेश के इर्द-गिर्द विन्यस्त की गई है जो मद्य व्यसनी है।

निरंतर मदिरा सेवन से वह अपने आत्मीय और परिवारजन से झगड़ा करता है। पिता और भाई के कठिन परिश्रम से कमाए हुए पैसे को वह उड़ता है। यहां तक कि अपने नाम का प्लाट भी बेचकर उसकी शराब पी जाता है। बच्चों की कसम खाकर भी वह मदिरा नहीं छोड़ता, आदत से मजबूर रहता है। ‘ममता की धूप छांव’ शीर्षक कहानी एक प्रसवा स्त्री के अंतद्र्वंद्व ग्रस्त मन के इर्द-गिर्द विन्यस्त की गई है। वह बेटा या बेटी पैदा होने के लिए स्वयं को मानसिक रूप से तैयार कर लेती है। बेटे के उत्पन्न होने पर उसका मन इसलिए चिंतन में लीन होता है कि उसका भाई पवन परिणय सूत्र में बंधने के अनंतर अपने मां-बाप से लड़-झगड़ कर पृथक रहने लगा था। माता-पिता ने उसे कितना समझाया था उस घटना को स्मरण करते हुए वह सोचती है न जाने मेरा बेटा कैसा निकलेगा? बेटा और बेटी के जन्म पर प्रसन्नता को भी इस संदर्भ में रूपायित किया है।

-(शेष भाग अगले अंक में)

हिमाचल का कहानी संसार

विमर्श के बिंदु

1. हिमाचल की कहानी यात्रा
2. कहानीकारों का विश्लेषण
3. कहानी की जगह, जिरह और परिवेश
4. राष्ट्रीय स्तर पर हिमाचली कहानी की गूंज
5. हिमाचल के आलोचना पक्ष में कहानी
6. हिमाचल के कहानीकारों का बौद्धिक, सांस्कृतिक, भौगोलिक व राजनीतिक पक्ष

लेखक का परिचय

नाम : डॉ. हेमराज कौशिक, जन्म : 9 दिसम्बर 1949 को जिला सोलन के अंतर्गत अर्की तहसील के बातल गांव में। पिता का नाम : श्री जयानंद कौशिक, माता का नाम : श्रीमती चिन्तामणि कौशिक, शिक्षा : एमए, एमएड, एम. फिल, पीएचडी (हिन्दी), व्यवसाय : हिमाचल प्रदेश शिक्षा विभाग में सैंतीस वर्षों तक हिन्दी प्राध्यापक का कार्य करते हुए प्रधानाचार्य के रूप में सेवानिवृत्त। कुल प्रकाशित पुस्तकें : 17, मुख्य पुस्तकें : अमृतलाल नागर के उपन्यास, मूल्य और हिंदी उपन्यास, कथा की दुनिया : एक प्रत्यवलोकन, साहित्य सेवी राजनेता शांता कुमार, साहित्य के आस्वाद, क्रांतिकारी साहित्यकार यशपाल और कथा समय की गतिशीलता। पुरस्कार एवं सम्मान : 1. वर्ष 1991 के लिए राष्ट्रीय शिक्षक पुरस्कार से भारत के राष्ट्रपति द्वारा अलंकृत, 2. हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा राष्ट्रभाषा हिन्दी की सतत उत्कृष्ट एवं समर्पित सेवा के लिए सरस्वती सम्मान से 1998 में राष्ट्रभाषा सम्मेलन में अलंकृत, 3. आथर्ज गिल्ड ऑफ हिमाचल (पंजी.) द्वारा साहित्य सृजन में योगदान के लिए 2011 का लेखक सम्मान, भुट्टी वीवर्ज कोआप्रेटिव सोसाइटी लिमिटिड द्वारा वर्ष 2018 के वेदराम राष्ट्रीय पुरस्कार से अलंकृत, कला, भाषा, संस्कृति और समाज के लिए समर्पित संस्था नवल प्रयास द्वारा धर्म प्रकाश साहित्य रतन सम्मान 2018 से अलंकृत, मानव कल्याण समिति अर्की, जिला सोलन, हिमाचल प्रदेश द्वारा साहित्य के लिए अनन्य योगदान के लिए सम्मान, प्रगतिशील साहित्यिक पत्रिका इरावती के द्वितीय इरावती 2018 के सम्मान से अलंकृत, पल्लव काव्य मंच, रामपुर, उत्तर प्रदेश का वर्ष 2019 के लिए ‘डॉ. रामविलास शर्मा’ राष्ट्रीय सम्मान, दिव्य हिमाचल के प्रतिष्ठित सम्मान ‘हिमाचल एक्सीलेंस अवार्ड’ ‘सर्वश्रेष्ठ साहित्यकार’ सम्मान 2019-2020 के लिए अलंकृत और हिमाचल प्रदेश सिरमौर कला संगम द्वारा डॉ. परमार पुरस्कार।

पुस्तक समीक्षा

भारत के कायाकल्प के लिए पुस्तिका

भारत के कायाकल्प के लिए एक बेशकीमती पुस्तिका प्रकाशित हुई है। सन 1992 में स्थापित थिंक टैंक तथा फाउंडेशन ‘आई वाच’ के संस्थापक ट्रस्टी कृष्ण खन्ना, जो कि मैकेनिकल इंजीनियरिंग में बी. टेक. हैं, उन्होंने इस पुस्तिका को लिखा है। पुस्तिका का नाम रखा गया है, ‘भारत का कायाकल्प’। यह हैंडबुक देश को बेहतर बनाने के लिए 135 अवलोकन, सुझाव और समाधान प्रदान करती है। यह भारत के कायाकल्प के लिए सुझावों और समाधानों की पुस्तिका है। इस पुस्तिका में प्रस्तुत डेटा तथा विश्लेषणों का लाभ सामाजिक परिवर्तनकर्ता, कार्यक्रम प्रबंधन एजेंसियां, नए उद्यमी व एजुकेशन प्लानर्स आदि उठा सकते हैं। पुस्तिका का उद्देश्य आम जनता की सोच में एक बदलाव लाना है ताकि हमारे 80 फीसदी युवा कौशल और व्यावसायिक प्रशिक्षण प्राप्त करने और शेष 20 प्रतिशत विश्वविद्यालय की शिक्षा लेने की तरफ बढ़ सकें। इस पुस्तक का फोकस युवा वर्ग तथा समाज पर है। पुस्तक के पहले खंड में आई वाच संस्था के बारे में विस्तार से जानकारी दी गई है। दूसरे खंड में शासन पर विचार हुआ है।

तीसरा खंड शिक्षा तथा मानव संसाधन विकास पर बात करता है। चौथे खंड में अर्थव्यवस्था तथा उद्यम पर विचार हुआ है। पांचवां खंड कौशल और रोजगार की बात करता है। छठे खंड में निष्कर्ष दिए गए हैं। खंड-दो ‘शासन’ के तहत भारत देश, आर्थिक एवं बिजनेस सुधार, शासन तथा प्रशासन, सुशासन भारत का कायाकल्प कर सकता है, विश्व स्तरीय होने के लिए कठिन परिश्रम की आवश्यकता है, विश्व स्तरीय कुशलता कैसे प्राप्त की जाए, जनसंख्या विस्फोट, कृषि में भारत की स्थिति, भ्रष्टाचार मुक्त, विश्व शासन और विश्व शांति जैसे मसलों को खंगाला गया है, साथ ही समावेशी विकास के लिए सुझाव भी दिए गए हैं। इसके अलावा भी पुस्तक में कई ज्ञानवर्धक बातें हैं, जिन्हें पढक़र युवा लोग प्रतिस्पर्धात्मक परीक्षाओं की तैयारी कर सकते हैं।

-फीचर डेस्क

‘प्रेम चंद और प्रेम चंद’-और कितने प्रेम चंद

कुछ संघर्षों, कुछ जीवन यात्राओं, कुछ लेखन परंपराओं और कुछ साहित्यिक विधाओं को लांघती परिकल्पना आखिर ‘प्रेमचंद और प्रेमचंद’ संग्रह में कुछ मूल प्रश्नों के सारांश खोजती हुई, इसके परिचय से ऐतिहासिक बहस को अवसर दे रही है। यह पाठक बताएंगे कि क्या वे ‘प्रेम चंद बनाम प्रेम चंद’ के बहाने समकालीन दो साहित्यकारों, सुशील कुमार फुल्ल और सुदर्शन वशिष्ठ के व्यक्तित्व, कृतित्व तक डा. आशु फुल्ल की 315 पन्नों की यात्रा से संतुष्ट हैं या इस मुहाने पर आकर प्रेम चंद तक पहुंचने की प्रासंगिकता के आरपार भी होना चाहेंगे। पुस्तक का टाइटल इन दोनों प्रतिष्ठित तथा बहुआयामी लेखकों के सृजन को अनावृत करते हुए यह कह और साबित कर रहा है कि हिमाचल में लेखन के राष्ट्रीय पैमाने कहां और कितने गहरे तक तय होते हैं। दरअसल साहित्य की संजीव आंख यहां भी सभ्यता, समाज और परिवेश के मसलों को हाशियों के संघर्ष से खींच लाती है और तब अनुभूतियों और संवेदनाओं के केंद्र बिंदु पर गहनता से विचार कहीं राष्ट्रीय रचनाओं के उत्कृष्ट परिसर में दाखिल कर जाता है। किताब ऐसे तर्कों के साक्ष्य में रचना कौशल में हो रही बुनाई, ढलाई तथा सूक्ष्म दृष्टि से पकड़े गए कथानक की व्याख्या करके युग भावना की कल्पनाशीलता व यथार्थवादी लेखन की वजह को प्रमाणित कर रही है। यहां हिमाचल में प्रेम चंद चुन रहा है ऐसा परिवेश जहां सृजन की संपूर्ण पृष्ठभूमि में कुछ समांतर रेखाएं उद्घाटित हो रही हैं। यहां साबित यह भी हो रहा है कि प्रेम चंद यदि किसान की भाषा या संघर्ष के सदमों में साहित्य की बुनियाद रख रहे थे, तो सामाजिक स्थितियों के कई लघु झरोखे आज भी समाज के उद्वेलन को बटोरने का अवसर देते हुए, हिमाचल के कथा संसार को मुकम्मल कर रहे हैं। सुशील कुमार फुल्ल और सुदर्शन वशिष्ठ की संघर्षरत कहानियां व उपन्यास भी बगावत करते हुए ऐसे प्रश्न पूछ रहे हैं जो कभी अपने काल खंड (1906-1936) में रहते हुए प्रेम चंद ने पूछे थे।

गोदान के होरी, धनिया भले ही बदल गए, लेकिन परिवेश के पंजे में समाज के पात्र नहीं बदले। अब फुल्ल की ‘मिट्टी की गंध’ उपन्यास ‘सन ऑफ दि सॉयल’ की संकीर्णता में उपजी परिस्थितियों से जूझ रहा है। डा. सुशील कुमार फुल्ल के उपन्यास जिंदगी, मनुष्य, रिश्तों, सियासत, सेक्स, साहित्य, सृजन, मृत्यु जैसे विषयों पर दृष्टिकोण लेकर आ रहे हैं। वह कहते हैं, ‘आधुनिक परिवेश में आए बदलाव से परंपराएं खंडित हुई हैं, मूल्य व्यक्तिवाद में सिमटते गए अर्थात हवस के कगार तक पहुंचे समाज के पुनर्गठन की आवश्यकता है।’ सारिका में 1968 में छपी ‘बढ़ता हुआ पानी’ नामक कहानी गद्दी समुदाय की आर्थिक वेदना को कुरेदती है, तो ‘मेमना’ हिमाचल की घुमंतु जातियों के पक्ष को आंदोलित करती है। रोपड़ के काईनौर गांव से पालमपुर के स्थायित्व तक फुल्ल की घुम्मकड़ प्रवृत्ति, उनके विचारों की सोहबत में कई परिदृश्यों को टांक देती है। डा. सुशील कुमार फुल्ल से कहीं अधिक गहरे घाव लिए सुदर्शन वशिष्ठ के पारिवारिक संघर्ष उन्हें कथा संसार चुनने, सामाजिक ताना-बाना बुनने, अपने जीवन की जटिलताओं से मिलने तथा भौगोलिक चुनौतियों से पार पाने की शक्ति देते हुए उन्हें साहित्य की लगभग सभी विधाओं के आईने खड़े करने की छूट देते रहे। मां की गोद से खुद को खोना और नाना के आंगन में खुद से रूबरू होना, इनकी पृष्ठभूमि में अभाव के चलचित्र, चौराहे और असमंजस के भले ही सन्नाटे भरते रहे हों, लेकिन जिंदगी से बातचीत करने के हर पहलू में इन्होंने सृजन को बेहतर किया। पहली ही कहानी ‘बिकने से पहले’ में उठे जीवन के मूल प्रश्न और फिर सेमल के फूल, सेहरा नहीं देखते, सुनामी, नेत्रदान या ‘वसुधा की डायरी’ तक आते-आते उन्हें कहने पर विवश करते हैं, ‘पहाड़ों में रहते हुए यहां के जनजीवन, यहां की प्रकृति और सौंदर्य से अभिभूत हो जाना स्वाभाविक है।

किंतु इस प्राकृतिक सौंदर्य के बीच एक अभाव भी है, एक भयावहता भी है, उसे सामने लाना मकसद रहा है।’ वशिष्ठ पर्वतीय अंचल के संघर्ष को वहां तक पेश करते हैं, जहां तक प्रेम चंद की कहानी नहीं पहुंचती, फिर भी समस्याओं के राष्ट्रीय खाते यहां भी अंधविश्वास, पिछड़ेपन, अशिक्षा, गरीबी, ऊंच-नीच, जातपात, छुआछूत और जनजातीय आवरण के नीचे बिछी पीड़ा का मर्म पहचानते हैं। हिमाचल प्रदेश में किसी लेखक का प्रेम चंद होना, यशपाल-गुलेरी होने से कितना भिन्न या अभिन्न है, इसके उत्तर में स्वयं वशिष्ठ कहते हैं कि वह ‘उसने कहा था’ को आधुनिक कहानी के सर्वोच्च शिखर पर मानते हैं। हिमाचली जनजीवन पर वह सुंदर लोहिया, सुशील कुमार फुल्ल, सुदर्शन वशिष्ठ, बद्री सिंह भाटिया, राजकुमार राकेश व एसआर हरनोट की कहानियों में माटी की महक महसूस करते हैं। गुलेरी और यशपाल के प्रति दोनों लेखकों की सम्मान दृष्टि के बावजूद किताब उन्हें प्रेम चंद के समानांतर क्यों खड़ा कर रही है, यह एक वृहद समीक्षा का विषय है। बेशक कहानियों की मात्रात्मकता में फुल्ल और वशिष्ठ प्रेम चंद से कम नहीं दिखाई देते, कहानियों व उपन्यासों के कथानक के संघर्ष विवेचन की धरा पर उद्वेलित करते हैं, सृजन की विविधता में प्रयोगधर्मिता की लावण्यता दिखाई देती है या सहज कहानियों की उर्वरता में फुल्ल के प्रयास चकित करते हैं, फिर भी पुस्तक जिस छोर पर पहुंचाती है, वहां कहीं गुलेरी और यशपाल उदास हो जाते हैं। पुस्तक के भीतर दोनों लेखकों के रचना संसार, उनके परिचय और संघर्ष पर कई तरह से जानकारियां उपलब्ध हैं, जबकि समीक्षाओं-साक्षात्कारों से हिंदी साहित्य में डा. सुशील कुमार फुल्ल और सुदर्शन वशिष्ठ के साहित्यिक पक्ष को एक बड़ा कैनवास मिल रहा है। अपने अध्ययन, शोध, साहित्यिक सरोकारों तथा अध्यापन की दृष्टि से डा. आशु फुल्ल ‘प्रेम चंद और प्रेम चंद’ से हिमाचल के लेखकीय योगदान को प्रतिष्ठित कर रही हैं।

-निर्मल असो

पुस्तक विशेष : प्रेमचंद और प्रेमचंद

लेखिका : डा. आशु फुल्ल

प्रकाशक : के. एल. पचौरी प्रकाशन, गाजियाबाद

मूल्य : 750 रुपए


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