हिमाचली पादुका को इंतजार
हिमाचल के लापचा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का आगमन व सैनिक शिविर में दिवाली का उत्साह सांझा करना, देश के प्रति कत्र्तव्य की एक सुनहरी याद है। सीमांत क्षेत्रों में असामान्य परिस्थितियों में तैनात सैन्य कर्मियों से रूबरू होने की परंपरा में, प्रधानमंत्री का दौरा राष्ट्रीय घटनाक्रम है, लेकिन कमोबेश ऐसी ही परिस्थितियों में हिमाचल के भी कई गांव और काम अपने हिस्से की दुरुहता बटोरते हैं। ऐसे में भले ही प्रधानमंत्री का यह दौरा संवेदनशील व सामरिक महत्त्व की प्रतीक्षा को आश्वस्त और सुरक्षा की समीक्षा करता हो, लेकिन प्रदेश हर रास्ते पर अपनी पादुकाएं बिछाए न जाने कब से उनका इंतजार कर रहा है। जब से हिमाचल में डबल इंजन सरकार नहीं रही, पर्वतीय प्रदेश के लिए पीएमओ का व्यवहार और राष्ट्रीय प्राथमिकताओं का सरोकार बदल गया है। लापचा कई मायनों में राष्ट्रीय शक्ति का प्रतीक है, लेकिन यहां पारिस्थिकीय स्थिति हिमाचल की विडंबनाओं को भी दर्शाती है। बेशक सीमांत क्षेत्रों के गांवों तक भारत सरकार रोड नेटवर्क को सशक्त कर रही है, लेकिन ऊंचे पहाड़ों से निकलती मौसमी आफत ने हमेशा ही देश के इस भूभाग को डराया है। इस बार की बरसात ने अपनी त्रासदी के भयंकर खंजर हमें दिए हैं, लेकिन दिल्ली से न कोई माकूल चिट्ठी और न ही संदेश आया।
अब भी हमारी दरख्वास्तें, लोगों की चीखें, खेत-बागीचों की बर्बादी का आलम, टूटते पुलों और गायब होती सडक़ की कहानियां केंद्र को अपनी व्यथा सुना रही हैं, लेकिन व्यथा का यह परिदृश्य वहां दिखाई नहीं दिया। लापचा को सरहद पर देखना देशहित का कार्य है, तो लापचा को हिमाचल में देखना भी तो जरूरी है। लापचा में हिमाचल की भी नब्ज टटोली जा सकती थी क्योंकि सीमा की रक्षा में हर दिशा में हिमाचली रक्त भी बहता है। दुश्मन की हर सरहद पर शहादतों का आंकड़ा हिमाचल के हिस्से से लगभग तीस प्रतिशत जोड़ता है, तो इस बहादुरी का अर्थ प्रदेश से मुलाकात करा सकता है। कभी यही किस्से प्रधानमंत्री हिमाचल आकर सुनाते थे। तब सिड्डू भी गर्व महसूस करता था और कांगड़ा की चाय भी रंग जमाती थी। तब हिमाचली संदर्भों की उड़ान वाकई आसमान पर थी, तो क्या अब प्रदेश ने कोई गलती कर दी। क्या जिस जनता के कसीदे तब प्रधानमंत्री कभी मंडी या कभी शिमला में पढ़ा करते थे, वह अब दोषी हो गई। प्रदेश भाजपा की सत्ता से फिसल कर कांग्रेस को क्या मिला, दोषी जनता और जनता के सरोकार हो गए। वे तमाम नदियां दोषी हो गईं जो हिमाचली दर्द को बटोर कर देश के बड़े बांधों के जरिए मैदानी इलाकों को सींचती या बिजली पैदा करके भविष्य को निरंतरता के साथ रोशन करती रही हैं। क्या वे सारी धामें, खाद्य व्यंजन, उपज, तरक्की और राष्ट्र के प्रति हिमाचल का समर्पण भी दोषी हो गया। क्या प्रधानमंत्री के इंतजार में बिछाई गई पादुकाएं सियासी हो गईं या प्राकृतिक आपदा में हिमाचल के आंसू अब बेमतलब हो गए।
याद करें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चुनाव से पूर्व दर्जन भर दौरे, संबोधन और आश्वासन जो हमारे हर सूर्योदय में शरीक होते थे, लेकिन अब लगता है कि सियासी ग्रहण से ओतप्रोत भावनाएं, भाव भंगिमाएं दिखा रही हैं। क्या कमाल है देश का संघीय ढांचा और लोकतंत्र का लबादा कि हर हिसाब-किताब, दर्द और इम्तिहान भी चुनावी या सियासी हो गया। क्या सुक्खू सरकार अवैध है कि प्रधानमंत्री अपने रिश्तों की फेहरिस्त भूल गए या हमारा दर्द फर्जी है जो मानवीय चीखें दिल्ली में हार गईं। ऐसे में हिमाचल भाजपा या भाजपा के नेताओं से क्यों न पूछा जाए कि प्रदेश के संघर्ष में उनकी भूमिका आखिर अब है कहां। कल अगर केंद्र में कांग्रेस और प्रदेश में भाजपा की सत्ता आ जाए, तो क्या इसी तरह प्रदेश की फरियाद तहस नहस होती रहेगी। सरकारें आती-जाती रहेंगी और नेता भी बदलते रहेंगे, लेकिन लोकतंत्र की शर्तों में यह फरेब सही नहीं कि योजनाएं व प्राथमिकताएं अपनी आंखों में भेदभाव का सुरमा लगा कर अन्याय करें। करीब तेरह हजार करोड़ की आपदा हानि के लिए हिमाचल को अगर भाजपा मजबूर देखना चाहती है, तो पढ़े-लिखे नागरिक समाज की भी तौहीन है। तौहीन है उन सिसकियों की जो कुल्लू, मंडी, शिमला व प्रदेश के अन्य जिलों से बरसात से ही निकल रही हैं। बेहतर होता प्रधानमंत्री अपने औपचारिक दौरे से कुछ क्षण चुराकर केवल यही सोच लेते कि वह कुछ महीने पहले हिमाचल की जनता से क्या-क्या वादे कर रहे थे।
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