लक्ष्मी और सरस्वती

By: Nov 30th, 2023 12:06 am

इनमें से बहुत सी कंपनियां शोध और समाज सेवा पर नियमित रूप से तथा बड़े खर्च करती हैं। इन कंपनियों के सहयोग से बहुत से क्रांतिकारी आविष्कार हुए हैं। सच तो यह है कि इन कंपनियों के बिना वे आविष्कार संभव ही न हुए होते। आर्थिक शिक्षा हमारी खुशहाली की कुंजी है। आर्थिक रूप से शिक्षित व्यक्ति भ्रष्ट हुए बिना भी, किसी दूसरे व्यक्ति का नुकसान किए बिना भी, कानूनी और वैध तरीकों से तेजी से अमीर बन सकता है। वस्तुत: आॢथक शिक्षा के बिना अमीर बनना तो शायद संभव है, पर अमीर बने रहना संभव नहीं है। लक्ष्मी और सरस्वती में यहां कोई विरोध नहीं है…

भारतवर्ष में एक मान्यता है कि लक्ष्मी और सरस्वती दो बहनें हैं, लेकिन दोनों का आपस में घोर विरोध है। इस मान्यता का मतलब है कि जो व्यक्ति विद्वान होगा, वह लक्ष्मी का भक्त नहीं हो सकता, अत: वह धनवान नहीं हो सकता। दूसरी ओर जो धनवान होगा, उसके विद्वान होने की आशा करना व्यर्थ है। भारतवर्ष सदैव से ऋषियों-मुनियों का देश रहा है। हमारे देश में सांसारिक विषयों और मोह-माया के त्याग की बड़ी महत्ता रही है जिसके कारण धनोपार्जन को हेय दृष्टि से देखा जाता रहा है। यह सहज ही मान लिया जाता था कि अगर कोई व्यक्ति अमीर है तो वह सिरचढ़ा और मूर्ख होगा। यही नहीं, क्योंकि अमीर बनने के लिए अनैतिक, अनुचित अथवा गैरकानूनी साधन अपनाना आवश्यक है, अत: अमीर आदमी भ्रष्ट तो होगा ही। ‘जब आवे संतोष धन, सब धन धूरि समान’ की धारणा पर चलने वाले भारतीयों ने गरीबी को महिमामंडित किया, फिर अपनी गरीबी के लिए कभी समाज को, कभी किस्मत को दोष दिया तो कभी धन को ‘मिट्टी’ बता कर धनोपार्जन से मुंह मोडऩे का बहाना बना लिया। दुर्भाग्यवश दो सौ साल की लंबी गुलामी ने धन के मामले में हमें आत्मसंतोषी ही नहीं, पलायनवादी भी बनाया। उससे भी बड़ा दुर्भाग्य यह रहा कि स्वतंत्र भारत में स्वतंत्रता के पहले चार दशकों में समाजवादी धारणा के चलते देश में लाइसेंस राज रहा और कोटा-परमिट आदि की व्यवस्था के कारण राजनेताओं व अफसरशाही की संप्रभुता इतनी प्रबल हो गई कि देश में उद्योग स्थापना या उद्योग का संचालन टेढ़ी खीर हो गया।

गैर प्रतिस्पर्धी औद्योगिक माहौल व अराजक मार्केट में उपभोक्ताओं का शोषण भी खूब हुआ। परिणाम यह हुआ कि सामान्यजन यह मानकर चलते रहे कि जो धन कमाता है वह गरीबों का खून चूसता है। यानी, धारणा यह बनी कि धन कमाना बुराई है। बहुत से पत्रकार भी इस सोच के वाहक और पोषक बने। हमारे देश में 50 से 80 के दशक के बीच की हिंदी फिल्मों ने भी यही किया। नब्बे के दशक में पहला बदलाव तब आया जब उदारीकरण की प्रचंड आंधी ने धन को एक बुराई मानने की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाया। विभिन्न व्यवसायों में भारी पूंजी निवेश ने भी अमीरी को बुराई मानने की प्रवृत्ति पर कुछ अंकुश लगाया, लेकिन इसके बावजूद लोगों के एक बड़े वर्ग में धन को लेकर विरोधाभासी दुविधा बनी रही। कैसी विलक्षण बात है कि दिवाली पर धूमधाम से लक्ष्मी पूजा करने वाले लोग अमीरों को कोसना भी अपना परम कत्र्तव्य मानते हैं। यह एक मिथक ही है कि अमीर व्यक्ति विद्वान नहीं हो सकता। इस सदी के महानायक अभिनेता अमिताभ बच्चन इसके जीते-जागते उदाहरण हैं जो विद्वान भी हैं और साधन संपन्न भी। सुनील गावस्कर, सचिन तेंदुलकर, प्रकाश पादुकोण आदि अन्य ऐसे नाम हैं जिन्होंने अपने क्षेत्र में अपनी बुद्धि का लोहा मनवाया और जमकर नामा भी कूटा। हमारे देश में बहुत से वैज्ञानिक, डाक्टर और उद्योगपति ऐसे हैं जो अपनी विद्वता और सदाशयता के लिए भी जाने जाते हैं और वे अमीर ही नहीं, बल्कि अत्यंत अमीर लोगों की श्रेणी में आते हैं। सर्वश्री अजीम प्रेमजी, रतन टाटा, हर्ष गोयनका और नारायण मूर्ति आदि ऐसे ही महानुभावों में शामिल हैं जो समाज के एक बड़े वर्ग के लिए प्रेरणा के स्रोत हैं। दूसरा मिथक यह है कि हर अमीर आदमी गरीबों का खून चूसता है। शायद बहुत कम लोग यह जानते होंगे कि स्व. जेएन टाटा ने सन 1892 में उपहार अथवा कर्ज देकर भारतीय प्रतिभाओं को विदेश में उच्च शिक्षा हेतु भेजना आरंभ किया। टाटा समूह की मदद से ही पूर्व राष्ट्रपति श्री केआर नारायणन ने उच्च शिक्षा प्राप्त की और देश के सर्वोच्च पद पर आसीन होने का गौरव प्राप्त किया। सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक डा. राजा रमन्ना व श्री आरए मशेलकर भी ऐसे ही लोग हैं। 1925 में तो एक दौर ऐसा भी था जब हर तीसरा आईएएस अधिकारी टाटा स्कॉलर होता था।

इन्फोसिस के संस्थापक श्री एनआर नारायणमूर्ति की धर्मपत्नी श्रीमती सुधा मूर्ति ने चेन्नई में मानसिक रूप से अपरिपक्व महिलाओं के लिए पुनर्वास केंद्र स्थापित किया है। उनके ट्रस्ट ने कर्नाटक के ग्रामीण अंचल के स्कूलों में एक-दो नहीं, बल्कि दस हजार से भी अधिक पुस्तकालय स्थापित किए हैं। देश के कई हिस्सों में अस्पताल और धर्मशालाएं बनवाई हैं। श्रीमती सुधा मूर्ति ने बंगलूर नगर निगम को सार्वजनिक विश्रामगृह बनाने के लिए आठ करोड़ रुपए दानस्वरूप दिए। श्री नारायण मूर्ति हर साल विभिन्न शैक्षणिक संस्थानों को करोड़ों रुपए का दान देते हैं। देश में ऐसे संस्थानों की संख्या हजारों में है जो लगातार समाज के लिए स्वेच्छा से कुछ न कुछ करते रहते हैं और उसका ढिंढोरा भी नहीं पीटते। तीसरा मिथक यह है कि हर अमीर आदमी भ्रष्ट होता ही है। नारायण मूर्ति और सुधा मूर्ति के उदाहरण से ही स्पष्ट हो जाता है कि यह भी एक मिथक ही है, सच नहीं है। आज जो त्रासदी है वह यह नहीं है कि हम गरीब हैं, असली त्रासदी यह है कि हमारी मानसिकता गरीबी की है। गरीबी को दूर करना उतना मुश्किल काम नहीं है जितना कि लोगों को गरीबी की मानसिकता से उबारना। आर्थिक रूप से शिक्षित होकर जब हम सोची-समझी रणनीति के तहत जोखिम उठाते हैं तो अल्पावधि में भी बड़ी संपदा कमाई जा सकती है। उसके लिए भ्रष्ट होने की नहीं, बल्कि जोखिम के लिए तैयार रहने की मानसिकता चाहिए। आज अवसरों की कमी नहीं है, कमी है तो सिर्फ सही ज्ञान की, जिसके बिना धन कमाना संभव ही नहीं है।

गरीबी का असली कारण गरीबी की मानसिकता है और अमीरी का सबसे बड़ा साधन सही आर्थिक शिक्षा है। प्रासंगिक आर्थिक शिक्षा के अभाव में हम गरीब रह जाते हैं और यह नहीं समझ पाते कि गरीबी का असली कारण धन कमाने के तरीकों के प्रति हमारा अज्ञान है। एक बार यह समझ आ जाए तो गरीबी के दुश्चक्र से बाहर आना मुश्किल नहीं है। अमीरी की राह आसान नहीं है, पर असंभव भी नहीं है। एक और महत्वपूर्ण तथ्य की ओर ध्यान दिलाए बिना हमारी बात पूरी नहीं होगी। यदि आप विश्व की सौ सबसे बड़ी आर्थिक शक्तियों की सूची बनाएं तो पहले 63 स्थानों पर भिन्न-भिन्न देशों का नाम आता है और शेष 37 स्थानों पर आईबीएम, माइक्रोसॉफ्ट तथा पेप्सी जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियां हैं। विश्व के शेष देश भी इन कंपनियों से बहुत छोटे हैं। इनमें से बहुत सी कंपनियां शोध और समाज सेवा पर नियमित रूप से तथा बड़े खर्च करती हैं। इन कंपनियों के सहयोग से बहुत से क्रांतिकारी आविष्कार हुए हैं। सच तो यह है कि इन कंपनियों के बिना वे आविष्कार संभव ही न हुए होते। आर्थिक शिक्षा हमारी खुशहाली की कुंजी है। आर्थिक रूप से शिक्षित व्यक्ति भ्रष्ट हुए बिना भी, किसी दूसरे व्यक्ति का नुकसान किए बिना भी, कानूनी और वैध तरीकों से तेजी से अमीर बन सकता है। वस्तुत: आॢथक शिक्षा के बिना अमीर बनना तो शायद संभव है, पर अमीर बने रहना संभव नहीं है। लक्ष्मी और सरस्वती में यहां कोई विरोध नहीं है। पहले भी नहीं था, अब भी नहीं है और निश्चित ही आगे भी नहीं होगा।

पीके खु्रराना

हैपीनेस गुरु, गिन्नीज विश्व रिकार्ड विजेता

ई-मेल: indiatotal.features@gmail.com


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