विकास का अनूठा व्याकरण

By: Nov 7th, 2023 7:27 pm

‘चलो कहीं भरपूर विकास दिखाया जाए, सियासी मिट्टी पर सीमेंट उगाया जाए।’ कुछ इसी तरह के उदाहरणों का मिट्टी परीक्षण होता रहा है और वर्तमान सरकार ने भी निरीक्षण-परीक्षण की जिरह पैदा करते हुए, हिमाचल में प्रगति का मुआयना शुरू किया है। संस्थानों की डिनोटिफिकेशन के बाद यह तो साबित हो रहा है कि चुनावी जुबान ने सत्तापक्ष की दिलदारी के नक्शे पर ऐसा नुकसान कर दिया जो प्रदेश के बूते से बाहर है। इसी परिप्रेक्ष्य में तीन अटल आदर्श विद्यालयों की रिपोर्ट भी निराशाजनक स्थिति पैदा कर रही है। जयराम सरकार ने शिक्षा के आदर्शों को सिर पर चढ़ा कर अटल आदर्श विद्यालय का जो ढोल पीटा था, उसकी असलियत अब सामने आ रही है। पहले चरण में 13 अटल विद्यालयों में से मात्र तीन ही जमीन पर उतर पाए और अब पता यह चल रहा है कि इनके ऊपर सौ करोड़ खर्च करके भी छात्र नहीं मिल रहे। यह अनोखे विकास का व्याकरण जिसे राजनीति सिद्ध करना चाहती है। विश£ेषण यह भी बताता है कि जब ऐसी परियोजनाएं बनती हैं, तो उनकी भूमिका से कहीं अधिक पैरवी से क्षेत्रवाद को संतुष्ट किया जाता है। इन विद्यालयों ने भी मंडी के नाचन और धर्मपुर में अपना अड्डा जमाया, जबकि सबसे बड़े कांगड़ा तथा उसके उपरांत शिमला जिला को इसकी फेहरिस्त में कोई दौर नहीं मिला। ऐसी इमारतों के शर्मिंदा होने पर भी हमें कोई नसीहत नहीं मिलती। कुछ साल पहले धर्मशाला-शिमला हाई-वे पर बड़ी महत्त्वाकांक्षा से पर्यटन कक्ष खोला गया, लेकिन इसका आगाज ही इसका अंत बना। इसी तरह नूरपुर में दो बार पर्यटन इकाइयां खोली गईं, लेकिन जनता को सिर्फ एक नालायकी मिली। हमने प्रदेश में तैंतीस स्नातकोत्तर कालेज बना दिए, लेकिन पाठ्यक्रम तो हर विश्वविद्यालय परिसर में हार रहा। सरकार के बेहतरीन विद्यालय अब केवल एक बड़ी इमारत हैं, जो हर मेरिट और परीक्षा परिणाम में निजी स्कूलों से हार रहे हैं। ऐसे में वर्तमान सरकार ने भी अटल आदर्श विद्यालय के सामने राजीव डे बोर्डिंग स्कूल का पंजा लड़ा दिया है। एक विफल प्रयास की दो समानांतर धाराएं बता रही हैं कि कहीं गड़बड़ी व्यवस्थागत है। सार्वजनिक क्षेत्र की हर इमारत को न तो प्रतिस्पर्धा के मायने मालूम हैं और न ही हारने का खौफ है, नतीजतन हिमाचल ने क्षमता से अधिक स्कूल, कालेज, दफ्तर तथा मेडिकल संस्थान खोलकर गुणवत्ता के हिसाब से कुछ भी हासिल नहीं किया। हर बार बीमार होने पर विभिन्न सरकारों के मुख्यमंत्री एम्स दिल्ली रवाना होते रहे, लेकिन हिमाचल के छह सरकारी एक निजी तथा बिलासपुर एम्स-ऊना पीजीआई सेटेलाइट सेंटर खोलकर भी हमारी स्वास्थय सेवाएं बाहरी प्रदेशों पर आश्रित हैं। अभिभावक तलाश में हैं कि उनके बच्चों को गुणवत्तायुक्त शिक्षा कहां मिलेगी, मरीज पीजीआई चंडीगढ़ या लुधियाना के अस्पताल तक पहुंचना चाहते हैं। अगर निकम्मे साबित हो रहे स्कूल-कालेजों की इमारतों को पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप में चलाया जाए, तो भी शिक्षा का भला हो सकता है, वरना जो अटल आदर्श विद्यालय बन न कर सका, वह राजीव गांधी डे बोर्डिंग स्कूल बन कर क्या कर पाएगा। हिमाचल में अब भी कई स्कूल-कालेजों, दफ्तरों व चिकित्सा संस्थानों को बंद करने की जरूरत है ताकि सार्वजनिक क्षेत्र की नाक बचाई जा सके, वरना धीरे-धीरे लोगों की हर सेवा के लिए निजी क्षेत्र पर निर्भरता बढ़ती जाएगी। प्रदेश सरकार प्रमुख शहरों के सरकारी स्कूलों को या तो सीबीएसई या आईसीएसई पाठ्यक्रम के तहत चलाए तो भी अंतर आएगा। दूसरी ओर प्रदेश स्कूल शिक्षा बोर्ड का करियर के हिसाब से कुछ स्कूलों को आगे बढ़ाना चाहिए। अगर दसवीं परीक्षा के आधार पर शिक्षा बोर्ड टेलेंट सर्च करके पांच हजार बच्चों को मेरिट के आधार पर बोर्डिंग स्कूल उपलब्ध कराए, तो प्रदेश में एक दर्जन करियर विद्यालय बन सकते हैं। जमा एक व जमा दो कक्षाओं के लिए स्कूल शिक्षा बोर्ड बड़े शहरी स्कूलों का हुलिया व मांग बदल सकता है। इतना ही नहीं ऐसी ही मेरिट के आधार पर ये स्कूल छात्रों को राष्ट्रीय प्रवेश परीक्षाओं तथा राष्ट्रीय स्तर के रोजगार के अलावा विभिन्न खेलों के लिए भी प्रेरित कर सकते हैं। इसी तरह हर विश्वविद्यालय कुछ कालेजों को गोद लेकर इन्हें विषय विशेष का राज्यीय या राष्ट्रीय संस्थान बनाने में मेहनत करे, तो शिक्षा का स्तर किसी और आसमान पर पहुंच जाएगा, वरना सरकारें तो इमारतों की मंडी में कभी शिक्षा तो कभी चिकित्सा को बेचती नजर आएंगी।


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