हिंसामुक्त हो सिनेमा

सिनेमा वालों को ज्यादा कमाना होता है, वो तो वही परोसते हैं जिस पर ज्यादा आम आदमी भरोसा करता है व जिसे बहादुरी की संज्ञा देता है। इसलिए बॉलीवुड हिंसा के नए सिनेमाई विचार लेकर आता है और उससे उसे ज्यादा कमाई होती है। लेकिन समाज में एक असुंतलन पैदा होता है जो कहीं न कहीं हिंसा की ही प्रवृत्ति है। हिंसा युक्त सिनेमा का हिट हो जाना यह दिखाता है कि हम मानसिक रूप से अस्वस्थ हो गए हंै और कल्पना की गई वस्तुओं को हकीकत मान रहे हंै। जबकि हकीकत कुछ और है। फिल्म निर्माताओं को मश्विरा है कि पैसे के लालच में सिनेमा की सामाजिक जिम्मेवारी को नजरअंदाज न करें। वे अपनी फिल्मों में हिंसा से निर्भरता हटाकर रचनात्मकता की तरफ भी ध्यान दें। कुल मिला कर यदि बॉलीवुड सिनेमा की हिंसा को महिमामंडित न करें तो भारतीय समाज के लिए बेहतर होगा…

दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित प्रसिद्ध फिल्म अभिनेत्री आशा पारेख ने कहा है कि ज्यादा मारधाड़ व हिंसा वाली फिल्मों पर अंकुश लगना चाहिए। उनका विचार उस वक्त सामने आया है जब हिंसायुक्त बॉलीवुड सिनेमा को दर्शक हाथों-हाथ ले रहे हैं। यह आजकल सुर्खियों का भी हिस्सा है। पिछले कई दशकों से भारतीय सिनेमा में हिंसा प्रमुख रूप से दिखाई गई है। इस हिंसा को अक्सर रूमानी बनाया जाता है, जिसमें हिंसक अभिनय करने वाले नायकों को शक्तिशाली और साहसी रूप में दर्शाया जाता है। इसके विपरीत जो पात्र हिंसा को टालते हैं, उन्हें कभी-कभी कमजोर या कायर के रूप में देखा जाता है। यह कितना ठीक है, इसका समाज, खास तौर पर युवा वर्ग और हमारे बच्चों पर क्या प्रभाव हो रहा है, यह एक गंभीरता से सोचने का मुद्दा है। देखा जाए तो फिल्मों में हिंसा दिखाने का प्रचलन बहुत पुराना है। पुरानी फिल्मों में हीरो और विलेन की फाइट ही क्लाइमेक्स का सबसे मजबूत आधार होती थी, परंतु बीते दशकों में फिल्म निर्माताओं में हिंसा को ही पूरी स्क्रिप्ट का आधार बना दिया है। फिल्म के पहले सीन से आखिरी सीन तक मारधाड़, गोलीबारी और एक्शन दृश्यों की भरमार रहती है। समाज शास्त्री मानते हैं कि भारतीय सिनेमा में हिंसा के चित्रण का समाज पर दूरगामी और जटिल प्रभाव पड़ता है। यह व्यक्तिगत व्यवहार, सामाजिक मानदंडों और यहां तक कि कानूनी ढांचे को भी प्रभावित करता है। सिनेमा जहां समाज का प्रतिबिंब है, वहीं इसमें सामाजिक मूल्यों और व्यवहारों को आकार देने की शक्ति भी है। क्या यह बेहतर नहीं कि फिल्म निर्माता इस बात को ध्यान में रखें कि उनके कार्य का दर्शकों, विशेषकर युवा और प्रभावशाली लोगों पर क्या प्रभाव पड़ सकता है?

सिनेमा अगर समाज का आईना है, तो उस आईने में समाज कहां है? या फिर वो आईना समाज को हिंसा पर चलने की सलाह दे रहा है? सिनेमा के जरिए क्रूर हिंसा को महिमा-मंडित करना कितना ठीक है, क्या बॉलीवुड के पास हिंसामुक्त विषय वस्तु का अकाल हो गया है? क्या यह ठीक नहीं है कि कुछ फिल्म निर्माताओं ने दर्शकों में एक ऐसी श्रेणी ढूंढ ली है जिसे स्क्रिप्ट की मौलिकता, रचनात्मकता और भावों के सम्प्रेषण से कोई सरोकार नहीं है। उन्हें सिर्फ और सिर्फ हिंसा देखने का चस्का है। व्यावसायिक सिनेमा में इस श्रेणी को आकर्षित करने के लिए बिकने लायक मसाला जरूरी है जिसमें हिंसा का तडक़ा लगाया जाता है। फिल्मों के कारण ही आज की पीढ़ी हमारे आदर्शों से दूर होती जा रही है। फिल्मों के माध्यम से कई लोग हिंसक गतिविधियों में संलिप्त होते जा रहे हैं। प्राय: देखने में आता है कि फिल्मों में जो बुराई है उसको समाज बहुत जल्दी ही अपने जीवन का हिस्सा बना लेता है। एक पुराने सर्वे के अनुसार 2018 में गुडग़ांव में दर्ज हिंसा-अपराधों में से 28 फीसदी फिल्मों से प्रभावित थे या अपराधियों का तौर-तरीका बॉलीवुड फिल्मों से प्रेरित था। समाज पर ऐसी हिंसा प्रधान फिल्मों का कैसा प्रतिकूल असर पड़ता है, इस बात का अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं। हमें मालूम होना चाहिए कि युवा पीढ़ी के मस्तिष्क पर फिल्मी हिंसा का बेहद गहरा असर पड़ता है। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार फिल्मों में दिखाई जाने वाली हिंसा के चलते युवा पीढ़ी, खासकर किशोरों के व्यवहार में अप्रत्याशित उत्तेजना, चिड़चिड़ापन और हिंसक भावनाओं जैसी मानसिक बीमारियों में वृद्धि दर्ज की गई है। हमारे यहां तो अहिंसा के रास्ते पर चलने की बात की जाती है, लेकिन हमारी सिनेमा की पसंद मे हिंसा का स्थान काफी ऊपर नजर आता है। आज ऑन-स्क्रीन हिंसा के प्रभाव को समझने और कम करने के लिए एक बड़ी सामाजिक जागरूकता की भी आवश्यकता है। सिनेमा एक व्यवसाय है जो आदमी की मानसिक एवं व्यावहारिक घटना को देख कर निर्माण मानव अस्तित्व की शुरुआत के बाद से, मनुष्य मनोरंजन के लिए विभिन्न तरीकों की खोज कर रहा है। वह किसी ऐसी चीज की तलाश में है जो दिनभर के थका देने वाले शेड्यूल से थोड़ा ब्रेक देती है। सिनेमा एक सदी के आसपास से मनोरंजन के एक शानदार तरीके के रूप में आगे आया है।

इसकी स्थापना के बाद से यह सबसे अधिक पसंद किए जाने वाले अतीत में से एक रहा है। शुरुआत में सिनेमाघरों में सिनेमाघर तक पहुंचने का एकमात्र रास्ता था, लेकिन टेलीविजन और केबल टीवी की लोकप्रियता के साथ फिल्में देखना आसान हो गया। इंटरनेट और मोबाइल फोन के आगमन के साथ, अब हम अपने मोबाइल स्क्रीन पर सिनेमा तक पहुंच प्राप्त कर सकते हैं और उन्हें कहीं भी और कभी भी देख सकते हैं। आज हर कोई कमोबेश सिनेमा से जुड़ा हुआ है। जब हम फिल्मों में दिखाई गई कुछ घटनाओं को देखते हैं, जो हम स्वाभाविक रूप से संबंधित कर सकते हैं तो उन्हें हमारे मन-मस्तिष्क और विचार प्रक्रिया को प्रभावित करते हैं। हम फिल्मों के कुछ पात्रों और परिदृश्यों को भी आदर्श बनाते हैं। हम चाहते हैं कि हमारा व्यक्तित्व और जीवन वैसा ही हो जैसा कि हम फिल्म के चरित्र के जीवन को आदर्श बनाते हैं। कुछ लोग इन चरित्रों से इतने घुल-मिल जाते हैं कि वे उनके जीवन का एक अभिन्न हिस्सा बन जाते हैं। इसी कारण हिंसा युक्त फिल्मों के हीरो के चरित्र को अपने जीवन में उतारने की प्रवृत्ति पैदा होती है। इस प्रकार, हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि सिनेमा का लोगों और समाज के जीवन पर बहुत प्रभाव है। यह ठीक ही कहा गया है कि हम जिस तरह की फिल्में देखते हैं, गाने सुनते हैं और जो किताबें हम पढ़ते हैं, उसी तरह के हम बन जाते हैं। सिनेमा वालों को ज्यादा कमाना होता है, वो तो वही परोसते हैं जिस पर ज्यादा आम आदमी बहादुरी की संज्ञा देता है। इसलिए बॉलीवुड हिंसा के नए सिनेमाई विचार लेकर आता है और उससे उसे ज्यादा कमाई होती है। लेकिन समाज में एक असुंतलन पैदा होता है जो कहीं न कहीं हिंसा की ही प्रवृत्ति है। हिंसा युक्त सिनेमा का हिट हो जाना यह दिखाता है कि हम मानसिक रूप से अस्वस्थ हो गए हंै और कल्पना की गई वस्तुओं को हकीकत मान रहे हंै। जबकि हकीकत कुछ और है। फिल्म निर्माताओं को मश्विरा है कि पैसे के लालच में सिनेमा की सामाजिक जिम्मेवारी को नजरअंदाज न करें। वे अपनी फिल्मों में हिंसा से निर्भरता हटाकर रचनात्मकता की तरफ भी ध्यान दें। कुल मिला कर यदि बॉलीवुड सिनेमा की हिंसा को महिमामंडित न करें तो भारतीय समाज के लिए बेहतर होगा।

डा. वरिंद्र भाटिया

कालेज प्रिंसीपल

ईमेल : hellobhatiaji@gmail.com


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