शव संवाद-23

By: Dec 25th, 2023 12:05 am

बुद्धिजीवी के स्थायी भ्रम बुद्धि को लेकर ही होते हैं और वह इन्हीं के बीच जिंदगी गुजार देता है। इस बार वह अपनी जिंदगी को सामने रखी हुई दवाई की गोलियों के बीच समझने लगा। पहली बार उसने देखा कि तरह-तरह गोलियां एक-दूसरे पर भारी पड़ रही हैं। सबसे ज्यादा हृदय रोग की दवाई उछल रही थी। तभी उसने सुना, एक गोली कह रही थी, ‘मैं सुबह देखती हूं। मेरे साथ ही मरीज सुबह देखता है।’ दूसरी ने जवाब दिया, ‘नाश्ता और दोपहर का खाना अब मेरे बिना कौन खा सकता है।’ तीसरी आंखें फाड़ कर बोली, ‘मरीज को सुलाने, सपनों और परिवार के झंझट से दूर रखने में इक मैं ही सहारा हूं।’ तभी हृदय रोग की गोली मुस्कराई, ‘कर लो मेहनत। आज और कल के बीच अब लोगों को मेरे बिना अपने दिल पर भी कहां भरोसा। मैं ही अब हर दिल की महारानी हूं।’ ये सब बाजार से आई हुई दवाइयां थीं जो उछल रही थीं, जबकि सामने सरकारी मुफ्त की दवाइयां एकदम शांत, मरीज से भी बुरी हालत में, आत्मशक्ति-भरोसे से दूर, असहाय और नाउम्मीद जैसी मुरझाई हुईं। मुफ्त में बंटती दवाई और घर जंवाई की एक जैसी हालत होती है। दोनों को ही अपनी काबिलीयत पर शक है। इतना ही नहीं, दोनों को वे भी संदेह से देखते हैं जो इनका उपयोग या प्रयोग कर रहे होते हैं। अब बुद्धिजीवी को भी अपनी आंखों पर संदेह हो रहा था, क्योंकि सरकारी अस्पताल की दवाई से ही वह भी देख रहा था। उसी के सामने हृदय रोग की गोली जोर-जोर से उछलने लगी थी। वैसे बुद्धिजीवी ने जिंदगी में कई उछलती हुई चीजें, अवसर और लोग देखे हैं, लेकिन उसके करीब आकर कुछ भी उछल न पाया। उसकी अपनी मैरिट से पाई हुई डिग्री आज तक उछल न पाई। नौकरी मिली भी, तो वहीं की वहीं रही- कभी उछल न पाई।

घरवालों ने जैसे-तैसे शादी कर दी, जो कभी उछल न पाई। नतीजतन अब दवाइयां उछल-उछल कर उससे ही मुकाबला कर रही हैं, वह सुन रहा है, ‘अबे तू, हमारी वजह से जिंदा है, वरना तेरी क्या औकात कि दाल-भात भी ठीक से खा-चबा सके।’ अब तो बुद्धिजीवी को लगने लगा है कि कहीं दवाई निर्माता ने उसका दिल, दिल की गोली में ही न डाल दिया हो। उसका यह संदेह निराधार नहीं। बाजार में हर कोई दवाई ही तो ढूंढ रहा है। कोई ऐसी खोई हुई दवाई जो कभी मिल जाए और इनसान कह सके, ‘अब मैं स्वस्थ हूं।’ वरना जैसे-जैसे बीमारी बढ़ती जाएगी, गोली का व्यवहार भी बदलता जाएगा। हर गोली का अलग-अलग व्यवहार, फिर भी मरीज से डाक्टर की यही अपेक्षा कि वह अपना व्यवहार ठीक रखे। बुद्धिजीवी संयम से गोलियों को निहारता, पुचकारता, सुबह से शाम तक बार-बार उनके बारे में जानकारी खंगालता, जैसे अब भी दवाई बाजार नहीं, भगवान हो। कभी कभी सोचता, इनका उछलना भी शुभ है, क्योंंकि उसके मरते ही ये भी उछलना भूल जाएंगी। बुद्धिजीवी ने अंतत: दवाई रूपी गोली का मनोविज्ञान पढऩा शुरू कर दिया, ‘आखिर वह भी तो तड़पती होगी जब मुफ्त में किसी के शरीर में मरती होगी। इनसान के शरीर से गुजरना क्या होता है, यह कोई गोली ही बता सकती है।’

बुद्धिजीवी आदतन संवाद प्रेमी रहा और इस बार हृदय रोग की गोली से ही पूछ बैठा कि उसकी सांस क्यों उखड़ी है। उछल कर गोली बोली, ‘मुझे तुझ जैसे बुद्धिजीवी पर भरोसा नहीं। भाई तू है किस मिट्टी का। तेरे दिल पर हर कोई चोट कर रहा है, फिर भी तू मुझ पर भरोसा नहीं कर रहा। सच कहूं मैं किसी बुद्धिजीवी के इलाज के लिए बनी ही नहीं, इसलिए तुझ से मेरा दिल घबरा रहा है।’ उस दिन गोली वाकई बुद्धिजीवी के नैतिक मूल्यों के सामने मर गई। बुद्धिजीवी नहीं चाहता था कि इस तरह गोलियां मरंे। वह अभी सोच ही रहा था कि गोली को कहां जलाऊं या दफनाऊं, कि तभी अम्मा की आवाज आ गई, ‘मेरी दिल की गोली कहां रखी है।’ उसके कदम ठिठक गए, वह मरी हुई गोली मां को नहीं देना चाहता था, लेकिन मां के भरोसे को तोडऩा नहीं चाहता था जो हर गोली को भगवान मानती हुई जिंदा है। -क्रमश:

निर्मल असो

स्वतंत्र लेखक


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