रामायण का तात्विक अर्थ

By: Dec 30th, 2023 12:28 am

पाप का फल ही दुख नहीं है। पुण्यमिश्रित फल भी विघ्न है। ऐसा कौनसा इनसान है जिसको संसार में विघ्न नहीं है। तो भगवान महापापी होंगे, इसलिए उनको दुख आया होगा। 14 साल वन में गए। यदि पाप का फल ही दुख होता तो राज्यगद्दी की तैयारियां हो रही हैं और तुरिया बज रही है, नगाड़े गुनगुना रहे हैं और राज्याभिषेक की जगह पर अब कैकेयी को मंथरा की चाबी चली और रामजी को बोलते हैं वनवास। एक तरफ तो राज्याभिषेक की तैयारी और दूसरी तरफ वनवास का सुनकर जिनके चेहरे पर जरा करचली नहीं पड़ती, जिनके चित्त में जरा क्षोभ नहीं होता, राज्याभिषेक को सुनकर जिनके चित्त में हर्ष नहीं होता और वनवास सुनकर जिनके चित्त में शोक नहीं होता, ऐसे जो अपने आप में ठहरे हैं, वे ही तो रामस्वरूप हैं। ऐसे राम को हजार हजार प्रणाम। दस इन्द्रियों के बीच रमण करने वाला दशरथ (जीव) कहता है कि अब जीव का राज्य नहीं, राम का राज्य होना चाहिए और गुरु बोलते है कि हां! करो। गुरु जब राम राज्य का हुंकारा भरता है तो दशरथ को खुशी होती है, लेकिन राम राज्य होने के पहले दशरथ कैकेयी की मुलाकात में आ जाता है। दशरथ की तीन रानियां बताई- कौशल्या, सुमित्रा और कैकेयी। सत्वगुण, रजोगुण, तमोगुण। जब सत्वगुण में से, रजो गुण में से हटकर दशरथ (जीव) तमोगुण में जाता है, रजोगुण में, तमोगुण में, फंसता है, तमस मिश्रित रजस में फंसता है, कैकेयी अर्थात कीर्ति में, वासना में फंसता है तो रामराज्य होने के बदले में राम वनवास हो जाता है। राम का राज्य नहीं, राम वनवास! और सब हैं, राम ही जा रहे हैं।

फिर रामायण की आध्यात्मिक कथा का अर्थ लगाने वाले महापुरुष लोग, आध्यात्मिक रामायण का अर्थ बताने वाले संत लोग कहते हैं, दशरथ छटपटाता है। राम वनवास होता है तो दशरथ भी चैन से नहीं जी सकता है और समाज में देखो! कोई दशरथ चैन से नहीं है, सब बेचैन हैं। ज्यादा धन वाला, कम धन वाला, ज्यादा पढ़ा-कम पढ़ा, अधिक मित्रों वाला-कम मित्रोंवाला, मोटा अथवा पतला, नेता अथवा जनता, देखो! सब बेचैन हैं। क्योंकि राम वनवास है। कथा का दूसरा पॉइंट यह बता रहा है कि रामजी के साथ सीताजी थी। लक्ष्मण जी थे। राम माने ब्रह्म, सीता माने वृत्ति। राधा माने धारा, श्याम माने ब्रह्म। राधेश्याम, सीताराम…। सीता माने वृत्ति, राम के करीब है, लेकिन सीता की नजर स्वर्ण के मृग पर जाती है और राम को बोलती है ला दो। जब सोने के मृग पर तुम्हारी सीता जाती है तो उसे राम का वियोग हो जाता है। सोने के मृग पर, धन दौलत पर जब हमारा चित्त जाता है तो अंदर आत्माराम से हम विमुख हो जाते हैं, फिर लंका मिलती है, स्वर्ण मिलता है, लेकिन शांति नहीं मिलती। उसी वृत्ति को यदि राम की मुलाकात करानी हो तो बीच में हनुमानजी चाहिए। सौ वर्ष आयुष वाला जीवन, उस जीवन को परमात्मा के लिए छलांग मार दे, उस जीवन के भोग विलास से छलांग मार दे। जामवंत को बुलाया, उसको बुलाया, उसको बुलाया। कोई बोलता है एक योजन कूदूंगा, कोई बोलता है दो योजन। हनुमानजी सौ योजन समुद्र कूद गए। माप करेंगे तो भारत के किनारे से लंका सौ योजन नहीं है, लेकिन शास्त्र की कुछ गूढ़ बातें हैं। जीवन जो सौ वर्ष वाला है, उस जीवन के रहस्य को पाने के लिए, छलांग मारने का अभ्यास और वैराग्य हो। हनुमानजी को अभ्यास और वैराग्य का प्रतीक कहा, जो सीताजी को रामजी से मिला देगा। रामजी उत्तर भारत में हुए और रावण दक्षिण की तरफ ।

उत्तर ऊंचाई है और दक्षिण नीचाई है। ऐसे ही हमारी वृत्तियां शरीर के नीचे हिस्से में रहती हैं। और जब हम काम से घिर जाते हैं तो हमारी आंख की पुतली नीचे आ जाती है। जब हम क्रोध से भर जाते हैं तो हमारी सीता नीचे आ जाती है और सीता जब रावण के करीब होती है तो बेचैन होती है, ज्यादा समय रावण के वहां ठहर नहीं सकती। काम के करीब हमारी सीता ज्यादा समय ठहर नहीं सकती। चित्त में काम आ जाता है, बेचैनी आ जाती है और चित्त में राम आ जाता है तो आनंद-आनंद आ जाता है। रावण की अशोक वाटिका में सीताजी नजर कैद है, लेकिन सीता में यदि निष्ठा है तो रावण अपना मनमाना कुछ कर नहीं सकता है। ऐसे ही हमारी वृत्ति में यदि दृढ़ता है, राम के प्रति पूर्ण आदर है तो काम हमें नचा नहीं सकता। उस दृढ़ता के लिए साधन और भजन है। चित्तवृति को दृढ़ बनाने के लिए, सीता के संकल्प को मजबूत बनाने के लिए तप चाहिए, जप चाहिए, स्वाध्याय चाहिए, सुमिरन चाहिए। जब कामनाएं सताने लगे, नरसिंह भगवान ने जैसे कामना के पुतले को फाड़ दिया, ऐसे ही काम को चीर दे, नरसिंह अवतार का चिंतन करने से फायदा होता है। इस कथा की आध्यात्मिक शैली को जानने वाले संतों का ये भी मानना है कि रावण मर नहीं रहा था और विभीषण से पूछा कि कैसे मरेगा? बोले डुंटी (नाभि) में आपका बाण जब तक नहीं लगेगा तब तक वो रावण नहीं मरेगा, अर्थात कामना नाभि केंद्र में रहती है। योगी जब कुण्डलिनि योग करते हैं तो मूलाधार चक्र में जंपिंग होता है और फिर स्वाधीस्थान चक्र में खिंचाव होता है, पेट अंदर आता है, बाहर जाता है, साधक लोग, तुम लोगों को भी अनुभव है। वो जन्म जन्मांतरों को कामना है, वासना है, उनको धकेलने के लिए हमारी चित्तवृत्ति हमारी जो सीता माता है, उस काम को धकेलने के लिए डांटती फटकरती है और जब डांट फटकार चालू होती है तो साधक के शरीर में क्रिया होने लगती है। देखो समन्वय हो रहा है कथा का और कुंडलिनि योग का। कभी कभी तो रावण का प्रभाव दिखता है और कभी कभी सीताजी का प्रभाव दिखता है। दोनों की लड़ाई चल रही है। कभी कभी तो साधक के जीवन में कामनाओं का प्रभाव दिखता है और कभी कभी तो सद्विचारों का प्रभाव दिखता है। अयोध्या को कहा कि नौ द्वार थे। ऐसे ही तुम्हारा शरीर रूपी अयोध्या है, इसमें भी नौ द्वार हैं और नौ द्वार में जीने वाला ये जीव जो दशरथ है, राम को वनवास कर दिया कैकेयी के कारण, छटपटा के प्राण त्याग कर देता है।


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