अब चुप भी रहोगे यार!

By: Dec 6th, 2023 12:05 am

मैं साहित्यकारों में अभी तक इतना आदरणीय नहीं हुआ हूं कि मुझे किसी जयंती वाले के कार्यक्रम में सादर बुलाया जाए। इसलिए अबके भी मैं उनकी जयंती वाले कार्यक्रम में जोड़ तोड़ का आमंत्रित था। वैसे जोड़ तोड़ वालों के वैसे वैसे काम मजे से हो जाते हैं जैसे आदरणीय से आदरणीय के भी नहीं होते। उस वक्त पता नहीं ये मेरा दुर्भाग्य था या कि जयंती वाले का सौभाग्य कि वे गलती से मेरे साथ वाली खाली कुर्सी पर आ विराजे सबसे पीछे वाली रो में। वैसे जो वे जयंती वाले थे तो कायदे से उन्हें मंच पर रखी कुर्सियों में से किसी एक पर होना चाहिए था। पर वहां और ही विराजमान थे। पहले तो मुझे लगा ही नहीं कि सबसे पीछे मेरे साथ वाली कुर्सी पर कोई आ बैठा है। पर जब खाली कुर्सी पर बैठे वाले अदृश्य ने मुझे दो चार बार कोहनी मारी तो लगा कि दोस्त! कुर्सी खाली नहीं। वहां कोई बैठा तो जरूर है, पर अब सवाल ये कि वह दिख क्यों नहीं रहा? जानता हूं कि कई साहित्यकार ऐसे ही होते हैं कि वे होते तो हैं, पर आसानी से दिखते नहीं। कौन होगा? साहित्यिक आंख उस तरफ मोड़ी तो लगा कि मेरे साथ वाली कुर्सी पर सचमुच कोई बैठा है।

सो मैंने मंच पर सम्मानित होने वालों की ओर से मुंह मोड़ उनकी ओर मुंह कर दिया। ‘कौन हो तुम? अदृश्य से। खुलकर सामने क्यों नहीं आते?’ ‘यार! मैं वही हूं जिसकी आज जयंती मनाई जा रही है।’ वैसे शंका तो मुझे बहुत कुछ यही थी। ‘तो मेरे साथ क्यों बैठे हो? आगे मंच पर जाओ। आज के दिन तो तुम्हारी जगह वहां है।’ ‘वहां कुर्सी खाली ही कहां है?’ ‘कुर्सियां खाली नहीं होतीं, करवानी पड़ती हैं बंधु! या उन पर जबरदस्ती धंसना पड़ता है दूसरों को धकियाते लतियाते हुए।’ जो सही सो सही, पर तब मैं गदगद भी हुआ और दुखी भी! गदगद इसलिए कि जयंती वाला ही सही, मेरे साथ कोई लेखक तो बैठा है। पर दु:ख इस बात का कि जिसकी जयंती मनाई जा रही है, वह मेरे साथ सबसे पीछे वाली रो में और जो उसकी जयंती मना रहे हैं वे मंच पर बैठने को एक दूसरे को गुर्रिया रहे हैं। ‘एक बात है।’ जिंदे लेखकों में तो कभी मेरी रुचि रही नहीं, सो जयंती वाले में धीरे धीरे रुचि लेने लगा, ‘कहो।’ ‘ये जयंती किसकी है?’ ‘हद है मित्र! तुम आए हो तो तय है, तुम्हारी ही होगी! मेरी तो कम से कम नहीं है।’ बेहूदे से प्रश्न पर जयंती वाले पर गुस्सा भी आया। ‘पर सामने मेरे नाम के बदले नाम तो दूसरे लेखक का लिखा है।’ मैंने सामने नजर लगाई तो सचमुच वहां नाम दूसरे लेखक का था। मतलब, जयंती को लेकर भी कन्फ्यूजन! कहीं एक जयंती में दो लेखक भीड़ गए तो? वैसे लेखकों का भिडऩा कॉमन है। वे कहीं भी भिड़ सकते हैं।

कभी भी भिड़ सकते हैं। ‘अगर वे भी यहां आए होंगे तो?’ जयंती वाले ने मेरा मुंह निहारते प्रश्न उठाया। ‘तो आने दो! एक साथ के साथ एक जयंती फ्री में हो जाएगी। आर्थिक मंदी से गुजरते विभाग का कुछ तो बचेगा।’ मैंने चुटकी लेते कहा क्योंकि मुझे पता है कि मेरी जयंती तो मनने से रही। मेरे आगे जयंतियां मनाने को कुछ भी कर गुजरने वाले लेखकों की इतनी लंबी लाइन है कि…। ‘वैसे आमंत्रित तो तुम्हें ही किया गया है न? तुम्हारे साथ रिश्तेदार किसके आए हैं?’ मैं धीरे धीरे अपराधी से जज होने लगा। ‘हां तो! रिश्तेदार भी मेरे ही आए हैं!’ ‘तो तुम्हें कहीं सामने लिखे जयंती वाले के रिश्तेदार दिख रहे हैं क्या?’ ‘मैं उनके रिश्तेदारों को नहीं पहचानता! क्या तुम उनके रिश्तेदारों को पहचानते हो?’ उन्होंने पहचानने की गेंद मेरे दिमाग पर फंकी तो मैं सकपकाया। सच कहूं तो जब मैं अपने रिश्तेदारों को भी नहीं जानता पहचानता तो औरों के रिश्तेदारों को क्या खाक पहचानूंगा। सो मैंने मुंह से कुछ कहने के बदले न में सिर हिलाया तो वे बोले, ‘कैसे लेखक हो? मुंह में जुबान नहीं रखते क्या?’ ‘रखता तो हूं, पर बोलता नहीं।’ ‘क्यों?’ ‘बस यों ही! लेखक का बोलना लेखक के लिए घातक होता है। सच बोल हाशिए पर जाते बहुत देखे हैं।’ ‘मतलब?’ ‘माइनर सी क्लैरिकल मिसटेक है बंधु! होती रहती है। तुम निश्चिंत रहो। जयंती तुम्हारी ही है। तुम पर लिखा शोधपत्र सुनने दो प्लीज!’ ‘पिछली बार नहीं सुना था क्या?’ ‘तब मैं नहीं आया था। अब चुप भी रहोगे या…।’ मैंने नकली गुस्साते कहा तो वे चुपचाप गंभीर हो मेरी बगल की कुर्सी पर बैठे अपने पर लिखा शोधपत्र सुनते मेरी तरह निमग्न हो गए।

अशोक गौतम

ashokgautam001@Ugmail.com


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