तपोवन के तट पर

By: Dec 21st, 2023 12:05 am

धरातल पर लाने की कशिश में, हर कोशिश का सफर जिंदा है। तपोवन विधानसभा परिसर हिमाचल की राजनीति का धरातल देखता है तथा उस कोशिश को निहारता है जिसके सदके सरकारें यहां सदन के संकल्प को आहूत करती हैं। शीतकालीन सत्र के पहले ही दिन विपक्ष के गले में लटकी तख्तियां, सरकार के सामने कई आईने खड़ा कर रही थीं, तो गारंटियों की पोशाक में प्रदेश की प्राथमिकताओं का हवाला चिन्हित है। जाहिर तौर पर तपोवन के ग्रंथ में इतनी तो इबादत है कि हर सरकार के तहखानों का सच गूंजता है अफसाने में। एक सीमित सत्र की असीमित संभावना से लटके मुद्दे और कारवां पूरी राजनीति का बनकर उभरता है, तो उस चितेरे को याद करना होगा जो कुछ दशकों के हिसाब में धर्मशाला के पड़ाव को अहमियत प्रदान करता है। वीरभद्र सिंह ने शीतकालीन प्रवास की प्रथा के आगाज को शीतकालीन सत्र के अंदाज तक आते-आते राज्य के घटनाक्रम का साक्षी बना दिया। जो सवाल शिमला के सत्र में अधूरे रहते, वे धर्मशाला के पत्र में पूरे किए जाते हैं। यहां गुनगुनी धूप में कांगड़ा घाटी के रंग खुलते हैं, लेकिन इस सबब में पारदर्शिता नहीं, ‘अब तो बस गुजर जाने का एक रास्ता बन गया, वरना मंजिलें यहां भी वक्त के इंतजार में साथ थीं।’ कुछ तो कर्ज रहा होगा हर सरकार में, इसलिए पूजे गए पत्थर गरीब की झोंपड़ी तक। हिमाचल की राजनीति में क्या महल और क्या झोंपड़ी, हर सरकार को कर्जदार होकर अपने वजूद को सुनहरा दिखाना है। कभी-कभी या हर बार सत्ता का एक सुनहरा महल दिखाई देता है, लेकिन कांगड़ा की गरीब झोंपड़ी में हमेशा सत्तारूढ़ दल क्यों उदास लगता है। प्रश्न बहुत होंगे तेरे दामन में मगर, इन लबादों से ढांपे नहीं जाएंगे। पदों की प्रतिष्ठा में लबादे तो टंग गए, लेकिन उन फैसलों, फरमाइशों और देनदारियों का क्या होगा, जो एक साथ दस विधायक देने वाले कांगड़ा को हमेशा फकीर बना देता है।

बहरहाल तपोवन की समीक्षा में बहस की खिड़कियां उसको निहार रहीं जिसके करीब कभी ऐसा सचिवालय बना जहां सरकार को चंद रोज बैठकर निचले हिमाचल की धडक़नें सुननी थी। अब तो शीतकालीन सत्र भी बर्फ का तोंदा लगता है, जो शिमला से लुढक़ बहुत कुछ रौंद कर चुपचाप निकल जाता है। यहां घाटियों की अनुगूंज में विपक्षी टोलियों का हुजूम और सामने सरकार के नजारों में तपोवन का वजूद पूछ रहा है कि किसके सिक्के खोटे और किसके खोटे सिक्के चल गए। ऐसे में प्रश्न उन सिक्कों का जो हिमाचल के खजाने को आत्मनिर्भर बनाने के लिए सरकार के हर वक्तव्य को अपना आदर्श मानते हैं। यहां प्रश्न सुक्खू सरकार बनाम जयराम ठाकुर का विपक्ष नहीं है, बल्कि कर्जदार हिमाचल-बेरोजगार हिमाचल का है। रुह में वाटर सेस का अरमान लिए सुक्खू सरकार अगर आत्मसम्मान की किश्ती पे निकली है, तो हमें हर खड्ड, नदी और नाले में बहते पानी की आवाज सुननी चाहिए। ऐसा क्यों है कि वाटर सेस पर प्रदेश के साथ हो रहे सौतेले व्यवहार पर भाजपा का सौहार्द दिल्ली के स्वार्थ के साथ मिलकर राजनीति हो गया। सुक्खू सरकार ने आत्मनिर्भरता के चिंतन में वाटर सेस चुना तो इसकी वकालत पड़ोसी उत्तराखंड की हकीकत से भी कमजोर करके भाजपा आखिर क्या संकेत देना चाहती है। इसी तरह केंद्रीय विश्वविद्यालय के जदरांगल परिसर की मिट्टी का यह कौनसा परीक्षण, जो वर्तमान सरकार के पैमानों में अपना दर्द भर रहा है। अब पूर्व मुख्यमंत्री व केंद्रीय मंत्री रहे वह शांता कुमार भी आजिज हैं, जो आपदा के दुख में सुक्खू सरकार की प्रशंसा करते रहे। तपोवन से जदरांगल या जदरांगल से तपोवन के बीच सिर्फ तीस करोड़ की कुंडली का समाधान चाहिए और यह फासला अगर नहीं टूटा तो शंकाओं के घमासान में सरकार के इरादों पर कहीं ओस की बंूदें दिखाई देंगी।

इसमें दो राय नहीं कि हिमाचल सरकार ने कई फ्लैगशिप योजनाएं तैयार की हैं और इन्हीं का उल्लेख करते मुख्यमंत्री अगर ऊर्जा क्षेत्र को वरीयता देते हैं तो ग्रीन एनर्जी में उनके संकल्प बुलंद होते हैं। सरकारें अपने एक्शन और योजनाओं के कार्यान्वयन से जानी जाती हैं। इस दिशा में कदमों की पड़ताल जरूरी है और तपोवन साबित करेगा कि उसने क्या और कितना जाना है सरकार को। तपोवन के तट पर कई किनारे, कई छोर हैं। यह सारे छोर अगर सरकार को समेटने हैं तो कहीं हिमाचल के लिए सत्ता और विपक्ष को भी एकजुट किनारे बनाने होंगे। फिलहाल सरकार अपनी पेशकश के मंच पर ई-वाहनों के जरिए अपने नवाचार से बेरोजगारों को कमाई का साधन और खजाने को बचाने का विकल्प दे रही है। तपोवन के तट पर कहीं कांगड़ा एयरपोर्ट के प्रति सरकार की दृढ़ प्रतिज्ञा, परिकल्पना और उम्मीदें किसी सारथी की तरह सरकार और मुख्यमंत्री को एक नई भूमि और भूमिका के साथ खड़ा तो कर ही रही हैं।


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