डरा हुआ गणतंत्र!

By: Dec 22nd, 2023 12:05 am

इस बार गणतंत्र न तो सर्दी से ठिठुर रहा था और न ही पार्क के एक कोने में उदास अनमना सा बैठा था, अपितु वह तना हुआ समारोह का आनंद उठा रहा था। मैं चुपचाप गणतंत्र की सारी हरकतें देख रहा था। मैं भी उसके पास बैंच पर जा बैठा और धीरे से बोला-‘क्या बात है गणतंत्र जी, बड़े खुश नजर आ रहे हो?’ गणतंत्र ने मुझे देखा नहीं, उलटे भरपूर मुस्कान के साथ बोला-‘लोकतंत्र की चिंता में दुबला होते हुए वर्ष बीत गए। कब तक रोऊं इस लोकतंत्र के नाटक को। नए युग के नए लोकतंत्र की भांति मैंने भी अपने आपको बदल लिया है। साम्प्रदायिकता, जात-पांत और आडम्बरों से भरे लोकतंत्र की चिंता मैं अकेला क्यों करूं? तुम जाओ अपना वोट बेचो, मुझे गणतंत्र दिवस समारोह का लुत्फ उठाने दो। तुम हर बार दाल-भात में मूसल चंद की तरह आ टपकते हो। तुम मेरा हाल-चाल जानने के लिए सदैव क्यों परेशान रहते हो?’ मैं बोला-‘तुम स्वांग भर रहे हो और खुश होने का ढोंग कर रहे हो। मुझे पता है तुम्हारी हालत खराब है और तुम अपनी बदहाली को छुपा रहे हो। तुम्हारी हालत आज भी ‘ठिटुरता हुआ गणतंत्र’ जैसी ही है। मैं एक जागरूक लेखक हूं। मुझे तुम्हारी चिंता है। गत वर्ष भी मैंने तुम्हारे ऊपर बदहाली का निबंध लिखा था और इस बार भी मैं तुम्हारे संबंध में साफ-साफ लिखना चाहता हूं।’ ‘मैं जानता हूं तुम लेखक हो। हर वर्ष एक लेख छपाने के लिए तुम मेरेे पास आ चिपकते हो।

गुजरात में जो हुआ, उससे मैं खुश हूं। गुजरात को लेकर तुम संदिग्ध क्यों हो? वहां लोकतंत्र की विजय हुई है। कांग्रेस का हारना मेरी दुर्गति क्यों मानते हो? मुझे तीसरी बार गुलाब के फूलों की माला पहनाई गई है। तुम अपने एक लेख के लिए मुझे कोसने में लगे रहते हो? जाओ, लिखना है तो वामदलों पर लिखो, जिन्होंने दिल्ली में कोहराम मचाकर कांग्रेस का चैन छीन रखा है।’ ‘तुम तो चालाक हो गए हो गणतंत्र भाई! मेरा लेख लिखना जरूरी है। गणतंत्र दिवस के मौके पर मेरा लेख छपेगा तो पारिश्रमिक मिलेगा, इसलिए तुम वही बने रहो तो मेरा काम आसान हो जाएगा। तुम्हारा खुश होना मेरे लेखन में बाधा है। अपनी माली हालत चंगी दिखाकर तुम मेरी छपास का नाश मत करो।

तुम वही दीन-हीन और कारुणिक बने रहो, वर्ना मैैं गणतंत्र दिवस पर क्या लिखूंगा?’ मैंने कहा तो गणतंत्र ने ठहाका लगाया और बोला-‘तुम्हारे लेख के लिए मैं सदैव रोता रहूं। युगबोध को मैंने भली प्रकार से समझ लिया है। हवाओं के रुख के साथ चलने लगा हूं मैं भी। जाओ, मैं फिर कहता हूं, मुझ पर लिखने की एवज तसलीमा पर लिखो, जिसकी तमाम स्वतंत्रताएं समाज ने छीन ली हैं। मैं अपने हर हाल में खुश हूं। मुझे बेवकूफ मत बनाओ।’ मैंने कहा-‘तुम सब जानते हो, उसके बाद भी सारा हलाहल पीकर मदमस्त बने हुए हो? तुम्हें सच बताना होगा कि तुमने यह सब सीखा कैसे? कैसे ढाल लिया है अपने आपको हालात के अनुसार। तुम किसी से डर कर तो ऐसा नहीं कर रहे?’ मेरे मुंह से यह सुनकर उसे सांप सूंघ गया। चेहरा पीला पड़ गया और वह दर्द से कराहने लगा। मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि वह झूठ क्यों बोल रहा था? इस बार का गणतंत्र डरा हुआ था।

पूरन सरमा

स्वतंत्र लेखक


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App