हमें नंग से काम…

By: Dec 5th, 2023 12:05 am

साधो! आजकल आर्यावर्त मुस्तफा ख़ाँ शेफ़्ता के एक शे’र का बड़ा क़ाइल है, ‘हम तालिब-ए-शोहरत हैं हमें नंग से क्या काम। बदनाम अगर होंगे तो क्या नाम न होगा।’ मौक़े के हिसाब से कपड़े उतारने में अब देश इतना माहिर हो चुका है कि डर लगता है कि क्या पता किस पल विश्व गुरु, उसकी मंडली या भक्तों में से कोई अपनी नंगई दिखाना शुरू कर दे। लेकिन आप भयभीत न हों। नंगई पर उतरने के अर्थों में महज़ शरीर के कपड़े उतारना ही शामिल नहीं। कपड़े तो इनके तन पर एक से एक डिज़ायनर सजे रहते हैं। इसलिए सवाल उठता है कि कौनसे नंग परमेश्वर से बड़े माने जाते हैं। ऐसे में अगर ज़मीर से नंगों के लिए कोई शब्द या कहावत ईजाद हो जाए तो हो सकता है कि तन से नंगे उनके सामने बौने साबित हों। बड़े-बुज़ुर्ग कहते हैं कि रोटी ज़मीर पर भारी नहीं पडऩी चाहिए। पर लगता है कि यह केवल आम आदमी के लिए कहा गया है। उनके लिए नहीं जिनके ज़मीर पर कुरसी या दौलत भारी पड़ जाती है। उनके लिए रोटी कुरसी या दौलत की बाइ-प्रोडक्ट या सहउत्पाद है। आम आदमी के ज़मीर को कुंद करने के लिए केवल पाँच किलो फ्री राशन ही काफी है। आम आदमी ऐसे महानुभावों को सलाम ठोकते हुए उनकी जी-हुज़ूरी में व्यस्त हो जाता है। आम आदमी के जि़स्म पर तो किसी युग में इतने कपड़े रहे ही नहीं कि उसे कुछ उतारने की ज़रूरत महसूस हो। उसके कपड़े तो हर युग में शासक या महंगाई ही उतारती आई है। अगर ऐसा न होता तो ग़ुलाम भारत में देश को समझने के लिए भ्रमण पर निकले मोहन दास कर्मचंद गाँधी लोगों की हालत देखकर अपने कोट-पैंट उतार कर लंगोटी धारण न करते।

आपात काल के दौरान हिन्दी फिल्म ‘रोटी, कपड़ा और मकान’ के गीत ‘महंगाई मार गई, महंगाई मार गई’ पर सरकार ने बैन न लगाया होता या सर्दियों के दौरान हर साल सैंकड़ों आदमी ठंड से न मरते। फिर जब विश्व गुरू बनने से महज़ चंद क़दम दूर आऊटर पर खड़ा देश ग्रीन सिग्नल का इन्तज़ार कर रहा हो तो आम आदमी अपने तन पर बाक़ी बचे कपड़े ख़ुशी-ख़ुशी में ही उतार कर फैंक सकता है। पूर्ण विश्व गुरूत्व को प्राप्त देश में उस समय निर्वस्त्र घूमने का आनन्द अपना ही होगा, जब महंगाई की बात करने पर किसी व्यक्ति को देशद्रोही घोषित किया जा सकेगा। लेकिन जब तक देश में सूखा नहीं पड़ता, किसी तरह से सरकार उसे इतना फ्री राशन तो दे ही देगी, जो उसे किसी तरह जिलाए रखे। गीता में श्रीकृष्ण शरीर को आत्मा का वस्त्र बताते हुए कहते हैं कि इसे साँप की केंचुली की तरह कभी भी उतार कर फैंका जा सकता है। जब शरीर आत्मा के लिए वस्त्र का काम देता हो तो ऐसे में कपड़ों पर कपड़ों की क्या ज़रूरत? ऐसी परिस्थिति में सवाल उठ खड़ा होता है कि क्या तन की नंगई पर कोई सवाल उठाना ठीक है। फिर चाहे वह फिल्मी अभिनेत्रियाँ क्यों न हों। पर जिस किसी नश्वर को देश की नंगई पर जऱा भी शक हो वह लोकतंत्र की अम्मा के गहनों पर नजऱ मार सकता है। लोकतंत्र की अम्मा के तन पर नंगई के एक से एक बड़े गहने आज शोभायमान हैं। अगर फिर भी कहीं कोई कान रह जाती है तो उसे ढकने के लिए देश के सभी दलों के नेता समभाव दिखाते हुए उसे नंगई का नया गहना पहना देते हैं। सभी दलों के नेताओं में भले देश की तरक्की को लेकर अन्तर्विरोध हों लेकिन देश की नंगई पर उन्हें कोई सन्देह नहीं। यह उनकी देशभक्ति का ही प्रमाण है कि दशकों तक अन्न उत्पादन के मामले में वृद्धि दर्ज करने वाले देश में पहली बार फसलों के उत्पादन में गिरावट दर्ज की गई है। लेकिन जब तक आम आदमी को अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए पाँच किलो राशन फ्री मिल रहा है, उसे तन, वतन या आत्मा की नंगई के बारे में सोचने की ज़रूरत नहीं।

पीए सिद्धार्थ

स्वतंत्र लेखक


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