विवाह समारोह के इवेंट बन जाने से सामुदायिक भावना का विनाश

By: Jan 20th, 2024 12:15 am

जे.पी. शर्मा, मनोवैज्ञानिक
नीलकंठ, मेन बाजार ऊना मो. 9816168952

इस लेख को लिखते समय बचपन याद आ रहा है जब परिवार, पड़ोस और रिश्तेदारी में शादी समारोहों में भाग लेते हुए जो सामुदायिक, संगठित, सामाजिक सौहार्दपूर्ण नजारा देखने को मिला करता था, उसकी तुलना में आज के शादी समारोहों में हुए तमाशे को देख मन मसोस कर रह जाता है, सम्मिलित होने का मन ही नहीं होता। कारण है विवाह समारोह का इवेंट बन जाना, जिसने अपनेपन की सामुदायिक भावना, सामाजिक सौहार्द व भाईचारे की पवित्र भावनाओं का ताना- बाना संपूर्णतया नष्ट कर दिया है। पूर्व कालखंड में लडक़े-लडक़ी का रिश्ता जब तय भी होता था तभी से ही पूरा मुहल्ला, गांव, कस्बा, मित्र, निकटतम संबंधी एवं पड़ोसीजन इस बात को यकीनी बनाते थे कि रिश्ता पूरी तरह विश्वसनीय ढंग से सिरे चढ़े। दोनों पक्ष पूर्णतया संतुष्ट हों, व्यक्तिगत दिलचस्पी लेकर दोनों पक्षों को अपनी संतान तुल्य समानता प्रदान करने की भावना से हिस्सेदार बनते थे, रिश्ता स्थापित होने उपरांत सगाई की रस्म से लेकर शादी की संपन्नता तक पूरी सहायता व भगीदारी सुनिश्चित करते थे।

लडक़ी वालों को सहायता सामग्री भी यथाशक्ति खुले दिल से मुहैया करवाते थे और नम आंखों से मिल जुल कर सौहार्द व अपनेपन से लडक़ी को विदा करते थे। घुड़चढ़ी के समय भी वर पक्ष अपने अपनों से सभी का परिचय करवाने हेतु सेहरा पढ़ते थे। विदा करते समय वधू को ससुराल पक्ष में स्थापित होने की शिक्षा पढ़ कर दी जाती थी। परिणामस्वरूप शादी पूर्णतया सफल रहती थी। सभी का आशीर्वाद जो सर पर होता था, इन सब के विपरीत आज शादी समारोह महज एक इवेंट मात्र बन कर रह गया है। दुर्भाग्यपूर्ण विडंबना है कि रिश्ता पक्का करने से लेकर शादी संपन्न होने तक दोनों पक्षों की ओर से सभी कुछ गुप्त रखा जाता है। शादी एक पावन समारोह न बनकर मात्र औपचारिकतानिहित आडंबरी रस्म ही बन कर रह जाती है जिसे कर्तव्य भावना की बजाय मात्र एक अनचाहा बोझ समझ अनमने मन से ही ढ़ोया जाता है।


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