छिलकों की छाबड़ी : एक चुप हजार सुख

By: Jan 11th, 2024 12:03 am

लोकतंत्र के चार स्तम्भों की जानकारी हमें थी। पहला स्तम्भ प्रेस है, इसमें से गोदी मीडिया कौनसा है और तीखा सच बयान करने वाला कौनसा, इसकी पहचान आजकल कठिन होती जा रही है। गोदी मीडिया क्या वह होता है जिसे सरकार ने या धनपतियों ने गोद ले रखा हो। क्रांति या यथार्थ मीडिया वह, जिसकी जुबान सच बयान करते हुए तनिक भी न थरथराए। ऐसी दूर की कौड़ी तलाश कर लाए कि आदमी को किसी सनसनीखेज घटना से टकराने का एहसास हो जाए। लेकिन सुनने और पढऩे वालों की परेशानी यह है कि प्रेस और मीडिया के दोनों रूप एक-दूसरे को गोदी और अपने आप को यथार्थ कहते फूले नहीं समाते। कुछ भी अघटनीय घट जाए, लेकिन जो जिसके हाजमे में नहीं उतरता, वह उसके बारे में चुप लगा कर अभयदान की मुद्रा में आ जाता है और मीडिया का दूसरा रूप उसकी नकाबनोच सनसनी फैला देता है। मीडिया का एक रूप अगर बिका हुआ या कालाबाजारियों का पिट्ठू कहलाता है तो दूसरा देशद्रोह और धर्म, जाति तथा क्षेत्र विभाजन के आम फहम लांछनों को उछालने वाला। जांच चल रही है और जल्द ही झूठों की नकाबें नुच जाएंगी और खरे सोने सा सच सबके सामने चौंका देगा कि दावे हवा में उछलते रहते हैं। मजे की बात यह है कि ये दावे दोनों तरह के मीडिया की ओर से किए जाते हैं। पाठक बौराया कभी सनसनी भरे धूल धक्कड़ का सामना करता है, और कभी कीचड़ भरी दलदल में उतर जाता है। फिर शीर्षक की यह उखाड़-पछाड़ थक कर मौन हो जाती है। मीडिया के दोनों पक्ष किसी नए या अविष्कृत हैडिंग का कनकौआ लूटने के दौड़-भाग करने लगते हैं। धीरे-धीरे मौन पसरने लगता है। कल की जलती हुई खबरें बासी हो जाती हैं। खड़े जल में किसी ने पत्थर फेंक दिया था। कटी पतंग बीच राह लूट ली गई। पाठक और श्रोता जांच के थैले से बिल्ली के बाहर आने का इंतजार करते रहते हैं।

इंतजार जब लम्बा हो जाए तो लगता है यहां चंद नारे उछालने के कोलाहल के सिवाय कभी कुछ और तो होता ही नहीं। इसलिए क्यों न बड़े बूढ़ों की बात को बीती सदी सा शिरोधार्य कर लिया जाए कि बच्चन, एक चुप में ही तेरे हजार सुख छिपे हैं। यह मंत्र सिद्ध वाक्य केवल लोकतंत्र के एक स्तम्भ के लिए ही सिद्ध सूत्र नहीं। स्तम्भ तो अभी तीन और हैं- विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका। पहले विधायकों की बात न ले बैठना। यहां तो चुप्पी तोड़ी तो सांप और सीढ़ी का खेल चलने लगता है। जो चुना जाए, वह चाहे दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का बासी हो या सबसे पुराने लोकतंत्र का, एक जाना-पहचाना लेबुल तो उसके माथे पर लगना ही है कि भ्रष्ट तरीके से वोटों की खरीद-फरोख्त कर नेता जीते हैं। जीतने वाला आरोपित है, और हारने वाला छटपटाता है। इसके बाद सांप और सीढ़ी नहीं, सत्ता की बाजी उलटने-पलटने का खेल चलता है। इसके लिए एक बहुत रुचिकर नाम ईजाद हो गया है। ‘आया राम, और गया राम।’ इस खेल में हर पल्टू राम सत्ता के सिंहासन का आयाराम ही बनना चाहता है। वैसे कोई इसके सत्तावृत्त से गया राम हो उन मरती-जीती बस्तियों की ओर झांकना भी नहीं चाहता कि जिनकी किस्मत बदल देने का वायदा कर कल के ‘गया राम’ आज जीत का सेहरा बांध ‘आया राम’ बन जाते हैं। लेकिन यारों ने सत्ता का चक्रव्यूह भेदने के तरीके भी निकाल लिए। राजनीति का खेल तो मुखौटा बदलने का खेल बन गया। कब कोई आया राम गया राम बन कर शतरंज की बाजी बिगाड़ कर राजपाट का चेहरा बदल देगा, किसी को कुछ खबर नहीं होती। इसलिए क्यों न इस खेल से परेशान आम आदमी अपनी खोली में सिर छिपा कर कह दो, ‘भय्या वोट फेंक कर चुपचाप तमाशा देख लो।’ मौन ही सुखद था, है और रहेगा।

सुरेश सेठ

sethsuresh25U@gmail.com


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