अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय फिर चर्चा में

उच्चतम न्यायालय की बैंच इस बात पर विचार करेगी कि क्या यह विश्वविद्यालय अल्पसंख्यक संस्थान है या नहीं…

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय एक बार फिर चर्चा में आ गया है। विश्वविद्यालय की पहचान और इसकी वैधानिक स्थिति को लेकर इस विश्वविद्यालय की चर्चा बार-बार होती ही रहती है। दरअसल यह विश्वविद्यालय अपने जन्म काल से ही चर्चा में है। 1857 की आजादी की लड़ाई में अंग्रेजों ने अनेक सबक सीखे थे और उसके अनुरूप भारत को लेकर अपनी नीति और रणनीति दोनों को ही बदला। इस लड़ाई में भारत के देसी मुसलमान अंग्रेजों के विपक्ष में खड़े थे। इसलिए अंग्रेजों को ऐसे मुसलमानों की तलाश थी, जो विदेशी मूल के हों और भारत के देसी मुसलमानों को अपने पिछलग्गू बना कर उनका नेतृत्व संभाल सकें। इसके लिए अंग्रेज हुक्मरानों ने अनेक उपाय किए जिनमें से अलीगढ़ में एक शिक्षा संस्थान की स्थापना भी एक था। अरब मूल के सैयद अहमद खान अंग्रेजों की इस योजना के नायक बने और उन्होंने अलीगढ़ में जो स्कूल खोला था, ब्रिटिश सरकार ने कुछ साल बाद उसे अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के रूप में अधिनियमित कर दिया। ब्रिटिश सरकार ने सैयद साहिब को भी ‘सर’ की उपाधि देकर उसका रुतबा बढ़ाया। इतिहास के विद्यार्थी जानते हैं कि भारत के विभाजन में, भारतीयों में हिंदू-मुसलमान का विवाद पैदा करने में इस विश्वविद्यालय का अग्रणी स्थान रहा। यही कारण था कि अंग्रेजों के चले जाने के बाद यह मांग की गई थी कि साम्प्रदायिकता की इस जड़ को समाप्त किया जाए। लेकिन तत्कालीन सरकार ने इसे स्वीकार नहीं किया। बात आई-गई हो गई। उसके बाद भारत का संविधान बना।

संविधान के समय कुछ सदस्यों ने यह मांग की कि प्रस्तावना, जो संविधान की आत्मा का परिचायक है, में भारत एक सेक्युलर देश है, भी लिखा जाए। लेकिन संविधान की प्रारूप समिति के अध्यक्ष इसके विरोध में डट गए। उनका मानना था कि भारतीय स्वभाव से ही सेक्युलर हैं। लेकिन अंग्रेजी में लिखे जा रहे संविधान में सेक्युलर का अर्थ गलत निकाला जाएगा और यह साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देगा। बाबा साहिब अंबेडकर ने इसके बजाय भारत में जो समुदाय अपने आपको मजहब के आधार पर अल्पसंख्यक मानते हैं, उनको अधिकार दिया कि वे अपने अलग से शिक्षा संस्थान खोल सकते हैं और वहां अपने मजहब की शिक्षा भी दे सकते हैं। लेकिन आपात स्थिति का लाभ उठाकर उस समय कांग्रेस ने संविधान की प्रस्तावना में ही सेक्युलर शब्द जोड़ दिया। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, जो भारत सरकार का शिक्षा संस्थान है, को लेकर मुसलमानों ने हल्ला मचाना शुरू कर दिया। हल्ला मचाने वालों में देसी मुसलमान कम थे, अरब-तुर्क-मुगल (एटीएम) मूल के मुसलमान यानी अशरफ समाज के मुसलमान ज्यादा थे। उन्होंने दावा किया कि यह शिक्षा संस्थान अल्पसंख्यक शिक्षा संस्थान है और भारत का मुसलमान अल्पसंख्यकों को अपना शिक्षा संस्थान अपनी मर्जी से चलाने का अधिकार देता है। इसलिए इस विश्वविद्यालय ने अपने यहां अनुसूचित जातियों के छात्रों के लिए सीटें आरक्षित करने से इंकार कर दिया। इसी प्रकार प्राध्यापक भर्ती में भी अनुसूचित जाति के प्रत्याशियों के लिए सीटें आरक्षित करने से इंकार कर दिया। मुसलमानों का कहना था कि यह संस्थान अल्पसंख्यक संस्थान है, इसलिए भारत सरकार विश्वविद्यालय को बाध्य नहीं कर सकती कि वह अनुसूचित जाति के लोगों को अपने यहां आरक्षण दे। कुछ लोगों ने समझाया भी कि नाम में मुसलमान लिख देने मात्र से ही कोई शिक्षा संस्थान अल्पसंख्यक नहीं बन जाता। न ही यह विश्वविद्यालय मुसलमानों द्वारा संचालित है। यह विश्वविद्यालय संसद के अधिनियम से संचालित है। इसका वित्त भार भी देश की आम जनता के पैसे से चलता है।

यह केन्द्रीय सरकार का संस्थान है। लेकिन इसका कोई असर दिखाई नहीं दिया, उल्टा विश्वविद्यालय के मुसलमान छात्र इस बात पर अड़े रहे कि विश्वविद्यालय में पाकिस्तान के कायदे आजम मोहम्मद अली जिन्ना का चित्र लगेगा, जो अब भी लगा हुआ है। जाहिर है इससे अनुसूचित जाति के छात्रों और शिक्षकों में रोष पैदा होता। उनके समर्थक भी गुस्से में आते। कोई और रास्ता न देख कर देश के कुछ प्रबुद्ध लोगों ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में याचिका दायर कर दी कि पहले यही फैसला हो जाए कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय अल्पसंख्यक संस्थान है या फिर केन्द्र सरकार के अन्य विश्वविद्यालयों की तरह ही है, और उसमें भी अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षण के प्रावधानों को लागू करना अनिवार्य है? मामला उच्च न्यायालय में देर तक चला। अंतत: न्यायालय ने निर्णय दिया कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय मुसलमानों का अल्पसंख्यक संस्थान नहीं है। जाहिर है अब इस विश्वविद्यालय में अनुसूचित जाति के लोगों से अन्याय नहीं किया जा सकेगा। लेकिन कांग्रेस ने इससे पहले ही निर्णय कर लिया था कि न्यायालयों के इस प्रकार के फैसलों से कैसे निपटना है। इसकी शुरुआत उसने शाह बानो के केस में ही कर दी थी, जब शाहबानो उच्चतम न्यायालय से अपने शौहर से गुजारा भत्ता पाने का केस जीत चुकी थी। कांग्रेस सरकार ने उस फैसले को निरस्त करने के लिए बाकायदा संसद में कानून पारित कर सैयदों के हाथ मजबूत किए और अशरफ समाज से वाहवाही लूटी। यही काम उसने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय के मामले में किया। अब की बार फिर अशरफों ने कांग्रेस सरकार को पकड़ा और मनमोहन सिंह की सरकार ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले को उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी। केवल इतना ही नहीं, सरकार ने यह फैसला भी किया कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की शाखाएं देश के अन्य हिस्सों में भी खोली जाएंगी। बिहार के किशनगंज में तो इसकी तैयारी भी शुरू कर दी। लेकिन देश का अनुसूचित जाति समूह और पसमांदा/अलजाफ/अरजाल समूह भी इस निर्णय से गुस्से में था। अब सरकार ने जन भावनाओं का सम्मान करते हुए इलाहाबाद न्यायालय के फैसले के खिलाफ डाली अपनी अपील वापस लेने की अर्जी उच्चतम न्यायालय में डाल दी।

उच्चतम न्यायालय ने सात न्यायाधीशों की बैंच का गठन कर दिया है जो इस बात पर विचार करेगी कि क्या अलीगढ़ का यह विश्वविद्यालय अल्पसंख्यक संस्थान है या नहीं? निर्णय किया होगा, यह तो समय ही बताएगा, लेकिन अनुसूचित जाति समुदाय का मानना है कि कम से कम किसी ने उनके हितों की ओर ध्यान तो दिया। दूसरा मामला स्मृति ईरानी के नेतृत्व में सऊदी अरब के आधिकारिक दौरे पर गए एक भारतीय शिष्टमंडल का है। यह शिष्टमंडल सऊदी अरब में यह देखने के लिए गया था कि भारत से जो मुसलमान वहां हज करने जाते हैं, उनकी सुख-सुविधा की क्या व्यवस्था है। इसी प्रकार शिष्टमंडल को कुछ दूसरे मुद्दों पर भी वहां की सरकार से बातचीत करनी थी। वहां की सरकार ने शिष्टमंडल को मदीना जाकर भी स्वयं सुविधाओं का मूल्यांकन करने में बेहतरीन सहायता मुहैया करवाई। शिष्टमंडल के सदस्यों ने वहां की ऐतिहासिक तीर्थ स्थल की इमारतों को भी देखा। सऊदी अरब सरकार तो शिष्टमंडल के इस दौरे से काफी उत्साहित है। लेकिन इधर पाकिस्तान सरकार बहुत गुस्से में है। उसका कहना है कि मदीना में गैर मुसलमानों को लाकर सऊदी अरब सरकार ने इस्लाम की बेअदबी की है। ध्यान में रहे कि इस्लाम अरब में ही पैदा हुआ था और हजरत मोहम्मद अरब मूल के ही थे। कुरान शरीफ भी अरबी भाषा में ही लिखा गया है। लेकिन अब पाकिस्तान का मानना है कि इन अरबों ने इस्लाम की बेअदबी की है। 1947 में जब पाकिस्तान बना था तो पाकिस्तान सरकार ने इस्लाम को लेकर धड़ाधड़ अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन करने शुरू कर दिए। तब मिस्र के राष्ट्रपति ने व्यंग्य में कहा था कि पाकिस्तान की हरकतों से तो लगता है कि इस्लाम 1947 में पाकिस्तान में ही पैदा हुआ था। नया बना मुसलमान अल्लाह अल्लाह ज्यादा करता है। लगता है पाकिस्तान अभी इस भ्रम से बाहर नहीं निकला है। वह निकल भी नहीं सकता, क्योंकि यही भ्रम उसके अस्तित्व का कारण है।

कुलदीप चंद अग्निहोत्री

वरिष्ठ स्तंभकार

ईमेल: kuldeepagnihotri@gmail.com


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