नए आदेशों में सीपीएस

By: Jan 5th, 2024 12:05 am

सरकार के कार्य, सरकार की दक्षता और सत्ता में हिस्सेदारी के फलक पर मुख्य संसदीय सचिवों की नियुक्ति पर आया हाई कोर्ट का अंतरिम आदेश अपने आप में कई अर्थ लिए है। आदेश की पलकों पर सवार होकर भाजपा खुशियां मना सकती है, लेकिन सरकार की ये नियुक्तियां अभी यथावत हैं तो इसलिए कि माननीय अदालत ने इसके खिलाफ कोई टिप्पणी नहीं की। यानी बिना मंत्री पद की सुविधाओं, शक्तियों और भत्तों के अगर जहाज उड़ रहे हैं, तो सियासी फिजा में फिलहाल कोई खतरा नहीं। फैसले की वजह अभी बाकी है और निष्कर्षों का सामान भी। सरकार के गठन में सियासी संतुलन और क्षेत्रीय महत्त्वाकाक्षाओं के रथ पर सवार ऐसे पद पहले भी विवादित रहे हैं तथा कानूनी तौर पर एक पक्ष इनके खिलाफ रहा। सरकारों की अमानत में ऐसी नियुक्तियों का ढहना भी विरोध की सियासत का उठना है। ऐसे में बहुप्रतीक्षित फैसले के निर्देश भले ही सख्त हैं, लेकिन बारह मार्च तक कई नेताओं के सम्मान बरकरार हैं। निर्णय के दूसरी ओर भाजपा के लिए यह नैतिकता के प्रश्र पर कानूनी इबारत है जो उसके विरोध व कानूनी लड़ाई को एक आयाम तक पहुंचा रही है। सीधे तौर पर जिस जश्न की फिराक में सत्ता के रंग कमोबेश मंत्रियों की पोशाक में मुख्य संसदीय सचिवों को सुशोभित कर रहे थे, वहां एक विराम सी खामोशी दे गई। वैसे भी सरकार के व्यवहार में अग्रणी होने की ख्वाहिश सत्ता पक्ष के विधायकों में रहती है। सीपीएस बन कर मंत्री सरीखा प्रोटोकोल, प्रशासनिक पहुंच तथा मीडिया संवाद में सरकार की व्याख्या करते नेता क्या अब शांत हो जाएंगे। इनके पास बाकायदा विभागों के दायित्व और सरकार के महकमों का नूर भी चलता रहा है, तो क्या अब मुख्य संसदीय सचिव का पद सिर्फ एक विधायक का तमगा या सरकार के बागीचे का महज एक फूल है।

वित्तीय शक्तियों के तराजू भले ही अदालत ने बांध दिए या सरकार की ओर स्पष्ट किया गया है कि ये पद मंत्रियों की तरह नहीं नवाजे गए, लेकिन व्यावहारिकता में अब भी भाजपा की नुक्ताचीनी में सीपीएस महोदयों पर विपक्ष की निगरानी रहेगी। अंतिम फैसले की आहट कितनी गंभीरता से अब मुआयना करेगी, यह तो कहा नहीं जा सकता, लेकिन कुछ अंकुश जरूर लगेगा सत्ता के इस सफर पर। यह इसलिए भी कि अंतरिम फैसला सत्ता के इन पदों की देह भाषा बदलेगा। अब तक की परिस्थितियों में अदालत के निर्देश नहीं थे, जबकि आइंदा विपक्ष अपने विरोध के जज्बात लिए फैसले की नसीहत में निगरानी करने में चूक नहीं दिखाएगा। हालांकि मोटे तौर पर ऐसी कानूनी लड़ाइयों से न तो राज्य की प्रतिष्ठा बढ़ रही है और न ही सरकारों के अपव्यय रुक रहे हैं। हिमाचल का ही संदर्भ रखें, तो फिजूलखर्ची के आलम में कर्ज की कोई सीमा नहीं रही। न सरकारों के आकार और न ही प्रकार में कोई अंतर आया। अब केवल मंत्रिमंडल या बोर्ड-निगमों का अध्यक्ष या उपाध्यक्ष पद तक ही सरकार का आकार नहीं। अगर मंत्रिमंडल के सदस्यों की सीमारेखा तय है, तो सत्ता की किश्तियों पर अन्य कई धुरंधर सवार हो सकते हैं। काबीना मंत्री का पद न सही, कैबिनट रैंक से कोई भी सुशोभित हो सकता है। ऐसे में भाजपा के बारह विधायकों की मन्नत अगर कांग्रेस के छह विधायकों से रुतबा छीन रही है, तो भी यह संकल्प अधूरा और एकलक्षीय है। हिमाचल के अर्थतंत्र में नैतिकता के ऐसे कई सवाल हैं, जिनके ऊपर न विपक्ष कुछ बोलता और न ही सत्ता में आते कोई दल इनसे जूझता है। सुक्खू सरकार ने भी आत्मनिर्भरता के नारे में प्रदेश की आर्थिक स्थिति के उत्थान की कसम खाई है, लेकिन यथार्थ में फिजूलखर्ची पर कहीं अंकुश दिखाई नहीं देता। प्रदेश में कई अनावश्यक विभाग, निगम, बोर्ड, शिक्षण चिकित्सा संस्थान व दफ्तर हैं जिनके दरवाजे सदा सदा के लिए बंद कर देने चाहिएं। बेशक सुक्खू सरकार ने आते ही डिनोटिफिकेशन के साथ अलार्म बजा कर पिछली सरकार के अंतिम दौर की घोषणाओं को घूंघट में बंद किया, लेकिन असली मर्ज के लिए यही एक दवा नहीं। सरकार को अपने आकार में भी आदर्श स्थापित करने होंगे। हिमाचल को अब आर्थिक अनुशासन, बेहतर प्रशासन व बजटीय आश्वासन को मुकम्मल करना होगा। मिशन रिपीट, रिवाज बदलेंगे या कर्मचारियों पर भाषण देने के बजाय, राज्य की बेहतरी के लिए संसाधनों के सृजन और अपने भौगोलिक व प्राकृतिक संसाधनों के अधिकारों के लिए संघर्ष करने की आदत डाल लेनी चाहिए। सत्ता के नर्म गद्दों पर तो हर कोई बैठना चाहता है, लेकिन प्रदेश के कांटों को बटोरने का सामथ्र्य जब तक पैदा नहीं होगा, कोई क्रांति नहीं आएगी।


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