पर्यटन की आस में पर्यावरण-संस्कृति का विनाश

By: Jan 6th, 2024 12:05 am

हिमाचल को क्वांटिटी नहीं, क्वालिटी टूरिज्म चाहिए। संस्कृति का संरक्षण हो…

25 जनवरी 1971 को पूर्ण राज्य बना हिमाचल एक खूबसूरत पहाड़ी राज्य है। यहां के ऐतिहासिक मंदिरों और प्राचीन ग्रंथों में मिले उल्लेख के कारण इस हिमालयी क्षेत्र को पूर्व में देवभूमि के नाम से जाना जाता था। प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री डा. वाईएस परमार की प्रदेश के निर्माण में अहम भूमिका रही है, इसलिए उन्हें हिमाचल निर्माता के रूप में जाना जाता है। हिमाचल में आय के संसाधन नाममात्र थे, लोग गरीब थे और जीवनयापन के लिए कृषि पर निर्भर थे। इसलिए वाईएस परमार ने हिमाचलियों के हितों की रक्षा के लिए 1972 में विशेष कानून बनाया था। इसका मुख्य उद्देश्य दूसरे राज्यों के धनी लोगों को प्रदेश में जमीन खरीदने से रोकना था। इसके लिए हिमाचल प्रदेश टेनैंसी एंड लैंड रिफोम्र्स एक्ट 1972 की धारा 118 के लिए 1976 में नियम बनाए गए थे। परंतु समय के साथ धारा 118 का स्वरूप बिगड़ता चला गया और पर्यटन विकास के नाम पर बाहरी लोगों के बड़े-बड़े होटल बनते चले गए। इसी कड़ी में पालमपुर कृषि विश्वविद्यालय की सौ हेक्टेयर भूमि टूरिज्म विलेज बनाने के लिए सरकार को हस्तांतरित करने के सरकारी आदेश के पीछे का मकसद क्या है और सलाहकार कौन है, यह सवाल सरकार की संपूर्ण कार्यप्रणाली को संदेह के घेरे में खड़ा करता है।

यह टूरिज्म विलेज कौन बनाएगा, क्या एजुकेशनल इंस्टीट्यूट की भूमि पर सरकार कब्जा कर किसी निजी व्यक्ति, इंस्टीट्यूट या कारपोरेट को सौंपना चाहती है? विदेशी संस्कृति की तर्ज पर बनने वाले टूरिज्म विलेज में कैसिनो, पब, जुआ- सब होंगे, तो क्या एजुकेशनल इंस्टीट्यूट की फैकल्टी पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा? ऐसे अत्याधुनिक टूरिस्ट सेंटर से क्या प्रदेश की संस्कृति और युवा नशे की चपेट में आने से बच पाएंगे? स्थानीय लोग और कई समाजसेवी संस्थाएं सुक्खू सरकार के इस आदेश के विरोध में एकजुट हो चुके हैं और आने वाले दिनों में यह विरोध बढ़ता जाएगा। जरूरत तो कृषि और दुग्ध उत्पादन क्षेत्र में सरकार की सार्थक भूमिका की थी, परंतु पैसों की चकाचौंध में सरकार को इस क्षेत्र में ऐसे नकारात्मक फैसले लेने की सलाह कौन और क्यों दे रहा है, यह सवाल आज हर प्रदेशवासी के दिलो-दिमाग पर है, जिन्होंने अपनी पूरी उम्मीदों के साथ सरकार को अपना बेशकीमती वोट देकर चुना था। अभी तक तो सरकार चुनावों में किए वादे भी पूरे नहीं कर पाई है। कहीं ऐसा न हो कि सुक्खू सरकार के ऐसे लोक अहितकारी फैसले जल्द होने जा रहे आम चुनावों में अपना रंग दिखा जाएं, इसलिए ऐसे फैसले लेने से पहले सरकार को जरूर सोचना चाहिए। पर्यटन के विकास के साथ-साथ प्रदेश की संस्कृति को सहेजना भी सरकार का कत्र्तव्य है। अत्याधुनिक टूरिज्म विलेज के स्थान पर हैरिटेज विलेज की स्थापना होनी चाहिए, वो भी किसी एजुकेशनल इंस्टीट्यूट की जगह पर नहीं, बल्कि शहर से दूर किसी खाली पड़ी पहाड़ी पर, जहां हिमाचल की संस्कृति, खानपान, आर्किटेक्चर, लोकगीत व पहरावे से पर्यटकों को रूबरू करवाया जा सके। हिमाचल को नशे और जुए का अड्डा बनने से रोकने के लिए विरोध किसी भी हद तक जा सकता है।

यह सच है कि राज्य की सरकारों के पास आय का कोई विशेष स्त्रोत नहीं होने के कारण प्रत्येक सरकार ने औद्योगीकरण और पर्यटन को बढ़ावा दिया। हालांकि पूर्व केन्द्रीय मंत्री पंडित सुखराम हिमाचल में पर्यावरण विरोधी उद्योगों के हमेशा खिलाफ रहे तथा प्रदेश के पर्यावरण को नुक्सान न पहुंचाने वाली ईको-फ्रेंडली इंडस्ट्री की हिमायत करते रहे। पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह भी प्रदेश के पर्यावरण से छेड़छाड़ के विरोधी रहे तथा उनके कार्यकाल में भी ऐसा कोई बड़ा उद्योग विकसित नहीं हुआ, जिसके कारण प्रदेश का पर्यावरण बिगड़ा हो, बल्कि उनके कार्यकाल में माइनिंग उद्योग के लिए भी कड़े कानून बनाए गए थे और उल्लंघन पर सजा का प्रावधान किया गया था। आज स्थिति एकदम विपरीत है। अवैध खनन बेलगाम हो चुका है। बेतरतीब घर-मकान, व्यापारिक संस्थानों ने प्रदेश की खूबसूरती पर ग्रहण लगा दिया है। भू-माफिया की सक्रियता, भ्रष्टाचार व काले धन के कारण प्रदेश में रीयल एस्टेट का कारोबार धड़ल्ले से चल रहा है। यूरोप जैसे जलवायु और वातावरण के कारण यह हिमालयी इलाका अंग्रेजों का पसंदीदा स्थल था जहां पर उन्होंने न केवल शिमला को ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाया था, बल्कि डलहौजी, मैक्लोडगंज अंग्रेजों के नाम पर बने छोटे-छोटे कस्बे भी विकसित किए थे। राज्य में आज भी अंग्रेजों द्वारा बिछाई गई छोटी रेल लाइन है तथा आजादी के इतने वर्ष बाद भी प्रदेश की जनता आवाजाही के लिए इसी छोटी रेल का प्रयोग करती है। अंग्रेजों के जमाने में बनाई गई कई इमारतें, शानन पावर हाउस आज भी इतिहास के साक्ष्य के रूप में प्रदेश में मौजूद हैं। इसके साथ ही हिमाचल एक संवेदनशील राज्य है, जिसकी सीमाएं शत्रु देशों पाकिस्तान और चीन से सटी हैं। कहने का तात्पर्य है कि इतिहास और प्रदेश की सुरक्षा जहां सरकारों की प्राथमिकताओं में होना चाहिए, वहीं पर्यटन के नाम पर इन दोनों को दांव पर लगाया जा रहा है। समय के बदलाव और जनसंख्या वृद्धि के साथ हिमाचल का स्वरूप काफी बदल चुका है।

जंगल और जंगली जीव कम होते गए, कंक्रीट के जंगल खड़े होते गए, नदियों-नालों पर अतिक्रमण होता गया जिससे वे सिकुड़ते चले गए, सडक़ों का जाल बिछा जिसने पहाड़ों का सीना छलनी कर दिया। अस्सी के दशक में पंजाब में आतंकवाद चरम पर होने के कारण बहुत से पंजाब के लोग हिमाचल में पलायन कर व्यवसाय करने लगे, बाद में स्थानीय लोगों से विवाह कर उनके नाम पर जमीनें खरीद कर यहां के स्थायी निवासी हो गए। बेशक आतंकवाद समाप्त हो चुका हो, परंतु यह सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा और आज भी विशेष समुदाय के लोग हिमाचल में पहले किराए की दुकानों और मकानों में रह कर व्यवसाय चला रहे हैं, बाद में स्थानीय लोगों से विवाह कर यहीं के स्थायी निवासी बन रहे हैं। ऐसे में धारा 118 का क्या औचित्य रह जाता है? हाल ही की बरसात में हिमाचल में आई भयंकर बाढ़ और प्राकृतिक आपदा से भी लगता है कि सरकार ने कोई सबक नहीं सीखा है। प्रदेश के सकल घरेलू उत्पाद में मात्र सात फीसदी का योगदान कर रहे पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए सरकार प्रदेश के पर्यावरण को दांव पर लगा रही है। पर्यटन उद्योग न केवल पर्यावरण, बल्कि पहाड़ी राज्य की भाषा, संस्कार और संस्कृति को भी समाप्त कर रहा है तथा युवाओं को नशे की ओर धकेल रहा है। क्वांटिटी टूरिज्म की अपेक्षा क्वालिटी टूरिज्म पर क्यों सरकार नहीं सोचती?

नीलम सूद

स्वतंत्र लेखिका


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