गारंटी बनाम गारंटी

By: Jan 8th, 2024 12:05 am

हिमाचल में गारंटियों के चक्रव्यूह में जनता हो न हो, विपक्ष ने गारंटी बनाम गारंटी का मुद्दा बनाकर सुक्खू सरकार के लिए आगामी लोकसभा चुनाव का पैमाना बता दिया है। नेता प्रतिपक्ष जयराम ठाकुर ने पुन: मोदी की गारंटी की विश्वसनीयता को सौ फीसदी मानदंड पर खरा साबित करने की कोशिश की है। यकीनन जनता की टोकरी में सियासी भीख के भी नखरे परवान हैं, वो मांगती है सुबह से शाम मुफ्त की रेवड़ी अलग-अलग जुबान। वैसे कांग्रेस के लिए यह परीक्षा राजस्थान में दर्द दे गई और ओपीएस पर खर्चा करके भी पार्टी मतदाता का एहसान प्राप्त नहीं कर रही है। हिमाचल में भी कमोबेश हर सरकार ने जरूरत से ज्यादा ‘एहसान की राजनीति’ को तरजीह देते खुद को असमर्थता की कचहरी बना डाला है। इसी कचहरी ने न तो किसी सरकार के मिशन रिपीट या रिवाज बदलने दिया या हर बार लाचारी में सरकारें अपने-अपने दौर के पांच साल ही नहीं, बजट भी गंवाती रहीं। मेहरबानियों में किसका सजदा करूं, यहां तो सभी कर्जदार हैं। सवाल हर चुनाव में वही रहते, मगर जुबान पर अलग-अलग पार्टियां चढ़ जाती हैं। जहां आज कांग्रेस है, वहां कल भाजपा भी डोरे डाल रही थी। हम लगातार सरकारों को कर्मचारियों की शरण में देखते रहे हैं, लेकिन सियासत की इस बोली में प्रदेश के संसाधन रोते हैं। सरकारों का आना और सरकारों का जाना अब राज्य के लिए आर्थिक नुकसान का बहाना हो गया है।

भाजपा को लगता होगा कि उसकी सत्ता को कांग्रेस की गारंटियां छीन ले गईं और इधर कांग्रेस को यह भरोसा है कि ये गारंटियां जादुई असर रखती हैं, लेकिन सच दोनों विचारों को निकम्मा घोषित करता है। यह हिमाचली जनता की लोकतांत्रिक परख है जो कभी रूठती है, तो कभी ऐंठती है, लेकिन सुशासन और सरकारों के सियासी समीकरण को हमेशा परखती है। विधानसभा चुनाव में मंडी पर भाजपा का एकाधिकार साबित करता है कि यह जीत पार्टी के बजाय एक मुख्यमंत्री की थी और यहीं विश्लेषण कांगड़ा में कांग्रेस का साथ देकर बता गया कि कहीं पक्षपात हुआ है। ऐसे में जितनी कशमकश गारंटियों पर हो रही है या कांग्रेस सरकार गारंटियों की जी-हुजूरी कर रही है, उससे हटकर सुशासन और सियासी संतुलन पर गौर करना होगा। स्पष्ट रूप से देखें तो मंत्रिमंडल के गठन और सरकार के प्रवचन में कांगड़ा का राजनीतिक इतिहास और नेताओं का निजी विकास कहीं असंतुलित है। सरकारी उपक्रमों की गाडिय़ां घाटे के दलदल में धंसी हुई हैं। पुराने मसलों का पहाड़, नई घोषणाओं की दहाड़ से लड़ रहा है। अनावश्यक कार्यालयों की भरमार, सरकारी दफ्तरों की रिक्तियों से परेशान है। छोटे से प्रदेश में विधानसभा क्षेत्रों को चमकाने के चक्कर में जरूरत से कहीं अधिक स्कूल-कालेज और मेडिकल कालेज खुल गए, लेकिन न अच्छी शिक्षा और न ही अच्छी चिकित्सा का प्रबंध हो पाया। सरकारी बसें खटारा, रूट आवारा, फिर भी नए बस डिपो के घाटे का नजारा बढ़ाने के लिए राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा डराती है।

सियासत ने ऐसी मनहूस परिस्थितियां पैदा कर दी हैं कि धर्मशाला में केंद्रीय विश्वविद्यालय की मिट्टी पलीद करने के लिए जदरांगल को एक अखाड़े के रूप में तहस-नहस किया जा रहा है। एक ओर भाजपा ने जिस विश्वविद्यालय को भगवा चरित्र में रंगने तथा हमीरपुर संसदीय क्षेत्र के सांसद अनुराग ठाकुर के अंगने का प्रश्न बना दिया, वहां कांग्रेस सरकार पूर्व सरकार के घुटनों पर चलती हुई जदरांगल परिसर के ढाई सौ करोड़ को बेवजह बर्बाद कर रही है। कहने का तर्क यह कि सरकारें प्रभावशाली, ईमानदार, प्रदेश की हितकारी, आत्मनिर्भर व सुशासन के सलीके में फैसले लेने की कठोरता के बजाय ‘एहसान की राजनीति’ के तहत कहीं कर्मचारी वर्ग को पुचकार रहीं तो कहीं जनता को मुफ्त में खिलाने के लिए खिचड़ी पका रही हैं। ऐसे में अब गारंटी बनाम गारंटी के खेल में केवल बजट की बर्बादी तय है और यह भाजपा ने 150 यूनिट बिजली मुफ्त में देकर किया, तो अब दस गारंटियों की फांस में कांग्रेस एक संसाधन विहीन राज्य की अंगुलियां तोड़ रही है। हम मोदी की हर गारंटी को अवतार मान लें, लेकिन हिमाचल की आत्मनिर्भरता के लिए अगर आर्थिक, रेल, सडक़ व पर्यावरण संरक्षण आपूर्ति का पैकेज प्रदेश को दे दें तो कहीं अधिक सार्थक कदम होगा। प्रदेश आज भी अटल बिहारी वाजपेयी के औद्योगिक पैकेज को याद करता है, तो इस तरह के कदम चाहिएं। कांग्रेस हो या भाजपा, अगर गारंटियों से प्रदेश गरीब हो रहा है, तो हमारी कंगाली को बेचकर सियासत न करें।


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