हिमाचली हिंदी कहानी : विकास यात्रा  : 41

By: Jan 27th, 2024 7:22 pm

कहानी के प्रभाव क्षेत्र में उभरा हिमाचली सृजन, अब अपनी प्रासंगिकता और पुरुषार्थ के साथ परिवेश का प्रतिनिधित्व भी कर रहा है। गद्य साहित्य के गंतव्य को छूते संदर्भों में हिमाचल के घटनाक्रम, जीवन शैली, सामाजिक विडंबनाओं, चीखते पहाड़ों का दर्द, विस्थापन की पीड़ा और आर्थिक अपराधों को समेटती कहानी की कथावस्तु, चरित्र चित्रण, भाषा शैली व उद्देश्यों की समीक्षा करती यह शृंखला। कहानी का यह संसार कल्पना-परिकल्पना और यथार्थ की मिट्टी को विविध सांचों में कितना ढाल पाया। कहानी की यात्रा के मार्मिक, भावनात्मक और कलात्मक पहलुओं पर एक विस्तृत दृष्टि डाल रहे हैं वरिष्ठ समीक्षक एवं मर्मज्ञ साहित्यकार डा. हेमराज कौशिक, आरंभिक विवेचन के साथ किस्त-41

हिमाचल का कहानी संसार

विमर्श के बिंदु

1. हिमाचल की कहानी यात्रा
2. कहानीकारों का विश्लेषण
3. कहानी की जगह, जिरह और परिवेश
4. राष्ट्रीय स्तर पर हिमाचली कहानी की गूंज
5. हिमाचल के आलोचना पक्ष में कहानी
6. हिमाचल के कहानीकारों का बौद्धिक, सांस्कृतिक, भौगोलिक व राजनीतिक पक्ष

लेखक का परिचय

नाम : डॉ. हेमराज कौशिक, जन्म : 9 दिसम्बर 1949 को जिला सोलन के अंतर्गत अर्की तहसील के बातल गांव में। पिता का नाम : श्री जयानंद कौशिक, माता का नाम : श्रीमती चिन्तामणि कौशिक, शिक्षा : एमए, एमएड, एम. फिल, पीएचडी (हिन्दी), व्यवसाय : हिमाचल प्रदेश शिक्षा विभाग में सैंतीस वर्षों तक हिन्दी प्राध्यापक का कार्य करते हुए प्रधानाचार्य के रूप में सेवानिवृत्त। कुल प्रकाशित पुस्तकें : 17, मुख्य पुस्तकें : अमृतलाल नागर के उपन्यास, मूल्य और हिंदी उपन्यास, कथा की दुनिया : एक प्रत्यवलोकन, साहित्य सेवी राजनेता शांता कुमार, साहित्य के आस्वाद, क्रांतिकारी साहित्यकार यशपाल और कथा समय की गतिशीलता।

पुरस्कार एवं सम्मान : 1. वर्ष 1991 के लिए राष्ट्रीय शिक्षक पुरस्कार से भारत के राष्ट्रपति द्वारा अलंकृत, 2. हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा राष्ट्रभाषा हिन्दी की सतत उत्कृष्ट एवं समर्पित सेवा के लिए सरस्वती सम्मान से 1998 में राष्ट्रभाषा सम्मेलन में अलंकृत, 3. आथर्ज गिल्ड ऑफ हिमाचल (पंजी.) द्वारा साहित्य सृजन में योगदान के लिए 2011 का लेखक सम्मान, भुट्टी वीवर्ज कोआप्रेटिव सोसाइटी लिमिटिड द्वारा वर्ष 2018 के वेदराम राष्ट्रीय पुरस्कार से अलंकृत, कला, भाषा, संस्कृति और समाज के लिए समर्पित संस्था नवल प्रयास द्वारा धर्म प्रकाश साहित्य रतन सम्मान 2018 से अलंकृत, मानव कल्याण समिति अर्की, जिला सोलन, हिमाचल प्रदेश द्वारा साहित्य के लिए अनन्य योगदान के लिए सम्मान, प्रगतिशील साहित्यिक पत्रिका इरावती के द्वितीय इरावती 2018 के सम्मान से अलंकृत, पल्लव काव्य मंच, रामपुर, उत्तर प्रदेश का वर्ष 2019 के लिए ‘डॉ. रामविलास शर्मा’ राष्ट्रीय सम्मान, दिव्य हिमाचल के प्रतिष्ठित सम्मान ‘हिमाचल एक्सीलेंस अवार्ड’ ‘सर्वश्रेष्ठ साहित्यकार’ सम्मान 2019-2020 के लिए अलंकृत और हिमाचल प्रदेश सिरमौर कला संगम द्वारा डॉ. परमार पुरस्कार।

डा. हेमराज कौशिक
अतिथि संपादक
मो.-9418010646

-(पिछले अंक का शेष भाग)
अशोक गौतम की अनेक कहानियां विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। गिरिराज में गंदली धूप, नूतन सवेरा में ताश के खिलाड़ी, मुक्ता में एक कलम जिंदगी, खुले मौसम में, लौटती हुई खुशी, वागर्थ में लगाव, प्लेग, सरस सलिल में नई धूप में, गले नहीं लगोगे सुदामा, दैनिक ट्रिब्यून में आरपार, पीला पड़ता गुलाब, कथा बिंब में एक और चाणक्य, हिमप्रस्थ में जरमनिया, वैचारिक संकलन में एक जोड़े की वापसी, अजीत समाचार में दंगे का सुख, पीछे छूटता शहर, भाषा भारती में अपना अपना युद्ध, पश्यन्ती में भी ‘दंगे का सुख’ प्रकाशित हैं। तेजिंद्र शर्मा ने भी विवेच्य अवधि में लगभग पंद्रह कहानियों का सृजन किया है। उन्होंने शुरुआत कविता से की और फिर सारी ऊर्जा कहानी लेखन में लगा दी। समकालीन भारतीय साहित्य, विपाशा, गिरिराज, जनसत्ता, दैनिक ट्रिब्यून तथा अन्य पत्र-पत्रिकाओं में उनकी कहानियां प्रकाशित हैं। विपाशा में देह, उस पेड़ के परिंदे, समकालीन भारतीय साहित्य में डूबते सूरज की लालिमा, हिमप्रस्थ में भवजाल, दैनिक जागरण में दौड़ते रहो वत्स, डेमोक्रेटिक वल्र्ड में जीवे मेरा लाल और दैनिक ट्रिब्यून में पूर्णाहुति प्रकाशित हैं। सरिता सूद, सत्यापुरी नाहन्वी, प्रभा गुप्ता, आशा शैली, ईशिता आर गिरीश, लीला शर्मा, कृष्ण कांत विवेक, अर्पणा धीमान, जितेंद्र अवस्थी प्रभृति कुछ अन्य कहानीकार हैं जो विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कहानी सृजन करते रहे हैं।

इक्कीसवीं शताब्दी में हिमाचल की हिंदी कहानी संवेदना और शिल्प की दृष्टि से नए धरातल पर प्रतिष्ठित हुई है और राष्ट्रीय स्तर पर पहचान कायम की है। इस शती के पहले दशक में एसआर हरनोट, राज शर्मा, राजेंद्र राजन, राजकुमार राकेश, संतोष शैलजा, सुदर्शना पटियाल, बद्रीसिंह भाटिया, त्रिलोक मेहरा, केशव, जयदेव विद्रोही, श्रीनिवास श्रीकांत, हंसराज भारती, भानु प्रताप कुठियाला, अरुण भारती, मुरारी शर्मा, साधुराम दर्शक, विजय रानी बंसल, नरेश पंडित, जयवंती डिमरी, नरेश कुमार उदास, कृष्णा अवस्थी, प्रत्यूष गुलेरी, प्रदीप कुमार शर्मा, सत्यपाल शर्मा, सुशील कुमार फुल्ल, केआर भारती, कैलाश आहलूवालिया, भगवान देव चैतन्य, श्याम सिंह घुना, सुदर्शन वशिष्ठ प्रभृति सृजनरत हैं। विवेच्य अवधि में एसआर हरनोट के तीन कहानी संग्रह ‘दारोश तथा अन्य कहानियां’ (2001), ‘जीनकाठी तथा अन्य कहानियां’ (2008) और ‘मिट्टी के लोग’ (2010) प्रकाशित हुए हैं। हरनोट की अधिकांश कहानियों की प्रकृति ग्रामोन्मुख रही है। उनकी कहानियों में दादा, दादी, मां या बच्चों की किसी न किसी रूप में भूमिका रहती है। गांव के मुखिया, प्रधान, साहूकार, देवी-देवताओं के मंदिर, पूजा-अर्चना आदि उनकी कहानियों के केंद्र में रहते हैं जिससे वे ग्रामीण जीवन की विसंगतियों, विषमताओं और जाति विधान की दीवारों से टकराते सामान्य जन की पीड़ा को मूर्तिमान करते हैं। हरनोट की हिमाचल प्रदेश की संस्कृति पर गहरी पकड़ है। इसलिए उनकी कहानियों में हिमाचल प्रदेश का धार्मिक और सांस्कृतिक जीवन विविध रूपों में साकार हुआ है। ‘दारोश तथा अन्य कहानियां’ शीर्षक कहानी संग्रह में दस कहानियां- बिल्लियां बतियाती हैं, बीस फुट के बापू जी, माफिया, कागभाखा, बच्छिया बोली है, लाल होता दरख्त, हिरख, मिस्त्री, दारोश और मु_ी में गांव संगृहीत हैं। ‘बिल्लियां बतियाती हैं’ हरनोट की चर्चित कहानियों में से एक है। इसमें कहानीकार ने अम्मा की सृष्टि अद्भुत कौशल से की है। बहू-बेटे के नगर में जाने के बाद पति के देहावसान से अम्मा निपट अकेला अनुभव करती है। बेटे को पितृदोष से बचाने के लिए मसाण जगवाती है। अपने अकेलेपन को दूर करने के लिए अम्मा चिडिय़ों और बिल्लियों के सहारे जीवनयापन करती है। ‘बीस फुट के बाबूजी’ में कहानीकार ने पिता-पुत्र के बदलते रिश्तों का चित्रण किया है। ‘दारोश’ शीर्षक कहानी में पहाड़ी ग्रामांचल में विवाह संबंधी कुछ कुप्रथाओं का उल्लेख है। ‘कानम’ इस प्रथा का विरोध करती है और इस प्रथा के उन्मूलन के लिए संघर्ष करती है। ‘हिरख’, ‘मिस्त्री’, ‘मु_ी में गांव’ आदि कहानियों में ग्रामीण जीवन में व्याप्त जाति विधान की रिक्तता उद्घाटित की गई है। हरनोट अपनी कहानियों में गांव की दुर्दशा और उसके कारणों की तलाश करते हैं। वह गांव के सामान्य जन के शोषण के लिए गांव के मुखिया, प्रधान और सूदखोर महाजनों को उत्तरदायी ठहराते हैं जिनकी नजर निर्धन व्यक्ति की जमीन या नारी पर बाज की भांति रहती है जिसे ‘कागभाखा’, ‘लाल होता दरख्त’, ‘हिरख’, ‘मु_ी में गांव’ जैसी कहानियों में देखा जा सकता है। हरनोट की कहानियों के भाषिक शिल्प का एक निजी मुहावरा है।

ग्रामांचल के पात्रों और उनके परिवेश का प्रामाणिक और विश्वसनीय रूप में साकार करने वाली स्थानीय रंगत युक्त भाषा, स्थितियों, तथ्यों, दृश्यों और घटनाओं को सहज और स्वाभाविक रूप में प्रस्तुत करने में सक्षम है। ‘जीनकाठी तथा अन्य कहानियां’ में हरनोट की नौ कहानियां- जीनकाठी, मोबाइल, एम डाट कॉम, रोबो, मां पढ़ती है, स्वर्ण देवता दलित देवता, चश्मदीद, कालिख और देवताओं के बहाने संग्रहीत हैं। संदर्भित संग्रह की कहानियां ग्रामीण समाज में स्त्री की स्थिति और उसके अस्तित्व की पहचान करवाती हैं, वहीं दूसरी ओर दलित-वंचित वर्ग के प्रति समाज के दृष्टिकोण का प्रत्याखान करती हैं। इनमें कहानीकार स्थितियों का निरूपण संकेतों, बहुविध व्यंजनाओं के माध्यम से पाठक के सामने लाते हैं। हरनोट के इस संकलन की पहली कहानी ‘जीनकाठी’ में दलित समाज की समस्या को भिन्न स्तर पर उठाया गया है। यह भिन्न प्रकार की दलित कहानी है। इसमें समाज में व्याप्त दलित विरोधी परम्परा को नए कोण से देखा गया है। यह कहानी हिमाचल प्रदेश के पिछड़े गांव से संबंध रखती है जिसमें सैकड़ों वर्ष पूर्व से प्रचलित अमानवीय परम्परा कथावस्तु का आधार बनाई गई है। इसमें पर्वतीय प्रदेश के गांव में प्रचलित अद्भुत और रोमांचक मुंडा महोत्सव के संदर्भ में सवर्ण समाज की मानसिकता की विकृतियां और घोर स्वार्थ भावना प्रकट की गई है। मुंडा पर्वतीय प्रदेश का प्राचीन धार्मिक उत्सव है जिसमें पहाड़ी क्षेत्र की दुर्लभ बेड़ा जाति की प्रमुख रूप में सहभागिता होती है। इस उत्सव के आयोजन के लिए बेड़ा जाति के एक व्यक्ति का चयन किया जाता है। उसे स्नान आदि के उपरांत यज्ञोपवीत धारण करवा कर उत्सव के अवसर पर ब्राह्मणत्व प्रदान कर उसकी देवता की भांति पूजा अर्चना की जाती है। ब्राह्मण और देवता बनकर बेड़ा जाति का व्यक्ति इस अवसर पर गौरवान्वित होता है और अपनी जान को जोखिम में डालकर ऊंची पहाड़ी से नीचे तक पहुंची मोटी रस्सी की जीनकाठी पर चढक़र धीरे-धीरे सरकते हुए नीचे उतरता है। उसे देवत्व और ब्राह्मणत्व कुछ पलों के लिए ही मिलता है। कहानी में बेड़ा जाति के सहजू में यह चेतना उत्पन्न होती है।

वह सोचता है, ‘उसकी बेड़ा जाति जीनकाठी ही तो है जिसका इस्तेमाल अपनी स्वार्थपूर्ति और तमाम पुण्य के लिए भागीदार बनने के लिए शर्मा या उसे जैसे तमाम उच्च वर्ग के लोग सदियों से करते आ रहे हैं। इसके एवज उस अछूत को क्या मिलेगा? सिर्फ कुछ क्षणों का ब्राह्मणत्व और देवत्व।’ ‘मां पढ़ती है’ इस संकलन की नितांत संवेदनशील कहानी है। इसमें शहर की चकाचौंध और आधुनिक कहे जाने वाले परिवेश में रहने वाले बेटे के अंतर्लोक को अनावृत किया है। बेटा कथाकार है और वह अपनी कई पुस्तकों का विमोचन शहर में मुख्यमंत्री से करवाता है, परंतु वह चाहते हुए भी मां को समारोह में गांव से शहर नहीं लाता, क्योंकि वह समझता है कि मां नगर के आधुनिक परिवेश में सामंजस्य स्थापित न कर सकेगी। उसे कई तरह की आशंकाएं घेरती हैं कि वह नगरीय परिवेश में सामंजस्य कैसे बिठा पाएगी। उसकी गंवई वेशभूषा, प्लास्टिक के जूते और बेतरतीब उलझे बालों के घास के तिनकों और मिट्टी-गोबर की गंध से सने हाथों को देखकर समारोह में उपस्थित लोग क्या सोचेंगे? कहानीकार ने आधुनिक समाज के पढ़े-लिखे लोगों की ओढ़ी हुई जिंदगी और मानसिकता जिस सहजता और बेलौसपन के साथ सामने लाई है, वह श्लाघनीय है। यह कहानी व्यक्ति के मन के अंधेरे कोनों में झांक कर उसकी आंतरिकता को प्रकट करते हुए मिथ्या प्रदर्शन और दंभ को अनावृत करती है।

‘देवताओं के बहाने’ में कहानीकार ने बुनकर समुदाय से संबंध रखने वाले महत्वाकांक्षी युवक सोम के माध्यम से सभी तरह से पिछड़े गांव के उत्थान और विकास के लिए नई राह दिखाई है। कहानीकार ने प्रस्तुत कहानी में यह दिखाया है कि वैज्ञानिक और भौतिक विकास के बावजूद पर्वतीय प्रदेश का ग्रामीण समाज देवताओं की अलौकिक शक्ति में आज भी अटूट आस्था रखता है। सांस्कृतिक परंपराएं और आस्थाएं विभिन्न सामाजिक-आर्थिक परिवर्तनों के बाद भी किसी न किसी रूप में आज भी विद्यमान हैं। यहां हरनोट ने लोक आस्थाओं को जीवंत रूप में प्रस्तुत करते हुए उन्हें लोकमंगल के लिए प्रयोग किया है। ‘सवर्ण देवता दलित देवता’ कहानी में दलित विमर्श नितांत जीवंत रूप में मुखर हुआ है। इसमें मानव निर्मित जाति विधान की दोषपूर्ण परंपराओं को सामाजिक-सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में देखा है। परम्परागत और आधुनिक जाति विषयक मूल्य बोध को तूरी परिवार से संबंध रखने वाले पिता और पुत्र के माध्यम से व्यंजित किया है। पिता परंपरावादी है और पुत्र में आधुनिक चेतना है। उनके चिंतन में पीढ़ीगत अंतराल है। ‘मोबाइल’ एक भिखारी बालिका को केंद्र में रखकर लिखी गई कहानी है जिसमें मां-बाप उसे प्रतिदिन ईश्वर की मूर्ति को थाली में रखकर भिक्षा मांगने भेजते हैं। कभी शिव, तो कभी हनुमान और कभी संतोषी माता की तस्वीर लेकर मांगने भेजते हैं। लोग अपनी आस्थाओं के अनुरूप मूर्ति के आगे कुछ सिक्कों से ईश्वर को प्रसन्न करते हैं और दान देते हैं। इस बालिका की स्थिति का लाभ उठाकर राजनीतिक पार्टियां शिव, संतोषी माता और हनुमान के हाथ पर अपने दल के चिन्ह के अनुरूप थाली में मूर्ति रखकर अपने चुनाव में उन्हें प्रचार का माध्यम बनाती हैं। कहानीकार ने इस कहानी के माध्यम से यह प्रतिपादित किया है कि राजनीतिक पार्टियों से लेकर धन कमाने वाली कंपनियों तक, सभी निर्धन, यहां तक कि भिक्षा पर आश्रित निर्धन बालिका को भी अपने स्वार्थ की सिद्धि के माध्यम बनाते हैं। राजनीति का यह षड्यंत्र और कंपनियों का बाजार कहां तक फैला है, इस ओर यह कहानी संकेत करती है। ‘एम डॉट काम’ में प्रौद्योगिकी के फलस्वरूप परिवर्तनों की ओर संकेत है। गांव में दलित जाति के व्यक्तियों द्वारा मृत पशुओं को ढोने की परंपरा रही है। काल गति और नई प्रौद्योगिकी के फलस्वरूप नई साइबर संस्कृति का विकास हुआ है जिससे परंपराओं में परिवर्तन आया है। यह कहानी उद्घाटित करती है कि परिवर्तित परिवेश में पशु ढोने की परंपरा में बदलाव अवश्य आया है, परंतु उनकी मानसिकता में परिवर्तन नहीं आया है। ‘रोबो’ व्यंग्यात्मक धरातल पर राजनीतिक नेताओं की भयाक्रांत मनोस्थिति और असुरक्षा की भावना के कारण कायरता का चित्रांकन है। ‘कालिख’ और ‘चश्मदीद’ स्त्री विमर्श की कहानियां हैं।

– (शेष भाग अगले अंक में)

दोहे

मंदिर गुजरूं शीश झुके, नफरत मस्जिद जाए।
नास पिटे इस धरम का, पीहर दूर कराए।।
ऐसी महिमा राम की, झूठे हो गए राम।
रावण पसरे हर गली, सीता हैं बदनाम।।
आदर्शों की भीड़ में, बौने हो गए राम।
रावण कांधे चढ़े हुए, खाए दूध बादाम।।
काली पट्टी नैन पर, गोबर भरा दिमाग।
सोलह दूनी आठ हैं, अंधभक्तों के भाग।।
सत्ताखोरी धरम हुई, मंडी बिकते राम।
विश्वगुरु उंगली पकड़े, मन्दिर खिंचते राम।।
सारे मामू बना दिए, ईवीएम के साथ।
झूठे को माया मिली, जनता मूरख नाथ।।
राम बिकते मंडी में, सदन हो गई हाट।
जोगी सत्ता दास हुए, जनता टूटी खाट।।
लिखा-पढ़ी की है नहीं, ना रटने की बात।
राम अगर हिरदय बसें, फीकी पड़ती जात।।
कायर सत्ता बो रही, नफरत अनगिन खेत।
दाढ़ी-चोटी खेत हैं, क्यों सत्ता के हेत।।
खबर छपी अखबार में, बसती बदली ढोर।
राम-ख़ुदा दोऊ लड़े, मानुष आदम खोर।।
सवाल किस से पूछिए, देगा कौन जवाब।
अंधे कुएं में गूंज रही, अपनी ही आवाज।।
बिन छुट्टी बिन काम के, लहरें गिने फरीर।
राम भरोसे देश में, लोगों की तकदीर।।
धवल केश दाढ़ी धवल, उजला-उजला वेश।
मन में लाखों झूठ लिए, घूम रहे दरवेश।।
सातों दिन अवतार के, छुट्टी ना तकदीर।
कपड़े बदले दस दफा, उरियां रहे जमीर।।
चला फकीरा छोड़ कर, बुरे देश के हाल।
हड्डी चिपकी गाल से, पिचके-पिचके गाल।।
अजब खेल उस सांप का, दोमुंहा जो सांप।
भखसे-निकसे एक गली, सरयू धोवे पाप।।
राजा मैं-मैं बोलता, भेड़ें बोलें राम।
छुरी बगल में रखे हुए, राजा बकरी धाम।।
छप्पन इंची सीना है, मुंह में कटी जबान।
तिरछे नैना पेल दिए, मदफन और मसान।।
मजमा लगाए बढ़ गया, करे न पूरी बात।
परचारक की जात है, हांके मन की बात।।
-अजय पाराशर

अवलोकन : देवभूमि हिमाचल के लोकगीतों में ‘राम’

डा. रविंद्र सिंह
मो. – 9015060820

सरलता, सहजता एवं सरसता के कारण लोकगीतों का आम जनमानस पर गहरा प्रभाव रहा है। इन लोकगीतों में संस्कृति और परम्परा से जुड़े विषयों को अमरत्व प्रदान करने की अनूठी क्षमता रही है। सनातन भारतीय समाज ने अपने आराध्य भगवान श्रीराम के प्रति अपनी आस्था और श्रद्धा को अभिव्यक्त करने हेतु भी लोकगीतों को एक प्रभावशाली माध्यम के रूप में चुना है। लोकगीतों के माध्यम से सनातन समाज भगवान श्रीराम के व्यक्तित्व एवं उनके जीवन मूल्यों के प्रति आस्था व्यक्त करता रहा है। देवभूमि हिमाचल में भी प्रभु श्रीराम के प्रति भक्ति को अभिव्यक्त करते लोकगीतों की एक लम्बी परम्परा रही है। अब अयोध्या में रामजन्म स्थान पर भव्य मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा समारोह को लेकर पूरे देश राममय हुआ है। लोकगीतों और भजनों के माध्यम से रामभक्त अपनी आस्था और श्रद्धा को व्यक्त कर रहे हैं। ऐसे में देवभूमि हिमाचल में भगवान श्रीराम को समर्पित लोकगीतों का अध्ययन एवं मूल्यांकन आवश्यक हो जाता है। आज देवभूमि सहित समूचे भारतवर्ष में आयोजित होने वाले सार्वजनिक आयोजनों से लेकर सोशल मीडिया पर भगवान श्रीराम से जुड़े लोकगीतों की धूम है। देवभूमि हिमाचल के लोक की सामूहिक अनुभूतियों के माध्यम से भगवान श्रीराम के व्यक्तित्व एवं चरित्र को अभिव्यक्त करते अनेक लोकगीतों का सृजन हुआ है। भगवान श्रीराम के जीवन-मूल्यों की शिक्षा पीढ़ी दर पीढ़ी इन लोकगीतों के माध्यम से मिलती रही है। यहां भगवान श्रीराम को समर्पित कुछ ऐसे लोकीगीतों को संकलित करने का प्रयास किया गया है, जिनका सृजन और प्रसार देवभूमि हिमाचल में हुआ है।

प्राण-प्रतिष्ठा से पहले ‘राममय’ भारत
पीढिय़ों का बलिदान अंतत: फलीभूत हो गया। भगवान श्रीराम की नगरी अयोध्या में भव्य श्रीराम मंदिर बन रहा है। 22 जनवरी को श्रीराम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा के पावन एवं ऐतिहासिक क्षणों से पूर्व न केवल भारत, बल्कि पूरे विश्व भर के सनातन धर्म के अनुयायियों में हर्ष एवं उल्लास का वातावरण था। प्रफुल्लित मन से आनंद की ये अनुभूतियां भिन्न-भिन्न माध्यमों से बारम्बार अभिव्यक्त हो रही हैं। गीत एवं लोकगीत भी इस अभिव्यक्ति का एक सशक्त एवं भावपूर्ण माध्यम बने हैं। हिंदी सिनेमा से लेकर लोकगीतों में भगवान श्रीराम की महिमा का आस्थामय और भावनात्मक वर्णन होता रहा है। भगवान श्रीराम पर बनी फिल्मों, धारावाहिकों, भजनों और लोकगीतों का अध्ययन करें तो महसूस होता है कि भगवान श्रीराम का व्यक्तित्व एवं चरित्र सृजन और रचना का एक पसंदीदा विषय रहा है। एक रिपोर्ट के अनुसार, ‘हिंदी सिनेमा के उदय से लेकर अब तक रामायण पर 50 से अधिक फिल्में बनी हैं। वहीं 20 से अधिक टीवी धारावाहिक का भी निर्माण किया गया, लेकिन साल 1987 में रामानंद सागर द्वारा निर्देशित टीवी धारावाहिक ‘रामायण’ अब तक की सबसे लोकप्रिय रामायण धारावाहिक है, जिसके भजन लोगों को आज भी मंत्रमुग्ध कर देते हैं।

इस धारावाहिक में ‘सीता राम दरस रस बरसे जैसे सावन की झड़ी’ भजन को आज भी भक्त सुनकर मंत्रमुग्ध हो जाते हैं।’ इस प्रकार सिनेमा और लोक साहित्य में भगवान श्रीराम की स्तुति का एक विशाल एवं गौरवपूर्ण अध्याय रहा है। अयोध्या राम मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा से पूर्व भगवान श्रीराम के भजनों की एक बड़ी श्रृंखला सोशल मीडिया पर प्रसारित हो रही थी। पुराने लोकगीतों को नई धुन और सुर के साथ लोग गाना और सुनना अब भी पसंद कर रहे हैं। दि प्रिंट में प्रकाशित एक रिपोर्ट में लिखा था, ‘जैसे-जैसे अयोध्या राम मंदिर उद्घाटन का समय नजदीक आता जा रहा है, वैसे-वैसे राम आगमन और रामायण से जुड़े भक्ति गीतों की लिस्ट लम्बी होती जा रही है। विभिन्न कलाकार लगातार राम पर भक्ति गीत बना रहे हैं, जिसकी सराहना पीएम नरेंद्र मोदी भी समय-समय पर कर गायकों की हौसला अफजाई कर रहे हैं।’ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और कई अन्य प्रतिष्ठित हस्तियां सार्वजनिक मंचों पर आकर निरंतर इन भजनों को अधिक से अधिक प्रसारित करने का आग्रह कर रहे हैं।

लोकगीत भाव की सरल, सहज एवं सरस अभिव्यक्ति
भारतीय परम्परा में लोकगीत अभिव्यक्ति के सहज, सरल एवं सरस माध्यम रहे हैं। सरलता, सहजता और सरसता ही इनकी सबसे बड़ी प्रभाव शक्ति है। मकरध्वज श्रीवास्तव ने लोकगीतों के इसी महत्व को रेखांकित करते हुए लिखा है, ‘लोकगीत का महत्व व्यक्ति के नैतिक मूल्यों द्वारा स्थापित समाज में प्रचलित धुनों एवं मूल्यों पर आधारित होता है। भारतीय समाज में लोक गीतों का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है।

वस्तुत: लोकगीत जीवन के गीत हैं, गावों के गीत हैं, उल्लास एवं उमंग के गीत हैं, भावनाओं और आशाओं के गीत हैं। इन गीतों में लोक संस्कृति की झलक स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है।’ डा. कुमार विश्वास ने लोक को राष्ट्र की आत्मा घोषित करते हुए लोक साहित्य का महिमामंडन किया है। वह लिखते हैं, ‘लोक राष्ट्र का अमर स्वरूप है, लोक ज्ञान और सम्पूर्ण अध्ययन में सब शास्त्रों का पर्यवसान है। अर्वाचीन मानव के लिए लोक सर्वोच्च प्रजापति है। लोक, लोक की धात्री सर्वभूतात्मा पृथ्वी और लोक का व्यक्त रूप मानव, यही हमारे नए जीवन का अध्यात्म-शास्त्र है। इसका कल्याण हमारी मुक्ति का द्वार और हमारे निर्माण का नवीन रूप हैं।’ वह आगे लिखते हैं, ‘समाज में रहते हुए जब मनुष्य की सामूहिक भावनाएं आन्दोलित होती हैं, तब उसकी सहज व अकृत्रिम, लयबद्ध, रागात्मक अभिव्यक्ति ही लोकगीत कहलाती है।’                                                                                                                         -(शेष भाग अगले अंक में)

कविता

सांझा भवन बना लें
आओ किसी  पर
सांझा भवन बना लें
भेद सारे भूल कर,
अनूठा चमन उगा लें।।

रूठें कभी न भूल कर,
ऐंठें कभी न चूक कर,
बिछुड़ें कभी न भूल कर,
ऐसा वतन सजा लें।।

अलग न होंगे रास्ते,
अब न होंगे हादसे,
कोई न छीने हाथ से,
ऐसी कसम उठा लें।।

मन की पर्तें साफ कर,
गुनाह सभी के माफ कर,
अड़ें न झूठी बात पर,
सच्चा शगुन मना लें।।

खो न जाएं राग में,
जलें न द्वेष – आग में,
देखें न चेहरा दा$ग में,
ऐसी लगन लगा लें।।

बहस न हो जात पर,
हो न स्वार्थ घात पर,
आदर्श ही हो हाथ पर,
ऐसा चलन बना लें।।

-गौतम शर्मा ‘व्यथित’


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