हिमाचली फरियाद का दर्द

By: Jan 6th, 2024 12:05 am

हिमाचल के वित्तीय हालात प्रदेश को फरियादी बना चुके हैं या हमने अपने अर्थतंत्र के तमाम सबूतों को केंद्र के पास गिरवी रख दिया। भले ही डबल इंजन सरकार के पहरावे में पूर्व सरकार के पांच साल निकल गए या अब व्यवस्था परिवर्तन की राह पर कांग्रेस सरकार की जद्दोजहद सामने आ गई, लेकिन पर्वतीय प्रदेश का वजूद अब केंद्र का खिलौना बना न•ार आ रहा है। केवल एक बार धूमल सरकार के वक्त में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने हिमाचल को गले लगाया और आगे बढऩे की प्रेरणा दी, अन्यथा ढोल-ढमाकों ने सिर्फ सियासी घोंसलों में सपने ही दिए। प्रदेश के गले में लटका अस्सी हजार करोड़ का ऋण, वित्तीय संसाधनों की कमी और ऊपर से प्राकृतिक आपदा से रूबरू होने का दर्द अब दरबारी बनकर दिल्ली सरकार के समक्ष धूम रहा है। एक साल की कसरतों ने कितने भी ढोए आंसू, मगर सियासत का रेगिस्तान इन्हीं का प्यासा रहा। अब केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह से मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू की मुलाकात के क्षण और केंद्रीय राहत के पन्ने दर्द से भरे हैं, लेकिन इंतजार है उस घड़ी का जब बरसात की त्रासदी को केंद्र से राहत का पैगाम मिले। आपदा के बाद जरूरतों का मूल्यांकन 9727 करोड़ की आशा में केंद्र को टुकर-टुकर पुकार रहा है और यही दरख्वास्त लिए मुख्यमंत्री देश से अपने हक की फरियाद करते हैं। यह दीगर है कि प्रदेश ने अपने स्तर पर राहत पैकेज के तहत 4500 करोड़ की राशि तय की और हर प्रभावित के मन में दस्तक दी। हिमाचल की यह वही जनता है जिसके सामने प्रधानमंत्री स्वयं रोड शो करते हुए आश्वासन की मुद्रा में केंद्र की गारंटी बने न•ार आते थे। एक साल पहले हिमाचल के साथ केंद्र के रिश्ते अब क्यों सियासी पाला बदल कर बहरे हो गए या यहां की पूरी जनता दोषी हो गई। क्या प्राकृतिक त्रासदी में भी सियासी विरोध के सुर सुने जाने चाहिएं या यह मान लिया जाए कि अगले कुछ साल यह प्रदेश सियासी नरक के जख्म इसलिए ढोएगा क्योंकि केंद्र में दूसरी पार्टी का बादशाह बैठा है।

वोट के बीच मतांतर देखने की दूरबीन अगर यूं ही निरीह व रूठी रही तो यह मानना पड़ेगा कि हिमाचल को वित्तीय संकट में फंसाने के लिए केंद्र सरकार भी बहाने बना रही है। वित्तीय प्रबंधन की अति कठिन परीक्षा में सुक्खू सरकार के लिए केंद्र सरकार का रवैया फिलहाल मुफीद नहीं है। अड़चनों की फेहरिस्त में राज्य की मजबूरियों को बढ़ाकर सत्तर लाख लोगों का अपमान करना अगर राजनीतिक सौगात है, तो हिमाचल के भाजपा विधायक व सांसद भी क्यों न जिम्मेदार समझे जाएं। इसी जनता ने कल अगर भाजपा को आसन दिया तो आज कांग्रेस को मिले बहुमत को मिल रही यह सजा, वास्तव में प्रदेश के जनादेश का ही विरोध है। केंद्र गारंटी बनाम गारंटी, जीएसटी बनाम जीएसटी, योजना बनाम योजना और परियोजना बनाम परियोजना चुनने लगा तो हिमाचली इच्छाओं, संभावनाओं, विकास और दायित्व का वित्तीय पोषण ईमानदारी से नहीं होगा। अर्थव्यवस्था के हर तंत्र और विकास के हर रास्ते को केंद्र सरकार का शुभ संदेश चाहिए वरना इन हालात में सिर्फ छींटाकशी मिलेगी। हिमाचल में बाहरी संसाधनों से विकास के रास्तों पर भी संकट आ खड़ा हुआ है। वित्तीय पोषण के बाहरी स्रोतों से पहले ही चौदह हजार करोड़ की परियोजनाओं पर कार्य चल रहा है। इसी रास्ते से वर्तमान सरकार कांगड़ा को पर्यटन राजधानी व पूरे प्रदेश के टूरिज्म डिवेलपमेंट पर 2800 करोड़ की योजना को अमलीजामा पहनाना चाहती है, लेकिन शर्तों की कठिनाई में अगले कुछ सालों तक धन उपलब्ध नहीं होगा। मंडी के शिवधाम व धर्मशाला के कानवेंशन सेंटर पर इस तरह ग्रहण लग रहा है। जाहिर है इन परिस्थितियों में प्रदेश सरकार को एक ओर कठिन वित्तीय फैसले लेने पड़ेंगे, तो दूसरी ओर निजी निवेश के लिए प्रोत्साहन की खिड़कियां चारों ओर खोलनी पड़ेंगी। पहले ही बिजली बोर्ड के कर्मचारियों को निश्चित समय पर पगार न मिलने से असंतोष पनप रहा है और अगर खजाने में इसी तरह की अनिश्चितता रहेगी तो दबाव में सरकार के लिए कटौतियों का ही इलाज होगा। वित्तीय कटौतियों के कारण विकास पर पडऩे वाला प्रभाव प्रदेश के लिए माकूल नहीं हो सकता, जबकि दूसरी ओर गारंटियों की फेहरिस्त कंकाल बनकर डरा रही है। ऐसे में दिल्ली हाजिरी से प्रदेश कितना व क्या हासिल कर पाता है, इसके ऊपर काफी कुछ निर्भर करता है। ओपीएस की शुरुआत के बावजूद एनपीएस के खाते की जमा राशि पर केंद्र कुंडली मार कर बैठा है। ऋण सीमा पर सख्त पहरेदारी और अब विदेशी वित्तीय पोषण पर लग रही पाबंदियों से हिमाचल का प्रदर्शन बेहद सीमित होता दिखाई दे रहा है। ऐसे में कम से कम आपदा जैसे प्रश्न पर भी अगर केंद्र सियासत करेगा, तो यह जलालत हिमाचल के अस्तित्व को ठोकर मारने जैसी ही होगी।


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