पाकिस्तान में बलूचों का सत्याग्रह

बलूचियों की एक समस्या तो पाकिस्तान सरकार से है, लेकिन उनकी दूसरी समस्या चीन सरकार से है। पाकिस्तान ने बलूचिस्तान की गिवादर बंदरगाह के बहाने लगभग उस इलाके का प्रशासन परोक्ष रूप से चीनी अधिकारियों के हवाले ही कर दिया है। चीनी अधिकारियों ने बलूचों को उनके अपने ही घर में दूसरे दर्जे का शहरी बना कर रख दिया है। जब कभी बलूचों और चीनियों में झगड़ा होता है, जो गाहे बगाहे होता ही रहता है, तो पाकिस्तान की सरकार चीनी अधिकारियों का साथ देती है, न कि बलूचों का। देखना होगा बलूच युवक-युवतियों का यह सत्याग्रह किस करवट बैठता है? फिलहाल अंतरिम प्रधानमंत्री भी उनकी बात नहीं सुन रहे हैं, जो खुद बलूचिस्तान से संबंध रखते हैं…

पाकिस्तान में क्षेत्रफल के लिहाज से सबसे बड़ा प्रांत बलूचिस्तान है और सबसे ज्यादा अशांति व विद्रोह इसी बलूचिस्तान में है। बलूचिस्तान के इस विद्रोह को पाकिस्तान के खिलाफ राष्ट्रवादी विद्रोह के नाम से पुकारा जाता है। पाकिस्तान में रहने वाले एटीएम (अरब-तुर्क-मुगल मंगोल) का बलूचों पर सबसे बड़ा आरोप यह है कि वे कट्टर मुसलमान नहीं हैं। उन्होंने सदियों पहले तुर्कों से पराजित हो जाने के बाद इस्लाम पंथ या शिया पंथ को स्वीकार तो कर लिया लेकिन अपनी पुरानी परम्परा, रीति रिवाजों और इतिहास को भी अपनाए रखा । या कम से कम उन्हें अपनी विरासत में से त्यागने से इन्कार कर दिया। पाकिस्तान के विश्वविद्यालयों में पढ़ रहे बलूची छात्रों को मोटे तौर पर इस्लाम विरोधी ही मान लिया जाता है। बलूचों की पाकिस्तान के खिलाफ यह लड़ाई पाकिस्तान के गठन से ही शुरू हो गई थी। दरअसल आज के बलूचिस्तान का बहुत सा हिस्सा 1947 से पहले कलात रियासत कहलाता था। अंग्रेजों के भारत छोड़ कर जाने से कुछ वर्ष पहले से ही यह सुगबुगाहट शुरू हो गई थी कि अंग्रेजों के चले जाने के बाद कलात रियासत का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा। कलात रियासत को कैसे बचा कर रखा जा सकता है, इसके बारे में उसने उस समय के जाने माने वकील मोहम्मद अली जिन्ना से बात की। जिन्ना की दृष्टि में इसका एक ही तरीका था कि किसी तरह यह सिद्ध किया जाए कि कलात हिंदुस्तान का हिस्सा ही नहीं है। कलात के महाराजा ने इसको लेकर न्यायालय में मुकद्दमा दायर कर दिया और जिन्ना को ही अपना वकील बनाया। लेकिन जिन्ना मुकद्दमा जीत नहीं सके। तब तक पाकिस्तान बन गया। कलात के महाराजा का कहना था कि भारत स्वतंत्रता अधिनियम 1947, जिसके तहत रियासतों को भारत या पाकिस्तान में रहना था, उस पर लागू नहीं होता।

लेकिन ब्रिटिश सरकार ने इसे नहीं माना। अब कलात के महाराजा के आगे बड़ा प्रश्न था कि वह भारत में रहे या पाकिस्तान में जाए? कलात के महाराजा ने यह अंदाजा लगा लिया था कि पाकिस्तान मोटे तौर पर इस्लामी राज्य बनेगा, जो बलूचों को रास नहीं आएगा। जिन्ना ने कलात के महाराजा को यह आश्वासन भी दिया कि यदि वह पाकिस्तान में शामिल हो जाता है तो उसकी सत्ता को बरकरार रखा जाएगा। लेकिन उसने जिन्ना को नकार कर पंडित नेहरु को खत लिखा कि कलात रियासत भारत में शामिल होना चाहती है। लेकिन नेहरु ने उसकी इस प्रार्थना को अस्वीकार कर दिया। तब जिन्ना ने बलपूर्वक कलात को पाकिस्तान में मिला कर कलात नरेश को अपदस्थ कर दिया। और उसी दिन से बलोच सरदारों ने पाकिस्तान के खिलाफ लड़ाई छेड़ दी। पाकिस्तान सरकार ने उस विद्रोह को कुचला। लेकिन उसी दौर में बंगालियों ने पाकिस्तान के एटीएम को चुनौती देते हुए बंगला संस्कृति व भाषा की रक्षा के लिए लड़ते हुए पाकिस्तान से अलग होकर बंगला देश का निर्माण कर लिया। उससे बलूचों को नई ऊर्जा व प्रेरणा मिली। लेकिन अब तक बलूच सामाजिक संरचना में सरदारों का प्रभुत्व भी कम हो चुका था। तब दूसरे दौर की लड़ाई बलूचों की युवा पीढ़ी ने संभाली। इस नई पीढ़ी के लड़ाई में युवकों के साथ लड़कियां भी बहुत बड़ी संख्या में शामिल होने लगीं। पाकिस्तान ने इसका उत्तर अपने तरीके से दिया। जिस युवक या युवती पर थोड़ा सा भी संदेह हो जाता था कि वह बलूच समर्थक है और अभी भी बलोच संस्कृति या बलोच भाषा की बात करता है, उस पर बाकायदा नजर रखी जाती थी। इस अपशकुनि नजर के थोड़े दिनों बाद ही वह कालेज, विश्वविद्यालय या घर से गायब मिलता था। कुछ दिन बाद या तो उसकी लाश मिलती है या फिर वह सदा कि लिए गायब ही रहता है, यानी उसकी लाश भी नहीं मिलती। पाकिस्तान सरकार ने एक सीटीडी महकमा बना रखा है, जिसका शाब्दिक तर्जुमा तो ‘आतंकवाद से लडऩे वाला विभाग’ बनता है, लेकिन असल में इसका काम बलोच संस्कृति व भाषा के समर्थन में बात करने वाले युवक-युवतियों को गायब करना व उनको खत्म करना ही रह गया है। अब तक यह विभाग हजारों बलोचों को गायब कर चुका है।

पाकिस्तान के सर्वोच्च न्यायालय ने भी यह बात स्वीकार की है। जब घड़ा भरने लगता है तो प्रतिक्रिया तो होती ही है। पाकिस्तान के पश्तून इस मामले में अपने ढंग से प्रतिक्रिया कर रहे हैं। उनका टीटीपी यानी तहरीरे तालिबान पाकिस्तान बंदूक लेकर पाकिस्तान की सेना से लड़ रहा है। लेकिन बलोचों ने महात्मा गांधी का सत्याग्रह का रास्ता अपनाया। 23 नवंबर 2023 को हजारों बलोच युवक-युवतियों का एक दल 1600 किलोमीटर की यात्रा तय करके पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद की ओर चल पड़ा। सबसे बड़ी बात यह कि इसमें जितने युवक हैं, लगभग उतनी ही युवतियां शामिल हैं। इसका नेतृत्व भी तीस वर्षीय एक लडक़ी डा. महरंग बलूच ही कर रही थी। ध्यान में रहे, डा. महरंग के पिता भी चौदह साल पहले गायब हो गए थे। इस बार पिछले महीने टुरबट जिला के एक युवक बलाच बलोच को सीटीडी ने मार दिया था। उसी के कारण यह सत्याग्रह शुरू हुआ था। सत्याग्रही पाकिस्तान सरकार से इस गंभीर विषय पर बातचीत करना चाहते थे। लेकिन जैसे ही इस सत्याग्रह का काफिला 1600 किलोमीटर की पैदल यात्रा करके इस्लामाबाद पहुंचा तो सरकार ने उसका स्वागत उसी तरीके से किया जैसे कोई देश विरोधी देश के आक्रमणकारियों का करता है। बहुतों को पकड़ कर जेल में डाल दिया।

लाठीचार्ज से अंगभंग हो गए। सर्दियों का मौसम देखकर ठंडे पानी की बौछारों से सत्याग्रहियों को नहलाया गया। सत्याग्रहियों में बच्चे भी शामिल थे। शायद सत्याग्रहियों को आशा थी कि इस बार पाकिस्तान की सेना ने बलूचिस्तान के रहने वाले अनवर उल हक काकर को अंतरिम प्रधानमंत्री पद संभालने का अवसर दिया है, इसलिए काकर कम से कम अपने लोगों की बात तो सहानुभूति से सुनेंगे। लेकिन काकर का कहना है कि सत्याग्रह के लिए आने वाले बलोच घर जाकर आतंकवादियों में शामिल हो जाएं। सरकार को उनसे निपटना बखूबी आता है। बलूचियों की एक समस्या तो पाकिस्तान सरकार से है, लेकिन उनकी दूसरी समस्या चीन सरकार से है। पाकिस्तान ने बलूचिस्तान की गिवादर बंदरगाह के बहाने लगभग उस इलाके का प्रशासन परोक्ष रूप से चीनी अधिकारियों के हवाले ही कर दिया है। चीनी अधिकारियों ने बलूचों को उनके अपने ही घर में दूसरे दर्जे का शहरी बना कर रख दिया है। जब कभी बलूचों और चीनियों में झगड़ा होता है, जो गाहे बगाहे होता ही रहता है, तो पाकिस्तान की सरकार चीनी अधिकारियों का साथ देती है, न कि बलूचों का। देखना होगा बलूच युवक-युवतियों का यह सत्याग्रह किस करवट बैठता है।

कुलदीप चंद अग्निहोत्री

वरिष्ठ स्तंभकार

ईमेल:kuldeepagnihotri@gmail.com


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