सुरक्षा तो हमारी संसद की सबसे छोटी समस्या है

यही कारण हैं कि संसद बहस के लिए निरर्थक हो चुकी है। इतिहास बताता है कि हमारी संसद दशकों से बिना बहस के कानून पारित करती रही है। कुछ उदाहरणों पर गौर करें : 1990 में चंद्रशेखर सरकार ने दो घंटे से भी कम समय में 18 विधेयक पारित किए; 2001 में 32 घंटों में 33 बिल पारित किए गए; 2007 में लोकसभा ने 15 मिनट में तीन विधेयक पारित किए; 2021 में 20 विधेयक बिना किसी बहस के पारित हुए। स्वाभाविक है कि लोकसभा की बैठकों में भी कमी आई है। यह 1952-70 में प्रत्येक वर्ष 121 दिनों के लिए बैठती थी, लेकिन अब औसत केवल 68 दिन है…

पिछले माह तीन युवकों और एक महिला ने संसद की सुरक्षा का उल्लंघन किया और सांसद के चैंबर के साथ-साथ इमारत के बाहर भी हंगामा किया और ‘भगत सिंह जिंदाबाद’ और ‘निरंकुशता नहीं चलेगी’ जैसे नारे लगाए। सुरक्षा की चिंताओं पर हमारे राजनीतिक दलों को एकजुट करने के बजाय, इस घटना ने एक राजनीतिक हंगामा शुरू कर दिया। विपक्ष का दावा है कि यह दिखाता है कि युवा सरकार की नीतियों से असंतुष्ट हैं। सरकार का कहना है कि विपक्ष अराजकता फैला रहा है और चुनावों में अपनी हालिया हार के बाद इस मुद्दे का राजनीतिकरण कर रहा है। संसद में विपक्ष के विरोध के कारण उनके 140 से अधिक सांसदों को लोकसभा और राज्यसभा दोनों से ‘अनियंत्रित व्यवहार’ के लिए निलंबित कर दिया गया। और दोनों सदनों को बिना कोई कामकाज किए कई दिनों के लिए स्थगित कर दिया गया।

यह घटना दिखाती है कि हमारी संसद व्यवधान और विरोध का स्थान बन गई है, और इसके अलावा इसका कोई उपयोग नहीं। संसदीय निष्क्रियता हर गुजरते साल के साथ बढ़ रही है क्योंकि इसके डिजाइन में कुछ गंभीर, मौलिक खामियां हैं।

सबसे पहले इस विषय पर विचार करें कि संसद का नियंत्रण किसके हाथों में है। हमारी संसद में राष्ट्रपति और दो सदन – लोकसभा और राज्यसभा शामिल हैं। राष्ट्रपति के पास किसी भी सदन को बुलाने, सत्रावसान करने या भंग करने की शक्ति है। लेकिन राष्ट्रपति उद्घाटन भाषण देने के अलावा संसद में कहीं नजर नहीं आते हैं। हमारे संविधान ने राष्ट्रपति को प्रधानमंत्री के अधीन बना दिया है।

यह परिस्थिति जवाबदेही की एक घुमावदार समस्या पैदा करती है, क्योंकि प्रधानमंत्री को संसद द्वारा नियंत्रित किया जाना चाहिए, न कि उलट। पीएम लोकसभा में बहुमत का नेता होने के नाते सदन के अध्यक्ष का चुनाव करता है और इस प्रकार सदन को नियंत्रित करता है। जब बहुमत मजबूत हो – जैसा कि अभी है – तो प्रधानमंत्री उपराष्ट्रपति, यानी राज्यसभा के पीठासीन अधिकारी को भी चुन सकते हैं। इस प्रकार, वास्तव में, संसद भी प्रधानमंत्री के अधीन है।

यह घुमावदार समस्या भारत द्वारा ब्रिटिश संसदीय प्रणाली को अपनाने से बहुत पहले स्पष्ट थी। ब्रिटिश संवैधानिक विद्वान आइवर जेनिंग्स ने 1941 में लिखा था, ‘सिद्धांत यह है कि सदन सरकार को नियंत्रित करता है। हालांकि, सच्चाई यह है कि सरकार के बहुमत का सदस्य अपनी सरकार को हराना नहीं चाहता है।’

भारतीय सिस्टम में संसद केवल प्रधानमंत्री के नियंत्रण में ही नहीं, बल्कि न तो वह और न ही उनका मंत्रिमंडल सदन में किसी भी सवाल का जवाब देने के लिए संवैधानिक रूप से बाध्य हैं। सांसदों के सवाल पूछने और मंत्रियों के जवाब देने की प्रथा पूरी तरह से परंपरा पर आधारित है। यहां तक कि इंग्लैंड में भी ब्रिटिश पीएम संसद में सवालों के जवाब देने के लिए संवैधानिक रूप से बाध्य नहीं हैं। यह प्रथा लगातार रूप से केवल 1961 में ब्रिटिश प्रधानमंत्री हेरोल्ड मैकमिलन के कार्यकाल में शुरू हुई। इसे ब्रिटिश कानूनों में स्पष्ट रूप से नहीं लिखा गया है।

भारतीय संसद का एक और बुनियादी दोष यह है कि यह हमारे विशाल और विविध राष्ट्र का अपर्याप्त प्रतिनिधित्व करती है, जिस कारण यह वास्तव में राष्ट्रीय चर्चाओं के लिए अनुपयुक्त है। अन्य लोकतांत्रिक देशों की तुलना में हमारी संसद नागरिकों का कम प्रतिनिधित्व करती है और यह उत्तरी प्रदेशों के पक्ष में एकतरफा है। औसतन, एक भारतीय सांसद 2.4 मिलियन नागरिकों का प्रतिनिधित्व करता है, जबकि अमरीका में यह संख्या 748,000 है; पाकिस्तान में यह 576,000 है, और जापान में केवल 273,000 है। राजनीतिक विश्लेषक मिलन वैष्णव और जेमी हिंटसन का अनुमान है कि 2011 की जनगणना के आधार पर लोकसभा में सांसदों की संख्या 545 से बढक़र 848 हो जानी चाहिए। उत्तर प्रदेश में 143 सीटें और केरल में केवल 20 सीटें होनी चाहिए। वर्ष 1973 के बाद से लोकसभा सीटों की संख्या में कोई संशोधन नहीं किया गया है।

यह कम प्रतिनिधित्व वाली संसद और भी निष्क्रिय हो जाती है क्योंकि हमारे सांसदों को दल-बदल विरोधी कानूनों के तहत अपनी अंतरात्मा के आधार पर वोट देने की अनुमति नहीं है। उन्हें पार्टी लाइन का पालन करना आवश्यक है। भारत के प्रतिष्ठित संवैधानिक विद्वान एजी नूरानी ने लिखा है कि यह ‘विधायकों को बंधक बना देता है।’ इस संसदीय प्रणाली के तहत प्रधानमंत्री को बहुमत की गारंटी होती है।

ये सब दोष हमारी संसद को एक घातक संयोजन बना देते हैं — एक प्रधानमंत्री द्वारा नियंत्रित संस्था, जिसे उनके चुने हुए पीठासीन अधिकारियों द्वारा चलाया जाए, जिसमें सांसदों का बहुमत निश्चित हो, और जिन्हें अपनी पार्टी लाइन के साथ मतदान करना जरूरी हो।
यही कारण हैं कि संसद बहस के लिए निरर्थक हो चुकी है। इतिहास बताता है कि हमारी संसद दशकों से बिना बहस के कानून पारित करती रही है। कुछ उदाहरणों पर गौर करें : 1990 में चंद्रशेखर सरकार ने दो घंटे से भी कम समय में 18 विधेयक पारित किए; 2001 में 32 घंटों में 33 बिल पारित किए गए; 2007 में लोकसभा ने 15 मिनट में तीन विधेयक पारित किए; 2021 में 20 विधेयक बिना किसी बहस के पारित हुए। स्वाभाविक है कि लोकसभा की बैठकों में भी कमी आई है। यह 1952-70 में प्रत्येक वर्ष 121 दिनों के लिए बैठती थी, लेकिन अब औसत केवल 68 दिन है।

सांसदों के निलंबन के साथ भी यही कहानी है : अध्यक्ष के पास विशेषाधिकार है और वह वही करता है जो बहुमत चाहता है। यह प्रथा 1954 में शुरू हुई जब राज नारायण को राज्यसभा से निलंबित कर दिया गया; उन्हें कुल चार बार निलंबित किया गया। 1962 में कांग्रेसी गोदे मुराहारी को सदन से मार्शल द्वारा हटाया गया था। यूपीए शासन के दौरान 50 निलंबन हुए थे, एनडीए पहले ही दोगुनी संख्या से अधिक निलंबित कर चुका है। पिछले हफ्ते, स्पीकर ने एक सांसद को अमर्यादित व्यवहार के लिए निलंबित कर दिया, लेकिन वह व्यक्ति उस समय सदन में भी नहीं था।

दशकों से हम भारतीय प्रजातंत्र नहीं, बल्कि एक ‘चुनावी निरंकुशता’ की ओर बढ़ते जा रहे हैं। यह खिताब (यानी चुनाव हैं, पर सरकारें निरंकुश) वर्ष 2021 में भारत को स्वीडन की संस्था वी-डेम इंस्टीट्यूट द्वारा दिया गया। यदि हम वास्तव में एक बेहतर लोकतंत्र चाहते हैं, तो हमें अपनी प्रणाली की मूलभूत खामियों को ठीक करना होगा।

भानु धमीजा

सीएमडी, दिव्य हिमाचल

-अंग्रेजी में ‘द क्विंट’ में प्रकाशित

(19 दिसंबर, 2023)


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