बस, इतना सा ख्वाब था…

By: Jan 31st, 2024 12:05 am

तो हुआ यों कि पिछले हफ्ते मेरे खास बकवास लेखक दोस्त ने मुझे अपनी किताब सादर भेजी। वह भी बुकपोस्ट से नहीं, स्पीडपोस्ट से। जैसे मैं पता नहीं कितना महान पाठक होऊं। यह पता होते हुए भी कि मैं किताब फ्रेंडली बिल्कुल नहीं। पर दोस्त ने दोस्त को किताब भेजी तो मुझे खुशी हुई। वह भी स्पीड पोस्ट से। पूरे सौ रुपए खर्च कर। दोस्त को किताब भेजना एक बात है तो उससे अपनी किताब पढ़वाना दूसरी बात। वैसे दोस्त दोस्तों की किताबें पढ़ते कहां हैं? लेकिन उन्हें किताब सादर, सप्रेम भेंट न करो तो ऐसे मुहं फुला देते हैं कि पूछो ही मत। सच कहूं तो मुझे नर्सरी क्लास से ही किताबों से बहुत अलर्जी रही है। उन दिनों जरा सी भी किताब भूल से छू भी लेता तो मुझे सिर से पांव तक अलर्जी हो जाती। अब आप पूछोगे कि फिर मेरे नाम के आगे डॉक्टर साहब कैसे लगा? रहने दीजिए। बहुतों की तरह ये मेरा सीक्रेट मामला है। अभी मैंने उनकी किताब लिफाफे से निकाली भर थी कि उनका फोन आ गया। फोन कान से लगाते ही उन्होंने जासूस के लहजे में पूछा, ‘डियर! हफ्ता पहले मैंने तुम्हें अपनी किताब भेजी थी स्पीड पोस्ट से। मिली कि नहीं?’ ‘हां! मिल गई है’, मैंने सीधे शब्दों में कहा। कहना तो चाहता था कि अपनी किताब की एक प्रति भेज क्यों अपनी चार सौ रुपए की किताब खराब कर दी। पर चुप रहा। ‘तो कैसी लगी मेरी किताब?’ हर लेखक की तरह अपने पाठक को फ्री में भेजी किताब पर एक बेकार का सा पहला प्रश्न! ‘बाइंडिग अच्छी है। प्रकाशक ने कागज अच्छा लगाया है। पर सॉरी! अभी मैं उसके भीतर जाने का जरा सा भी साहस नहीं जुटा पाया।’

‘डियर! वह मैंने पढऩे के लिए भेजी भी नहीं है। क्योंकि मैं जानता हूं तुम्हारी पढऩे में बचपन से ही रुचि नहीं रही है।’ ‘तो फिर किसलिए भेजी है? ड्राइंग रूम की अलमारी में सजाने के लिए? ठीक है, वहां रख देता हूं’, मेरा गुस्सा सातवें आसमान पर। जब हमको किसी की रुचियों के बारे में अपनी रुचियों से भी अधिक पता हो तो बार बार उसकी रुचियों को लेकर उसकी भद्द कर उसका गर्व से उठा सिर शर्म से झुकवाना अच्छा होता है क्या? ‘सॉरी! मुझे तो लगा था कि शायद अभी मेरी पुस्तक तुम तक नहीं पहुंची होगी। बस इसीलिए…डाक विभाग का हाल तो तुम हाल जानते ही हो’, वे लाइन पर आए। ‘देखो दोस्त! जब तुम अच्छी तरह जानते हो कि मैं बुक फ्रेंडली बिल्कुल नहीं तो पहले तो तुमने मुझे किताब भेजी किस इरादे से? और दूसरे…।’ ‘अरे ! नाहक इतना गुस्सा क्यों होते हो? आजकल बुक फ्रेंडली है ही कौन? सब फेसबुक फ्रेंडली हैं। मैं तो बस, यह कंफर्म करना चाह रहा था कि जो तुम तक मेरी किताब पहुंची होती तो अब तक तुम कभी को मेरी किताब हाथ में लिए पढऩे का नाटक करते अपना फोटो फेसबुक पर डाल चुके होते। अपने दोस्तों से एक लेखक कम से कम इतनी उम्मीद तो कर ही सकता है न! डॉंट माइंड! आज लेखक दोस्त अपनी किताब सादर, सप्रेम भेंट अपने दोस्तों को पढऩे के लिए नहीं, अपने लेखक दोस्तों की बुक के साथ फोटो खींच फेसबुक की शोभा बढ़ाने को ही देते हैं।

सच कहूं दोस्त! किसी लेखक को अपनी किताब पाठक को सच्ची में पढ़ाने पर उतनी प्रसन्नता नहीं होती जितनी अपनी किताब के साथ उसका फोटो फेसबुक पर देखकर होती है। आज का जमाना बुक को पढऩे का जमाना नहीं। बुक के साथ तस्वीर खिचवा फेसबुक पर डालने का जमाना है। यार! जानता हूं, किसी की बुक पढऩे का समय आज किसी के पास है ही कहां! इसलिए प्लीज! कम से कम बस, मेरी बुक के साथ अपनी एक संजीदा सी फोटो फेसबुक पर जितनी जल्दी हो सके डाल दो। मेरी आत्मा को बहुत शांति मिलेगी। वर्ना जब तक तुम मेरी बुक को पढऩे का अभिनय करते अपनी फोटो फेसबुक पर नहीं डालोगे, मेरी आत्मा फेसबुक पर मेरी किताब के साथ तुम्हारी फोटो देखने को तड़पती रहेगी। अमा यार! मैंने तुम्हें अपनी बुक पढऩे के लिए कतई नहीं, केवल उसके साथ तुम्हारी फोटो फेसबुक पर लगाने को भेजी है’, दोस्त ने बुक को लेकर मेरा संशय दूर किया तो मैं बिना एक पल गंवाए झट एक आकर्षक गंभीर पाठक की मुद्रा में बैठा और अपने बेटे से दोस्त की किताब के साथ अपना धीर गंभीर चकाचक फोटो खिचवा इधर फेसबुक पर ज्यों ही डाला कि उधर दोस्त का फोन आया, ‘थैंक्यू यार! बस इतना सा ख्वाब था!’

अशोक गौतम

ashokgautam001@Ugmail.com


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