हिमाचली शहरों को आवाज दो

By: Feb 8th, 2024 12:05 am

शहरी विकास महकमा थामते ही विक्रमादित्य सिंह ने हिमाचल के शहरी नक्शे का कुशलक्षेम पूछा है। शहरों के लिए सुझाव बहुत हैं, लेकिन आदत नहीं हमें इन्हें बचाने की। यह इसलिए कि एक तरफ शहरी विकास मंत्रालय है, तो कहीं दूर शहरी नियोजन की बागडोर दूसरे मंत्री राजेश धर्माणी की ओर खड़ी है। यह दीगर है कि शहर को शहर समझने की देर कर दी, वरना आज जहां टीसीपी खड़ा है, वहां नजारा कुछ और होता। हमने शहरीकरण की रुह को प्रताडि़त किया है, वरना राष्ट्रीय स्वच्छता के सर्वेक्षण में शिमला की प्रणाली अपमानित नहीं होती। कहने को हमारे पास पांच नगर निगम और दो स्मार्ट सिटी, मगर इन्हें चलाने को माकूल बजट नहीं। शहरी प्रबंधन में शहर को आवाज तक देने की फुर्सत नहीं, जबकि नागरिक समाज को कर चुकाने की आदत नहीं। हमारी सियासी सोच शहरीकरण की विरोधी रही, इसलिए टीसीपी कानून की खाल कमजोर पड़ गई। शहरीकरण के मायनों में कभी हिमाचल के पुराने नगर अपनी स्वच्छता की ताल बजाते थे, लेकिन आज नगर निगम बनाने का औचित्य घुटनों पर चलने लगा है। हमने सोलन और उसके आसपास के विकास को नगर निगम की छत जरूर दी, लेकिन वहां टीसीपी के आधार पर क्या किया। कभी परवाणू से शिमला के बीच जंगल और गांव थे। कहीं छोटी ट्रेन, तो कहीं ब्रिटिश पीरियड के आयाम थे, लेकिन आज पर्वतीय परिवेश से उसका घूंघट चुराकर हमने सडक़ को ही शहर बना दिया। कहां परवाणू शुरू होता है और कहां तक इसकी सीमा है, कोई मीलपत्थर नहीं जो बता सकतापरवाणू और सोलन के बीच के शहरीकरण का अंतर और इसी तरह कब सोलन की घुसपैठ में शिमला फूल गया, कोई नहीं जानता। ऐसे में शिमला और सोलन नगर निगमों की सरहद के बाहर आप शहरीकरण को कैसे तौलोगे, कैसे गांव को शहर के कब्जे मेें जाने से रोकोगे।

अगर परवाणू-सोलन और शिमला के लिए एक शहरी विकास प्राधिकरण गठित कर लिया होता तो पहाड़ का अमन-चैन बच गया होता। यही नहीं अगर टीसीपी कानून को हमारी सरकारें गंभीरता से पढ़ लेतीं, तो आज प्रदेश में घाटियों, खेतों और पहाड़ों की गरिमा व मूल स्वरूप बचाने के लिए कम से कम आधा दर्जन शहरी विकास प्राधिकरण गठित हो चुके होते। उदाहरण के लिए भूंतर-कुल्लू-मनाली, नादौन-हमीरपुर-बिलासपुर, धर्मशाला-गगल-कांगड़ा, धर्मशाला-चामुंडा-पालमपुर, मंडी-नेरचौक-सुंदरनगर, चिंतपूर्णी-अंब-ऊना तथा कालाअंब-नाहन-पांवटा साहिब के लिए शहरी विकास प्राधिकरण गठित करके हम शहरों की भीड़ हटाकर कलस्टर प्लानिंग के तहत दो या तीन शहरों के लिए कर्मचारी नगर, न्यायिक परिसर, बस स्टैंड, पार्किंग स्पेस व कूड़ा-कर्कट प्रबंधन के लिए एक ही स्थान सुनिश्चित कर लेते। हिमाचल में हर शहर की एक पहचान व संभावना है जिसे आगे बढ़ाकर मुकम्मल अधोसंरचना के जरिए, नए रोजगार, निवेश और आर्थिकी का संचार कर सकते हैं। उदाहरण के लिए दियोटसिद्ध, ज्वालाजी या नयनादेवी जैसे सभी आस्था स्थलों का विकास अगर धार्मिक नगरियों के रूप में करें, तो आर्थिकी व रोजगार की संभावना नए मुकाम पर होगी। पर्यटक स्थलों को शहरी विकास के नए सेहरे की जरूरत है।

हिमाचल के सोलन-हमीरपुर जैसे शहरों को शिक्षा के हब, मंडी को सांस्कृतिक तो बीबीएन को आर्थिक राजधानी के रूप में विकसित करने की जरूरत है। चंबा को धरोहर शहर का दर्जा, शिमला को कैपिटल की अधोसंरचना, तो धर्मशाला को वैश्विक पर्यटन, इवेंट तथा कान्फ्रेंस शहर का रुतबा दें, तो राज्य की आर्थिकी के कई आयाम भी चल निकलेंगे। हिमाचल के हर शहर में कम से कम चार सामुदायिक मैदान, मनोरंजन पार्क, महापार्किंग, बस स्टैंड कम शॉपिंग काम्प्लेक्स, फूड मार्ट, कृत्रिम झीलों व शहरी परिवहन के विभिन्न विकल्पों पर कार्रवाई शुरू करनी चाहिए। इतना ही नहीं, हर शहर का अपना भूमि बैंक, शहरी विकास योजना तथा आर्थिक विकास का ढांचा विकसित करना चाहिए ताकि शहरी निकाय अपने नागरिकों को आवश्यक सुविधाएं तथा भविष्य का खाका पुख्ता कर सकें।


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