हिमाचली हिंदी कहानी : विकास यात्रा : 44

By: Feb 24th, 2024 7:25 pm

कहानी के प्रभाव क्षेत्र में उभरा हिमाचली सृजन, अब अपनी प्रासंगिकता और पुरुषार्थ के साथ परिवेश का प्रतिनिधित्व भी कर रहा है। गद्य साहित्य के गंतव्य को छूते संदर्भों में हिमाचल के घटनाक्रम, जीवन शैली, सामाजिक विडंबनाओं, चीखते पहाड़ों का दर्द, विस्थापन की पीड़ा और आर्थिक अपराधों को समेटती कहानी की कथावस्तु, चरित्र चित्रण, भाषा शैली व उद्देश्यों की समीक्षा करती यह शृंखला। कहानी का यह संसार कल्पना-परिकल्पना और यथार्थ की मिट्टी को विविध सांचों में कितना ढाल पाया। कहानी की यात्रा के मार्मिक, भावनात्मक और कलात्मक पहलुओं पर एक विस्तृत दृष्टि डाल रहे हैं वरिष्ठ समीक्षक एवं मर्मज्ञ साहित्यकार डा. हेमराज कौशिक, आरंभिक विवेचन के साथ किस्त-44

हिमाचल का कहानी संसार

विमर्श के बिंदु

1. हिमाचल की कहानी यात्रा
2. कहानीकारों का विश्लेषण
3. कहानी की जगह, जिरह और परिवेश
4. राष्ट्रीय स्तर पर हिमाचली कहानी की गूंज
5. हिमाचल के आलोचना पक्ष में कहानी
6. हिमाचल के कहानीकारों का बौद्धिक, सांस्कृतिक, भौगोलिक व राजनीतिक पक्ष

लेखक का परिचय

नाम : डॉ. हेमराज कौशिक, जन्म : 9 दिसम्बर 1949 को जिला सोलन के अंतर्गत अर्की तहसील के बातल गांव में। पिता का नाम : श्री जयानंद कौशिक, माता का नाम : श्रीमती चिन्तामणि कौशिक, शिक्षा : एमए, एमएड, एम. फिल, पीएचडी (हिन्दी), व्यवसाय : हिमाचल प्रदेश शिक्षा विभाग में सैंतीस वर्षों तक हिन्दी प्राध्यापक का कार्य करते हुए प्रधानाचार्य के रूप में सेवानिवृत्त। कुल प्रकाशित पुस्तकें : 17, मुख्य पुस्तकें : अमृतलाल नागर के उपन्यास, मूल्य और हिंदी उपन्यास, कथा की दुनिया : एक प्रत्यवलोकन, साहित्य सेवी राजनेता शांता कुमार, साहित्य के आस्वाद, क्रांतिकारी साहित्यकार यशपाल और कथा समय की गतिशीलता। पुरस्कार एवं सम्मान : 1. वर्ष 1991 के लिए राष्ट्रीय शिक्षक पुरस्कार से भारत के राष्ट्रपति द्वारा अलंकृत, 2. हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा राष्ट्रभाषा हिन्दी की सतत उत्कृष्ट एवं समर्पित सेवा के लिए सरस्वती सम्मान से 1998 में राष्ट्रभाषा सम्मेलन में अलंकृत, 3. आथर्ज गिल्ड ऑफ हिमाचल (पंजी.) द्वारा साहित्य सृजन में योगदान के लिए 2011 का लेखक सम्मान, भुट्टी वीवर्ज कोआप्रेटिव सोसाइटी लिमिटिड द्वारा वर्ष 2018 के वेदराम राष्ट्रीय पुरस्कार से अलंकृत, कला, भाषा, संस्कृति और समाज के लिए समर्पित संस्था नवल प्रयास द्वारा धर्म प्रकाश साहित्य रतन सम्मान 2018 से अलंकृत, मानव कल्याण समिति अर्की, जिला सोलन, हिमाचल प्रदेश द्वारा साहित्य के लिए अनन्य योगदान के लिए सम्मान, प्रगतिशील साहित्यिक पत्रिका इरावती के द्वितीय इरावती 2018 के सम्मान से अलंकृत, पल्लव काव्य मंच, रामपुर, उत्तर प्रदेश का वर्ष 2019 के लिए ‘डॉ. रामविलास शर्मा’ राष्ट्रीय सम्मान, दिव्य हिमाचल के प्रतिष्ठित सम्मान ‘हिमाचल एक्सीलेंस अवार्ड’ ‘सर्वश्रेष्ठ साहित्यकार’ सम्मान 2019-2020 के लिए अलंकृत और हिमाचल प्रदेश सिरमौर कला संगम द्वारा डॉ. परमार पुरस्कार।

डा. हेमराज कौशिक
अतिथि संपादक
मो.-9418010646

-(पिछले अंक का शेष भाग)
कला के प्रति समर्पित संस्थानों में भी वह देखता है कि वहां भी कला तिकड़मों और षड्यंत्रों से घिरी है। ‘दिल्ली दरवाजा’ और ‘साउथ ब्लॉक में गांधी’ इस संग्रह की अन्य चर्चित कहानियां हैं। राजकुमार राकेश की कहानियों का शिल्प जटिल और नवीनता लिए हुए है और अपने जादुई यथार्थ के माध्यम से पाठक के मन मस्तिष्क को उद्वेलित करती हैं। राकेश ने अपनी कहानियों के लिए नई संवेदना भूमि के अनुरूप भाषा के नए मुहावरे की तलाश की है। कथाकार संतोष शैलजा का ‘टाहलियां’ (2002) शीर्षक से कहानी संग्रह प्रकाशित है। प्रस्तुत संग्रह में दस कहानियां- सोसन, पीले पत्तों में झरती चांदनी, तीन सहेलियां, जात्रि आमि ओरे, याद, फुलमा, स्वेटर, गंगोत्तरी की जलधारा में, अलविदा और टाहलियां संगृहीत हैं। प्रस्तुत संग्रह की कहानियां नारी के मां, बहन, बेटी, भाभी, सहेली आदि विविध रूपों के चित्रण के साथ उनकी सामाजिक भूमिका पर केंद्रित हैं। उनकी कहानियों की पृष्ठभूमि में नारी के संवेदनशील, वात्सल्यपूर्ण, ममतामय और त्यागमय ह्रदय का चित्रण है। ‘टाहलियां’ कहानी में मूक प्रेम का चित्रण है।

कहानी हिंदू और मुस्लिम परिवार के संदर्भ में विन्यस्त की गई है। दोनों परिवारों की परस्पर प्रगाढ़ता देश विभाजन की आग में बिखर जाती है, उसका मार्मिक चित्रण प्रस्तुत कहानी में किया गया है। ‘सोसन’ शीर्षक कहानी में कश्मीर के आतंकवाद के परिणामस्वरूप कश्मीर की मनोरम धरा छोडक़र दिल्ली के शरणार्थी कैंप में पहुंचे परिवारों की दशा का चित्रण है। एक हिंदू परिवार की मुस्लिम परिवार की परस्पर मित्रता को स्मरण किया गया है। इसमें हिंदू और मुस्लिम परिवारों के परस्पर सौहार्द का चित्रण है। ‘फुलमा’ प्रेम और समर्पण की कहानी है। ‘स्वेटर’ कहानी में शहीद राकेश और उसकी पत्नी के जीवन के अंतिम क्षणों का चित्रण है, जब राकेश इहलोक को त्याग कर सदैव के लिए प्रस्थान कर रहे होते हैं। कहानी का अंत नितांत मार्मिक और हृदय विदारक है। ‘तीन सहेलियां’ प्रेरणादायी कहानी है जिसमें लक्ष्मीबाई और उसकी तीन सहेलियों का वीरांगना रूप दिखाया गया है। ‘फुलमा’ प्रेम एवं समर्पण की कहानी है। इसमें चंबा के जीवन का सहज, स्वाभाविक और यथार्थ निरूपण और पहाड़ी गीतों का सौंदर्य और प्रकृति का मनोरम चित्रण है। ‘पीले पत्तों से झरती चांदनी’ में दांपत्य प्रेम के निरूपण के साथ-साथ प्राकृतिक सौंदर्य का अनूठा चित्रण विद्यमान है। ‘जात्रि आमि ओरे’ में भी आदर्श प्रेम की परिकल्पना है और प्रेम के महत्व को प्रतिपादित किया गया है। ‘याद’ शीर्षक कहानी स्वतंत्रता प्राप्ति के समय की भयावह घटना पर आधारित कहानी है जो देशभक्ति की भावना जाग्रत करती है। संतोष शैलजा की कहानियां समाज के आदर्श, मूल्यों को स्थापित करती हैं। भाषा की जीवंतता एवं प्रवाह के साथ कथानक का मार्मिक स्वरूप पाठकों का ध्यान आकर्षित करता है। प्रेरणादायी भूमिका पर आधारित संदर्भित संग्रह की कहानियां आदर्श जीवन मूल्यों को स्थापित करती हैं।

‘किनारे की तलाश’ (2003) शीर्षक से सुदर्शना पटियाल का पहला कहानी संग्रह इस अवधि में ही प्रकाश में आया है जिसमें उनकी पंद्रह कहानियां- अमानुष, इसी माट्टी की, नौकरी, धर्म संकट, चिडिय़ाघर, किनारे की तलाश, अधूरी श्रद्धा, आहत, उपेक्षित, असीम मातृत्व, एक और उत्तर, अनूठा प्रतिशोध, अधूरा सपना, अहम् और आत्महत्या संगृहीत हैं। उनकी कहानियों में जहां एक ओर पहाड़ी परिवेश मुखरित हुआ है, वहां दूसरी ओर सामाजिक जीवन की विसंगतियों और विडम्बनाओं को नारी जीवन की समस्याओं के संदर्भ में मूर्तिमान किया है। आंचलिक भाषा के माध्यम से पहाड़ी जीवन की मिट्टी की महक कहानियों में अनुभव की जा सकती है। ग्रामीण जीवन का यथार्थ, सहज, सरल शैली में बिना किसी तामझाम के मुखर हुआ है। किनारे की तलाश, अधूरी श्रद्धा, अधूरा सपना, आत्महत्या, असीम मातृत्व आदि भावमूलक कहानियां हैं जिनमें कहानीकार की संवेदना का घनत्व अनुभव किया जा सकता है। यथार्थ की जमीन पर नि:सृत ये कहानियां निजी अनुभवों को विस्तीर्ण कर जनमानस की भावनाओं की अभिव्यंजना करती हैं। पात्रानुकूल भाषा का स्वरूप कहानियों में विद्यमान है। आंचलिक भाषा की सहजता परिवेश को जीवंतता से रूपायित करती है।

इस अवधि में कथाकार बद्री सिंह भाटिया के दो कहानी संग्रह ‘कवच’ (2003) तथा ‘और वह गीत हो गई’ (2009) प्रकाशित हैं। ‘कवच’ शीर्षक संग्रह में ग्यारह कहानियां- लुद्रभाग, कवच, मिठाई, मांस, प्रेत संवाद, पीतल का फुटा, यह एक दिन की बात नहीं थी, शिलालेख, बीच में और बालतोड़ संग्रहीत हैं। प्रस्तुत संग्रह की पहली कहानी ‘लुद्रभाग’ ग्रामीण समाज के अंधविश्वासों, भूत प्रेत की धारणाओं, मान्यताओं, देवता के सेवक देउओं की कार्यशैली आदि पर केंद्रित है। कहानीकार ने आत्मकथात्मक शैली में कुमार भाई को संबोधित कर कहानी के विविध कथा सूत्र प्रस्तुत किए हैं। कहानी के केंद्र में लुद्रभाग है जो ग्रामीण समाज में हिंसा और भय का प्रतीक है। ‘कवच’ नैतिक पतन में गर्त में डूबे पुरुष समाज पर प्रहार करती है जो अर्धविक्षिप्त नारी को अपनी हवस का शिकार बनाता है। कहानी में रामदेई ऐसी ही नारी है जो परिस्थितियों से घिरकर विक्षिप्तता तक पहुंचती है। ‘एक दिन की बात नहीं थी’ शीर्षक कहानी दांपत्य संबंधों के विघटन पर केंद्रित है। यहां कहानी में पत्नी की दायित्वहीनता, अहंकार के कारण पति की उपेक्षा आदि कुछ कारण हैं जो दांपत्य संबंधों को बिखेर देते हैं। ‘शिलालेख’ में संतानहीन पति-पत्नी के अकेलेपन को चित्रित किया है। उसके साथ-साथ चरण दास जैसे लोगों की ऐसे दंपति की जमीन के प्रति स्वार्थयुक्त दृष्टि भी रेखांकित की गई है। भूदान के लिए प्रेरणा देने वाली इस कहानी में यह भी दिखाया है कि स्वार्थी नेताओं की राजनीति के कारण समाज के लिए जमीन देने वाले लोगों को कहीं भी स्मरण नहीं किया जाता। उनके नाम तक की पट्टी उनके जीवन काल में नहीं लग पाती। ‘बीच में’ कहानी के देवेन और शांता के दाम्पत्य जीवन की कटुता और पुन: शांता के अपने व्यवहार के प्रति आंतरिक पश्चाताप का चित्रण है। ‘प्रेत संवाद’ कहानीकार की चर्चित कहानियों में से है। यह सांचा के ग्रामीण विश्वास पर आधारित कहानी है। कहानी में दलित वर्ग से संबंध रखने वाला तांत्रिक प्रेत बुलाने की कला में निपुण है क्योंकि उसने अपने गुरु से इसे सिद्ध किया है। सवर्ण जाति की रेशमा की मृत्यु होने पर उसके अंतिम संस्कार का प्रश्न उत्पन्न होता है। जीवन भर रेशमा की परिस्थितियों का लाभ उठाकर कई पुरुषों ने उसका शोषण किया। उसके संबंधी और बेटियां भी उसको धोखा दे जाती हैं। आजीवन जिस पुरुष से वह रखैल के रूप में बंधी रही, वह उसका वैध पति नहीं होता है। इसलिए कांशिया प्रेत के साथ निरंतर संवाद करता है। इस संदर्भ में कहानीकार ने नारी के अस्तित्व से जुड़े बहुत से सवाल उठाए हैं।

बद्रीसिंह भाटिया के ‘और वह गीत हो गई’ शीर्षक कहानी संग्रह में आठ कहानियां- और वह गीत हो गई, आखिरी सवाल, लोग फूलों को प्यार नहीं करते, रेफर, इस जन्म में, लापता, गुप्त दान और बहाना संगृहीत हैं। इस संग्रह में विविध नारी समस्याएं विभिन्न कोणों से देखी गई हैं। प्रस्तुत संकलन की ‘और वह गीत हो गई’ शीर्षक कहानी नारी जीवन की पीड़ा का मर्मांतक चित्रण करती है। ‘इस जन्म में’ पति-पत्नी के संबंधों को घसीटने का चित्रण है। एक पत्नी जो करवा व्रत रखकर कई जन्मों तक उस संबंध को कायम रखने की प्रार्थना करती है, वही बिगड़ते संबंधों में यह प्रार्थना करती है कि यह संबंध इस जीवन तक ही काफी है।

पीएस लांबा और श्रीमती रोहिणी का दाम्पत्य जीवन इसी तरह का है जिसमें बेटी सेतु की भांति संबंध को जोड़े रखती है। पत्नी पति के दुव्र्यसनी और दुराचारी होने पर भी संबंध को तलाक के कगार से हटाकर सामंजस्य से स्थापित करती है। ‘आखिरी सवाल’ में भाटिया ने संबंधों के ताने-बाने में वृद्धावस्था के अकेलेपन, रिटायरमेंट के बाद के जीवन और परिवार की उपेक्षा का चित्रण है। इसके साथ जाति विधान के दंश से पीडि़त प्रेमी ह्रदयों का जीवन व्यापी आर्तनाद इस कहानी में मुखर हुआ है। कहानीकार ने यह दिखाया है कि प्रेम की टीस और इसका स्थायी भाव जीवन पर्यन्त बना रहता है। वह कभी परिस्थितिवश भले ही क्षीण हो जाए, पर मिटता नहीं। आदमी अपने अतीत में पुन: लौटना चाहता है। ‘लापता’ में कहानीकार ने गांव से शहर जाने की युवा पीढ़ी के धनार्जन के मोह, दूसरों की भांति रातों-रात अमीर बनने की चाह में दिग्भ्रमित होकर लापता होने की स्थितियों का चित्रण है। ऐसे युवकों की पत्नियों को भी उनकी तलाश में न केवल भटकना पड़ता है, अपितु यौन शोषण और बलात्कार का शिकार बनना पड़ता है।

‘बहाना’ में शीतला के प्रकोप से कुरूप हुई युवती की वैवाहिक समस्या और समाज में उसके प्रति उपेक्षा और वितृष्णापरक दृष्टिकोण का चित्रण है। ‘गुप्त दान’ में कहानीकार ने नि:संतान विधवा की व्यथा कथा, आंतरिक पीड़ा और बीमारी के कारण व्यस्त स्थिति का चित्रण किया है। उसके परिवार के लोग उसकी आकांक्षा के विपरीत उसके मृत होने के बाद अंगूठे के निशान लगाकर उसकी जमीन को हथिया लेते हैं। बद्री सिंह भाटिया की ये कहानियां स्त्री-पुरुष के बदलते संबंधों के चित्रण के साथ दलित और स्त्री की समाज में स्थिति और पर्वतीय जीवन की विविध समस्याओं को अनेक कोणों से निरूपित करती हैं।

केशव ख्यातिलब्ध कथाकार हैं। उनके ‘रक्तबीज’ (2003) कहानी संग्रह में आठ कहानियां- खच्चर, दरवाजे, छुट्टी का एक दिन, अशेष, कुछ भी नहीं देखा, अंधकूप, उत्सव और रक्तबीज संगृहीत हैं। केशव की कहानियां नर-नारी संबंधों के तनाव, मानसिक अंतद्र्वंद्व, व्यक्ति के अकेलेपन से उत्पन्न सूनेपन की तलाश करती हैं। उनकी कहानियों का कथ्य घनीभूत संवेदना से पूर्ण रहता है। बहुत सी कहानियों में प्रतीकों और बिम्बों के आश्रय से कथा वितान निर्मित किया गया है, जिससे ऐसी कहानियों के सूत्रों को पकडऩे के लिए पाठक पुन: पढऩे के लिए बाध्य होता है। रक्तबीज, खच्चर, कुछ भी नहीं देखा, उत्सव व अंधकूप आदि केशव की चर्चित कहानियां रही हैं। प्रस्तुत संग्रह में संकलित आठ कहानियों में प्रत्येक में पृथक-पृथक भाव बोध विद्यमान है। उनकी कुछ कहानियां आधुनिकता और नगर बोध के फलस्वरूप जीवन की विसंगतियों और रागात्मक संबंधों में आए बदलाव, स्वार्थवृत्ति और अमानवीयता को प्रकट करती हैं।

-(शेष भाग अगले अंक में)

पुस्तक समीक्षा : नए संदर्भों में भगवद गीता का संदेश

हिमाचल से संबद्ध लेखक दिशांत कपिल की अंग्रेजी पुस्तक ‘दि अर्बन मॉन्क’ नए संदर्भों में एक तरह से भगवद गीता का ही संदेश है। उनका मानना है कि वैश्वीकरण के कारण विश्व में आ रहे व्यापक बदलावों के इस युग में भगवद गीता की शिक्षाएं और भी ज्यादा प्रासंगिक हो गई हैं। इसी से प्रेरित होकर उन्होंने इस किताब की रचना की है, जो मनुष्य को आध्यात्मिक जीवन जीने के संदेश के साथ इसके महत्त्व को भी दर्शाती है। किताब का मूल्य 249 रुपए है। इसमें 18 अध्यायों के साथ अंत में निष्कर्ष भी दिया गया है। हर अध्याय अध्यात्म के किसी न किसी पहलू पर चिंतन करता है। जो लोग अध्यात्म में रुचि रखते हैं, उनके लिए यह किताब मार्गदर्शक की भूमिका निभा सकती है। पूरी किताब में भगवद गीता की जरूरी शिक्षाओं पर चिंतन हुआ है। आत्मसमर्पण, चिंतन, कृतज्ञता और समर्पण की शक्ति क्या है, इनके मूल्य क्या हैं, यही बातें किताब सिखाती है।

इन मूल्यों और नियमों को व्यावहारिक जीवन में कैसे अमल में लाया जाए, इसके उपाय भी किताब में सुझाए गए हैं। दुनियादारी की अनेक बाधाओं और अनिश्चितताओं से कैसे पार पाया जा सकता है, कुशलता के साथ इन बाधाओं को कैसे दूर किया जा सकता है, यही किताब का सार है। भगवद गीता की मुख्य शिक्षाओं में एक यह है कि मानव जीवन में संतुलन का क्या महत्त्व है। यह संतुलन हमारे कार्यों और उत्तरदायित्वों को हमारे आध्यात्मिक लक्ष्यों से जोडऩे तथा हमारी भौतिक जरूरतों को आंतरिक शांति एवं संतोष के लिए हमारी खोज के साथ तारतम्य बनाने के काबिल बनाता है। यदि हम इस संतुलन को साध लेते हैं, तो हम एक समृद्ध और अर्थपूर्ण जीवन जी सकते हैं। भगवद गीता की एक अन्य शिक्षा है समर्पण की शक्ति। उस सर्वशक्तिमान के प्रति गहन और जुनूनी समर्पण के जरिए हम अपनी सीमाओं से पार पा सकते हैं तथा एक अर्थपूर्ण जीवन जी सकते हैं। इस समर्पण के जरिए ही हम मानवता, करुणा और क्षमा जैसे गुणों का विकास कर सकते हैं। हम एक अर्थपूर्ण, लक्ष्यपूर्ण तथा संपूर्णता का जीवन तभी जी सकते हैं जब हम उस आध्यात्मिक शक्ति की दैवीय उपस्थिति अपने आसपास महसूस करेंगे।                                                                                                                 -फीचर डेस्क

जीवन की अंजुलि में सृजन को भरते सुदर्शन वशिष्ठ

548 पन्नों की पुस्तक ‘सृजन के बहाने’ को आकार देते प्रो. दिनेश चमोला ‘शैलेश’ साहित्य के मंथन में सुदर्शन वशिष्ठ के रचना संसार को खोज लाते हैं। किताब अपने सांगोपांग वर्णन में एक लेखक की श्रम साधना, जीवन के अनुभव, साहित्यिक ओज तथा समय के संघर्ष को तराशते हुए कई दुर्गों पर फतह तथा पहाड़ों पर चांदनी बिखेरते हुए, सुदर्शन वशिष्ठ के क्षितिज को चूमती पुस्तक ला रहे हैं। दरअसल पुस्तक कहीं लेखक की अंगुली पकड़ रही है, तो कहीं लेखक को अतीत में ले जाकर उनके बाल व युवा मन से मुखातिब होती है। इसलिए सुदर्शन वशिष्ठ जीवन की अंजुलि में सृजन को भरते उनतीस अध्यायों में संवाद कर रहे हैं। पुस्तक में सुदर्शन ही बोल रहे हैं। उनका दर्शन, उनका प्रदर्शन बोल रहा है। उनका आकर्षण बोल रहा है। वह खुद में कहानी, खुद में कविता और उपन्यास तराश रहे हैं। लघु कथाओं, संस्मरणों, नाटकों, सांस्कृतिक आरोहण से व्यंग्य की धार से गुजरते लेखक के ‘सृजन के हजारों बहाने’ यहां मिल जाते हैं। वशिष्ठ अपने बचपन के रूपांतरण में कहते हैं, ‘बचपन में यह पता नहीं चला, मैं कहां हूं। यहां क्यों रह रहा हूं। अपना घर या माता-पिता क्या होते हैं। उम्र बढऩे के साथ महसूस होने लगा, कुछ गलत अवश्य हुआ मेरे साथ, अनहोना।’ इनके लेखन में कई धौलाधार, धौलाधार के कई मूड, संस्कृति के कई पहलू और पर्वतीय परिवेश की दृश्यावलियां रूबरू होती हैं। पुस्तक बहुकोणीय तथा सामग्री की विविधता में उस संसार को खंगालती है, जहां दर्जनों प्रशंसक, समीक्षक, आलोचक और साक्षात्कारकर्ता क्रमबद्ध शृंखला में लेखक को साधुवाद दे रहे हैं। दस साक्षात्कारों में वशिष्ठ अपने जीवन के पन्ने खोल रहे हैं, तो साहित्यकारों ने उनमें रची बसी संवेदना और लेखन के मर्म को बाखूबी टटोला हैं। डा. सुशील कुमार फुल्ल कहते हैं, ‘मैं हमेशा कहता हूं, शब्दों का जादूगर होने के साथ वशिष्ठ प्रकाशकों का भी जादूगर है। जब पूछें तो जवाब मिलता है, नहीं कुछ नहीं आ रहा और अचानक कोई न कोई किताब आ जाती है। अभी कोरोना काल में ‘हिमाचल का प्रतिनिधि व्यंग्य’ अचानक छपकर आ गई तो आश्चर्य हुआ।’

वशिष्ठ अपने फर्ज की वकालत में महावीर अग्रवाल को बताते हैं, ‘कहानी लिखने की प्रेरणा अपने से, अपने जीवन से, अपने आसपास के वातावरण से मिलती है। कोई घटना निरंतर हांट करती है, जिसे लिखने पर विवश होना पड़ता है।’ वह आगे चलकर अशोक दर्द को बता रहे हैं, ‘कहानी की रचना में प्राय: तीन तरह की स्थितियां रहती हैं। कहानी एकदम बाहर आती, भाव व विचार कलम से आगे निकल आते, कहानी लिखते समय मरना या बाहर जीना पड़ता है या महीनों इसका थीम गंूजता रहता है।’ नवभारत टाइम्स उनके यात्रा वृत्तांत के पुस्तक आकार में छपने की प्रशंसा करता है। तो दैनिक ट्रिब्यून में विजय सहगल ‘पहाड़ पर कटहल’ में शामिल 51 लघुकथाओं के अंदाज में उन्हें सत्ता, समय और समाज के मर्म को प्रभावी ढंग से छूने का साधुवाद देते हैं। ‘कथा से कथा यात्रा’ के तहत डा. डीके गुप्ता उन्हें यशपाल, मोहन राकेश और निर्मल वर्मा सरीखा पहाड़ के मर्म से निकला कहानीकार मान लेते हैं। सरिता व जाह्नवी में 1972 में आए सुदर्शन वशिष्ठ के व्यंग्यों ने मान्यता पैदा की। इसी संदर्भ में 2007 में व्यंग्य संकलन, ‘संत होने से पहले’ की तारीफ होती है। पुस्तक के बहाने हिमाचल के कहानीकार के राष्ट्रीय मुकाम पर कई बार चर्चा हुई है, इसको लेकर एक सूची बनाकर सुंदर लोहिया, सुशील कुमार फुल्ल से लेकर केशव, सुदर्शन वशिष्ठ, एसआर हरनोट और राजकुमार तक की प्रकाशित कहानियों को राष्ट्रीय स्तर का खिताब मिल रहा है। रत्नचंद रत्नेश वशिष्ठ की कहानियों से परिपक्वता को निचोड़ते हुए कहते हैं, ‘जाने-माने कथाकार सुदर्शन वशिष्ठ के सन 1969 में प्रकाशित प्रथम कहानी संग्रह ‘अंतरालों में घटता समय’ से लेकर 2016 में प्रकाशित ‘संपूर्ण कहानियां’ तक निरंतर विकास नजर आता है।’ ‘सृजन के बहाने’ में सुदर्शन वशिष्ठ की कई रचनाएं पुस्तक में अलंकृत हैं। इन्हीं में से ‘परिंदे’ के तहत वह लिखते हैं, ‘कभी नहीं पहनते गर्म कपड़े/स्वेटर कोट जुराब/छाता नहीं लेते बरसात में/आग नहीं तापते, पंखा नहीं झूलते/तब भी गाते रहते हैं सदा।’ इसी संदर्भ को वशिष्ठ की व्यंग्य शैली कुछ यूं कहती है, ‘छोटे छोटे जानवर तो पिंजरे में बंद किए जा सकते हैं। हाथी के लिए पहले बहुत बड़े आकार का पिंजरा बनवाना पड़ेगा। जितना समय पिंजरा बनाने में लगेगा, उतने में लोग भूल जाएंगे कि यह किसके लिए बनवाया था।’ -निर्मल असो

पुस्तक विशेष : सृजन के बहाने : सुदर्शन वशिष्ठ
संपादक : डा. दिनेश चमोला
प्रकाशक : इंडिया नेटबुक्स, नोएडा
मूल्य : 650 रुपए


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App