घाटे की दुकानदारी

By: Feb 20th, 2024 12:05 am

हिमाचल के बजटीय घाटे की दुकानदारी चला रहे सार्वजनिक उपक्रमों ने पुन: लुटिया इस कद्र डुबोई है कि इनके दोष कान खड़े कर रहे हैं। यह सिर्फ घाटा नहीं, बल्कि प्रदेश की आर्थिक क्षमता का ऐसा अवांछित रिसाव है, जिसे तुरंत रोकना होगा। कुल 23 सार्वजनिक उपक्रमों में से तेरह ने 5143 करोड़ का घाटा परोस कर कई ऐसे प्रश्र उठाए हैं जो पूछ रहे हैं, क्या इसी धरातल पर आत्मनिर्भर हिमाचल की कसम उठाई जाती है। आश्चर्य यह कि जहां संभावना है, वहीं घाटे को सिर पर चढ़ाया जा रहा है। घाटे के शिखर पर परिवहन निगम के 1966 करोड़, राज्य बिजली बोर्ड के 1824 करोड़, पावर कारपोरेशन के 690 करोड़ और ट्रांसमिशन कारपोरेशन के 373 करोड़ बता रहे हैं कि हमारी नीतियां, वित्तीय प्रबंधन और व्यवस्थागत खामियां किस तरह नोच रही हैं। जाहिर है एचआरटीसी को घाटे की आदत इसलिए नहीं पड़ी कि मेहनतकश कर्मचारियों ने कुछ गलत किया, बल्कि सियासी नेतृत्व ने इसकी क्षमता का खैरात समझकर उपयोग किया। परिवहन निगम की सुध लेने के बजाय इसे मरे हुए सांप की तरह किसी न किसी मंत्री के गले में डाल दिया जाता है, जबकि बदले में नए बस डिपो की बढ़ोतरी में कमोबेश हर सरकार ने घाटा बढ़ाया है। इसके मुकाबले निजी बसें कर अदायगी के बावजूद अपने खर्चों के माप तोल को लाभकारी स्थिति में बनाए रखती हंै। दूसरी ओर बिजली बोर्ड व इसके सहायक निगम घाटे का जंजाल इसलिए भी बुन रहे हैं, क्योंकि मुफ्त की बिजली अब ऐसे सार्वजनिक उपक्रमों की हैसियत को दुबला ही करेगी। हैरान तो पर्यटन विकास निगम का 127 करोड़ का घाटा भी कर रहा है। जिस क्षेत्र के माध्यम से हिमाचल आत्मनिर्भर होने की सौगंध खाता रहा है, उसके बाजुओं पर विराजित सरकारी निगम की ऐसी दयनीय हालत का गुण-दोष निकालते हुए कब तक सरकारी होटलों का विनिवेश होता रहेगा।

सरकारी क्षेत्र के पास बेहतरीन साइ्टस, संपत्तियां और विश्वसनीय के बावजूद अगर घाटा है, तो यह घपला है। घाटे में घपले के किरदार को पकडऩे के बजाय नित नई संपत्तियां ऐसी जगह जोड़ी जा रही हैं, जहां कायदे से इनकी कोई जरूरत ही नहीं है। उदाहरण के लिए नूरपुर में दो बार सरकारी निवेश से पर्यटन निगम की इकाइयां अगर शून्य हुईं, तो इसकी वजह नालायकी व सियासी सोच है। धर्मशाला में क्रिकेट व अन्य कारणों से होटलों ने राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय रैंकिंग के अनुरूप खुद को सशक्त किया, जबकि इसके मुकाबले टूरिज्म कारपोरेशन की चार संपत्तियां खुद को परिमार्जित ही नहीं कर पाईं। विडंबना यह है कि मिल्क फेडरेशन सत्रह करोड़ का घाटा उठा कर भी उपभोक्ताओं की मांग का सामना नहीं कर पा रही। पड़ोसी राज्यों के दुग्ध उत्पाद अगर हिमाचल न आएं, तो हमारी चाय और कड़वी हो जाएगी, लेकिन हिमाचल मिल्क फेड आज तक वेरका, वीटा या मदर डेयरी से उपभोक्ता जरूरत को समझ नहीं पाया। यह दीगर है कि सरकार दूध खरीद तथा डेयरी उत्थान की घोषणा में वर्तमान बजट का आश्वासन दे रही है, फिर भी यह सोचना होगा कि मिल्क फेड जैसे सार्वजनिक उपक्रम क्यों अपनी गुणवत्ता से उपभोक्ता जरूरतों का लाभकारी बाजार खड़ा नहीं कर पा रहे हैं। हिमाचल में घाटे के वही उपक्रम हैं, जिनके जरिए राज्य के संकल्प तथा आत्मनिर्भरता के कदम मुकम्मल होंगे। ऐसे में निजी निवेश ही एक मात्र सहारा बचता है। हिमाचल प्रदेश के विभिन्न क्षेत्रों, सेवा क्षेत्रों तथा पर्यटन आदि क्षेत्रों में निजी निवेश को अगर प्रेरित-प्रोत्साहित किया जाए, तो कहीं अधिक आय के संसाधन पैदा होंगे। घाटे की व्यवस्था में सार्वजनिक उपक्रमों में धन व्यर्थ करने से कहीं अच्छा होगा कि इनमें से अधिकांश का विनिवेश किया जाए या मौजूदा प्रबंधन प्रणाली का व्यावसायीकरण करते हुए इन्हें राजनीतिक प्राथमिकताओं का खिलौना न बनाया जाए।


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