‘दस्तावेजी पत्रों’ की सियासत

By: Feb 10th, 2024 12:05 am

श्वेत-पत्र का संविधान में कोई प्रावधान नहीं है, लेकिन यह देश की आजादी के बाद से संसदीय परंपरा जरूर रहा है। श्वेत-पत्र किसी भी सरकार की प्रतिबद्धता का आईना होता है। उसमें सरकार की सोच, नीतियों और जन-कल्याण की योजनाओं का चेहरा झलकता रहता है। मोदी सरकार ने अपने 10-साला कार्यकाल पर श्वेत-पत्र लोकसभा में पेश किया है, तो यह उसका नैतिक और प्रशासनिक दायित्व था, लेकिन 2004-14 की कांग्रेस नेतृत्व की यूपीए सरकार के 15 बड़े घोटालों का खुलासा करने का आज औचित्य क्या है? तब आर्थिक अराजकता, 14 फीसदी तक की मुद्रास्फीति की दर, राजकोषीय और चालू खाते के बढ़ते घाटे, राजस्व के दुरुपयोग, लडख़ड़ाते औद्योगिक विकास, सरकारी दफ्तरों के खिलाफ राष्ट्रीय गुस्सा, बैंकिंग संकट, नीतिगत अपंगता आदि की स्थितियां थीं, तो मई, 2014 में भाजपा-एनडीए और नरेंद्र मोदी को जनादेश हासिल हुआ। देश में उनकी सरकार बनी। उस जनादेश के बाद यूपीए का कालखंड अप्रासंगिक हो गया। दोनों कालखंडों की 2024 में तुलना करना बेमानी है। स्थितियां पूरी तरह बदल चुकी हैं, लिहाजा पुराने हालात पर रोना महज प्रलाप है। बेशक यह राजनीति जरूर हो सकती है, क्योंकि 2024 के आम चुनाव सिर्फ 100 दिन दूर हैं। कांग्रेस के ‘ब्लैक पेपर’ के पीछे भी मंशा चुनावी रही है। फिर भी सत्ता की कारगुजारियों को बेनकाब करना विपक्ष का लोकतांत्रिक धर्म है।

विपक्ष ने बेरोजगारी, कमरतोड़ महंगाई, देश पर 200 लाख करोड़ रुपए से अधिक का कर्ज, अर्थव्यवस्था के छिद्र, विकास दर के यथार्थ, महिला और किसान उत्पीडऩ सरीखे मुद्दों पर मोदी सरकार को घेरा है और मौजूदा कार्यकाल को ‘अन्याय काल’ करार दिया है। इन मुद्दों में कोई नयापन नहीं है। देश इन्हें झेलता आ रहा है। कांग्रेस के प्रवक्ता भी इन मुद्दों को रोजमर्रा की राजनीति में उठाते रहे हैं। साफ है कि इस बार लोकसभा चुनाव में विपक्ष भी काफी आक्रामक रहेगा। बेशक वह चुनावी रुझानों और सर्वेक्षणों को गौर से देख-पढ़ रहा है। गौरतलब है कि मोदी सरकार ने 2019-20 में 100 साल की भयावह कोरोना महामारी का दौर झेला था, लेकिन देश की हरसंभव मदद की थी। उस दौरान अर्थव्यवस्था और विकास-दर ऋणात्मक हो गई थी। उसका गहरा प्रभाव रोजगार, औद्योगिक उत्पादन और आम आदमी पर पड़ा, लिहाजा विपक्ष के 45 साल की सबसे अधिक बेरोजगारी के आरोप ‘अद्र्धसत्य’ हैं। बेशक बेरोजगारी आज भी देश की सबसे गंभीर समस्या है, लेकिन विडंबना है कि चुनाव इस समस्या पर नहीं लड़ा जाएगा। श्वेत-पत्र एक प्रामाणिक दस्तावेज होता है। इसमें दर्ज आंकड़े देश की सही तस्वीर बयां करते हैं, लिहाजा विपक्ष गाहे-बगाहे मांग करता रहा है कि सरकार संसद में श्वेत-पत्र पेश करे। कश्मीर विवाद, प्रिवी पर्स और फरवरी, 1993 में अयोध्या पर श्वेत-पत्र पेश किए जा चुके हैं।

भाजपा ने भी अयोध्या पर उसी दौर में श्वेत-पत्र जारी किया था, जिसमें उसने नरसिंह राव सरकार की नीतियों पर सवाल किए थे। किसी भी राजनीतिक दल द्वारा श्वेत-पत्र जारी करने का वह प्रथम मामला था। बहरहाल हम पाठकों को लेखा-जोखा के आंकड़ों के मकडज़ाल में फंसाना नहीं चाहते। उनसे संदर्भगत विश्लेषण करना कठिन और पेचीदा होता है, लेकिन इतना जरूर बताना चाहेंगे कि देश की स्थिति बहुत सुधरी है। बहरहाल यदि 5वीं वैश्विक अर्थव्यवस्था होने के बावजूद देश के 70 फीसदी लोग स्वस्थ भोजन की व्यवस्था करने में लाचार हैं या 55 फीसदी महिलाओं में आज भी खून की कमी है अथवा 25 साल की उम्र तक के 42 फीसदी से अधिक युवा बेरोजगार हैं, तो ऐसी अर्थव्यवस्था और विकास बेमानी हैं।


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