वसंत का जादू…

By: Feb 16th, 2024 12:05 am

वसंत पंचमी के दिन सुबह-सुबह ही आया था वसंत। आया और चुपचाप खड़ा हो गया। उसके चेहरे पर मंद मुस्कान थी। मैंने उसे ऊपर से नीचे तक देखा, पीले परिधान में लिपटा, हाथों में फूल थामे वह मुझे घूर रहा था। मैं ही बोला-‘तुम वसंत ही हो न?’ उसकी मुस्कान फैल गई और वह बोला-‘सही पहचाना कवि महाराज। कैसे चुपचाप बैठे हो। मेरा स्वागत करो। मैं प्राणी मात्र से लेकर प्रकृति में नव संचार करने वाला हूं। उठो, उत्साह से गले लगाओ मुझे। मैं सबसे पहले तुम्हारे ही आया हूं।’ मैंने मुंह फेर लिया और अनमने भाव से बोला-‘यहां क्यों आए हो ऋतुराज। देख नहीं रहे, सारे गमले सूख गए हैं। मेरे पास इनमें पानी देने तक का वक्त नहीं है। मैं गृहस्थी की गाड़ी में कोल्हू के बैल की तरह घूम रहा हूं। मेरी धमनियों का रक्त जम गया है, तुम नव संचार क्या करोगे?’ वसंत प्रफुल्लता से भरा हुआ था, बोला-‘छोड़ो सारी चिंताएं। मैं तुम्हारे भीतर भर दूंगा उत्साह और उमंग। परेशानियों से घबराने से हालात नहीं बदलेंगे कविजी। कोई मस्ती का गीत लिखो और गाओ उसे पूरे तरन्नुम के साथ, तुम ही निराश हो जाओगे तो फिर यह जगत मिथ्या है, मेरा स्वागत करने वाला फिर है कौन?’ ‘लेकिन मैं क्या कर सकता हूं वसंत। देख नहीं रहे उत्साह और उमंग से बंटता क्या है? मैं अजीब भंवरजाल में फंसा हुआ हूं। किसी अमीर के दस्तक देते तो तुम्हारा काम बन जाता। तुमने गलत घर चुन लिया है ऋतुराज। अभी भी वक्त है, जाओ किसी सदाबहार फुलवारी में, वहां तुम्हें हार्दिक प्रसन्नता होगी। दरअसल मैं कुछ नहीं कर पाऊंगा। न पीले परिधान और न पीले चावल।

मेरे पास तो पीले दांत हैं, जो अब हंसने के भी काम नहीं आते।’ मैंने वसंत को वास्तविकता से परिचित कराने को कहा तो भी वह विहंसता रहा और बोला-‘अब छोड़ो भी सारी नाराजी। वर्ष में एक बार आता हूं। मैं मांगता क्या हूं तुमसे। बस यही तो मांगता हूं कि तुम खुश रहो तो मेरा आना सार्थक हो जाए। गत वर्ष भी तुम उदास और नाराज थे। वही हाल इस वर्ष में है। खेतों में लहलहाती सरसों को देखो, गेहूं की बालियों का इठलाना और भंवरे का गुनगुनाना, क्या तुम्हें कुछ भी अच्छा नहीं लगता? कवि उठो, मेरे साथ चहलकदमी करो, तुम्हारी सारी पीड़ाओं का अंत हो जाएगा।’ मैं पलटकर बोला-‘मेरे जीवन में वसंत नहीं है प्यारे वसंत। मेरी पीड़ाओं का अंत भी नहीं होगा। मैं टोटे की लड़ाई में उलझा हूं। मेरे अभाव गिनाऊंगा तो तुम कहोगे मैं वसंत में कैसी बातें कर रहा हूं। मेरे पास एक अदद कुर्सी भी नहीं है, जिस पर तुम्हें बैठ जाने की कहूं।’ वसंत ने फिर मुझे समझाना चाहा-‘मुझे कुरसी नहीं चाहिए कवि महाराज। मुझे तुम्हारी कुशलता और खुशहाली चाहिए। जीवन का यही होता है वसंत। निराशा को त्यागो और भीतर मन में भर लो हजारों उमंगें। अभाव तो पूरे जीवन का रोना है। पीले दांतों से ही सही, मगर हंसो तो सही। मन की कालिख को धो डालो। मैंने कहा न, उठो और चलो मेरे साथ खेत-खलियानों में, जहां मैं वसंती पवन के झोंकों के साथ नाच रहा हूं। तुम्हें बहुत सुकून मिलेगा। तुमने प्रकृति से दूर रहकर अपने तनाव बढ़ा लिए हैं। मैं तनाव मुक्ति की दवा नहीं, हवा हूं। मुझे महसूस करोगे तो तुम्हारे सूखे जीवन में भी लौट आएगी हरियाली। गमले के ये पौधे फिर से खिल उठेंगे।’ इस बार मुझे लगा-मेरे मन में आशाओं का नव संचार होने लगा है और यह वसंत सच ही तो कहता है।

वह हमसे लेता क्या है? वह तो देने आता है ढेरों खुशियां, उल्लास और उमंग। मेरे होठों पर हंसी आई और मैं वसंत से बोला-‘मैं नासमझ हूं वसंत। दुनियादारी के पचड़ों ने मुझे तुम्हारे अहसास तक को भुला दिया था। मैं संवेदनाशून्य हो गया हूं। जड़वत हो जाने से मैं नहीं सोच पाता कि तुम मेरे लिए खुशियां लेकर आए हो। मैं फिर लिखूंगा नई कविताएं और गाऊंगा उन्हें पूरी लय के साथ।’ वसंत ने दौडक़र मुझे बाहों में भर लिया और एक पल को मैं बेसुध सा होकर खुशियों से पगला सा गया। वसंत ने अपना जादू चला दिया था। वसंत का जादू यही तो होता है, बाकी तो सब बेकार है। मैं मदहोशी में डूब गया था। वसंत मेरे पोर-पोर में नाच रहा था।

पूरन सरमा

स्वतंत्र लेखक


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App