अली खड्ड विवाद का शांतिपूर्ण समाधान हो

महा पंचायत समाप्त होने के बाद भीड़ निर्माण स्थल में घुस गई और सोलन पुलिस से टकराव हो गया। निर्माण कार्य को भी क्षति हुई और कुछ लोगों को चोटें भी आईं, जो हिमाचल के शांतिपूर्ण माहौल के लिए चिंता की बात है, जिसकी निंदा करना भी जरूरी है। आंदोलनकारियों के खिलाफ मुकद्दमे दर्ज किए गए जिसमें जो लोग मौका से दो घंटे पहले ही जा चुके थे, उनके नाम भी एफआईआर दर्ज हो गई है। इस तरह मामले उलझते हैं, सुलझते नहीं। असल में इस अली खड्ड का पानी डाउन स्ट्रीम आबादी की आवश्यकताओं के लिए भी गर्मियों में कम पड़ जाता है और टैंकर लगा कर लोगों की प्यास बुझानी पड़ती है। ऐसी स्थिति में इस नाले पर नया बोझ डालना युक्तिसंगत नहीं कहा जा सकता…

भारतवर्ष में विकास के मेगा प्रोजेक्ट और स्थानीय हितों में टकराव के समाचार रोज कहीं न कहीं से आते ही रहते हैं। यह ठीक है कि कुछ नया बनेगा तो कुछ पुराने को हानि भी झेलनी पड़ेगी, किन्तु जीवन के लिए आवश्यक हवा, पानी और भोजन जैसे संसाधनों पर जब चोट पडऩे लगती है तो मामला चिंतनीय हो जाता है, जिस पर तार्किक रूप से विचार करना जरूरी हो जाता है। किन्तु खेद का विषय है कि आम तौर पर स्थानीय निवासियों के हितों पर परियोजना हितों को वरीयता दी जाती है। इस स्थिति में टकराव शुरू हो जाते हैं, जिनका परिहार यदि तर्क और स्थानीय हितों को ध्यान में रख कर न किया जाए तो मामले बिना वजह ही उलझ जाते हैं और बहुत बार अनावश्यक प्रतिष्ठा का प्रश्न बन जाते हैं। कई बार गलत या अधूरी सूचनाओं के कारण भी मामले उलझ जाते हैं। आजकल बिलासपुर जिला में इसी तरह का आंदोलन अली खड्ड के पानी को लेकर चल रहा है। आंदोलनकारी तीन सप्ताह से बैठे हैं, किन्तु किसी अर्थपूर्ण संवाद के अभाव में कोई हल निकल नहीं सका है।

अनुभव यह बताता है कि शांतिपूर्ण आंदोलनों को जब समय पर सुना नहीं जाता है तो आंदोलन उलझ जाते हैं और कई बार गलत हाथों में चले जाते हैं। इसलिए एक स्वस्थ प्रजातंत्र में लोगों के असहमति के अधिकार का सम्मान करते हुए आंदोलन की बात को जल्दी सुना जाना चाहिए। किन्तु प्रशासन अपनी जिद पूरी करने के लिए मुद्दे की बात समझने के बजाय आंदोलन को लंबा लटका कर लोगों को थका कर आंदोलन को समाप्त करने की रणनीति अपनाने का प्रयास करता है। यह समस्या को बिना सुने-समझे टाल देने का तरीका वाजिब नहीं है। यदि प्रशासन की बात सही है तो तर्क और पूरी सूचना देकर मामला सुलझाया जा सकता है। और यदि आंदोलनकारियों की बात तथ्यात्मक है तो तथ्यों का ध्यान रखते हुए मामला हल किया जा सकता है। जीवनयापन के लिए अपरिहार्य रूप से आवश्यक संसाधनों की जब बात आती है तो स्थनीय निवासियों के अधिकारों को वरीयता दी जानी चाहिए। यही प्राकृतिक न्याय की मांग है। जहां दोनों पक्ष अपनी-अपनी जगह सही हों, तो किसी एक की जरूरतों को पूरा करने के लिए विकल्प तलाशने चाहिए। इस प्रक्रिया में दलगत राजनीतिक हित साधने के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए। इस दृष्टि से देखा जाए तो अली खड्ड आंदोलन में दोनों मुख्य राजनीतिक दलों के स्थानीय नेता एक स्वर में त्रिवेणी घाट से पानी उठाकर अंबुजा सीमेंट प्लांट को देने का विरोध कर रहे हैं। विरोध का तार्किक आधार यह है कि जहां से पानी उठाया जा रहा है, वहां से नीचे बिलासपुर जिला के चार निर्वाचन क्षेत्रों को पानी अली खड्ड से मिल रहा है जिसके लिए 24 लिफ्ट और ग्रेविटी पेयजल योजनाएं, 7 सिंचाई लिफ्ट योजनाएं, स्थानीय कूहलें और घराट तथा मछली प्रजनन केंद्र चल रहे हैं। इनसे 50 हजार से ज्यादा जनसंख्या की पानी की जरूरतें पूरी हो रही हैं।

1992 में भी यह योजना गुजरात अंबुजा के पूर्व मालिक द्वारा प्रस्तावित की गई थी जिसे वीरभद्र सिंह सरकार ने डाउन स्ट्रीम स्थानीय समुदाय का पक्ष सुन कर रद्द कर दिया था। अब नए मालिक ने फिर से उस योजना को पुनर्जीवित करके निर्माण कार्य शुरू करवाया है, भले ही इसके लिए जलशक्ति विभाग को माध्यम बनाया गया है। बिलासपुर जिला की 50 से अधिक पंचायतों के लाभार्थी इस योजना के विरोध में त्रिवेणी घाट पर तीन सप्ताह से ज्यादा दिनों से धरना दे रहे हैं। गत 13 फरवरी को एक्शन कमेटी द्वारा त्रिवेणी घाट पर लाभार्थियों द्वारा महापंचायत बुलाई गई थी, जिसमें बड़ी संख्या में महिलाएं और स्थानीय भाजपा और कांग्रेस के नेता भी शामिल थे।

इसमें अन्य समाजसेवी संगठनों के प्रतिनिधि भी शामिल थे। महा पंचायत समाप्त होने के बाद भीड़ निर्माण स्थल में घुस गई और सोलन पुलिस से टकराव हो गया। निर्माण कार्य को भी क्षति हुई और कुछ लोगों को चोटें भी आईं, जो हिमाचल के शांतिपूर्ण माहौल के लिए चिंता की बात है, जिसकी निंदा करना भी जरूरी है। आंदोलनकारियों के खिलाफ मुकद्दमे दर्ज किए गए जिसमें जो लोग मौका से दो घंटे पहले ही जा चुके थे, उनके नाम भी एफआईआर दर्ज हो गई है। इस तरह मामले उलझते हैं, सुलझते नहीं। असल में इस अली खड्ड का पानी डाउन स्ट्रीम आबादी की आवश्यकताओं के लिए भी गर्मियों में कम पड़ जाता है और टैंकर लगा कर लोगों की प्यास बुझानी पड़ती है। ऐसी स्थिति में इस नाले पर नया बोझ डालना युक्तिसंगत नहीं कहा जा सकता।

स्थानीय लोगों की चिंताएं वाजिब हैं। नई जरूरतों के लिए साथ लगते कोल डैम से पानी उठाया जा सकता है। अत: समस्या के समाधान के लिए आंदोलनकारियों के खिलाफ दर्ज एफआईआर रद्द करके बातचीत द्वारा मामले को निपटाया जाए। सरकार उच्च स्तर पर हस्तक्षेप करके पहल करे तो शांतिपूर्ण समाधान संभव है। इस समस्या का एक पहलू यह भी है कि अली खड्ड से सोलन जिला को पानी न देने के पक्ष में दोनों मुख्य दल हैं और इस योजना का विरोध कर रहे हैं। कड़े विरोध को देखते हुए उनकी आवाज सुनी जाए।

कुलभूषण उपमन्युु

पर्यावरणविद


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